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धर्म, परम्परा, संस्कृति और स्वास्थ्य को एक सूत्र में पिरोने वाला समय है चातुर्मास

डॉ. मृत्युञ्जय तिवारी

Update: 2022-07-04 08:40 GMT

वेबडेस्क। सनातन वैदिक धर्म में आहार, विहार और विचार के परिष्करण का समय चातुर्मास आषाढ़ शुक्ल एकादशी से आरंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है। जो इस वर्ष 10 जुलाई से प्रारंभ हो रहा है यहीं से चार माह के लिए मांगलिक कार्यों पर विराम लग जाएगा । श्री कल्लाजी वैदिक विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभागाध्यक्ष डॉ मृत्युञ्जय तिवारी ने बताया कि चातुर्मास का शाब्दिक अर्थ ही है चार माह। संयम और सहिष्णुता की साधना करने के लिए प्रेरित करने वाला समय। पर इसका सिर्फ धार्मिक महत्व ही हो, ऐसा नहीं है। इस दौरान तप, शास्त्राध्ययन एवं सत्संग आदि करने का तो विशेष महत्व है ही, सभी नियम सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यावहारिक दृष्टि से भी बड़े उपयोगी हैं। विचारणीय यह है कि चातुर्मास के नियम वैज्ञानिकता से भी जुड़े हैं, जो मन और जीवन को श्रेष्ठता देते हैं। तभी तो यह धर्म, परम्परा, संस्कृति और स्वास्थ्य को एक सूत्र में पिरोने वाला समय माना जाता है।

संयम और ठहराव की सीख - 

डॉ तिवारी के अनुसार यह समय संयम को साधने का संदेश लिए है। बढ़ती असंवेदनशीलता के समय में संयम की यह साधना और भी आवश्यक हो जाती है। संयमित आचरण से हम न केवल मन को वश में करना सीखते हैं, बल्कि हमें धैर्य और समझ भरा व्यवहार करना भी आ जाता है। आज मामूली सी कहासुनी से शुरू हुए झगड़े में जान ले लेने वाली ख़बरें आम हैं। ऐसे में हम सबका अपने व्यवहार के प्रति सजग होना जरूरी है। इसी जरूरत को पूरा करते हैं, जीवन से जुड़े कुछ नियम जो हमें फिर से नया आधार देते हैं। भागमभाग भरी जिंदगी में थोड़ा समय निकालकर सोचने का मौका देते हैं। चातुर्मास ऐसा ही अवसर है, जिसमें हम खुद अपने ही नहीं औरों के अस्तित्व को भी स्वीकार कर उसे सम्मान देने के भाव को जीते हैं। यहीं से हमारे भीतर और बाहर के अंतर्विरोध और संघर्ष का अंत होना शुरू होता है। अपनत्व और सहभागिता की सोच, विचार और व्यवहार को परिष्कृत करती है। कहा भी जाता है कि जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए संयम की साधना अति आवश्यक है। चातुर्मास हमें मन के वेग को संयम की रस्सी से बांधने की प्रेरणा देता है। भारतीय संस्कृति में हरेक पर्व-त्योहार के आध्यात्मिक पक्ष के साथ ही उनके सामाजिक पक्ष भी हैं। इनका आधार सर्वे भवंतु सुखिनः का भाव ही है। बीते समय में सरल, अशिक्षित जनता के लिये जो सुदृढ़, स्वास्थ्यप्रद परंपरायें बनाकर सौगात के रूप में दी गयीं, आज भी चातुर्मास में उनका पालन किया जाता है।

स्वास्थ्य रक्षा का संदेश - 

ज्योतिषाचार्य डॉ तिवारी ने कहा कि स्वास्थ्य की देखभाल और जागरूकता के लिए भी चातुर्मास का बड़ा महत्व है। इन चार महीनों में कंद मूल और हरी सब्जियों से परहेज के लिए कहा जाता है। वर्ष का यही समय होता है जब जीवाणुओं का प्रकोप सबसे ज्यादा होता है। ऐसे में अपच, अजीर्ण और वायु विकार जैसी स्वास्थ्य समस्याएं वातावरण में आद्रता के चलते बढ़ जाती हैं। बरसात के मौसम में खानपान का संयम हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होता है। इसीलिए चातुर्मास धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि आरोग्य विज्ञान व सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। शास्त्रों के अनुसार, सावन में साग, भादों में दही, अश्विन में दूध और कार्तिक में दाल खाना वर्जित बताया गया है। ये नियम वैज्ञानिक सोच की नींव पर ही बनाये गये हैं। कारण यह है कि सावन में खाद्य वनस्पतियों के साथ-साथ जहरीली वनस्पतियां भी उग आती हैं। इसीलिए इस मौसम में हरी सब्जियां खाना मना होता है। आयुर्वेद के अनुसार, दूध और दही वात और कफ बनाते हैं। इस मौसम में वात और कफ की प्रधानता रहती है, इसलिए इसका भी निषेध है। इसी प्रकार अन्य विधानों में भी हमारा हित चिंतन ही निहित है। यही वजह है कि स्वास्थ्य की संभाल में भी परंपराओं का नाम देकर बनाये गए ये वैज्ञानिक नियम बेहद उपयोगी हैं। आज जब हमें कम उम्र में ही कई स्वास्थ्य समस्याएं घेर रही हैं, भारतीय पारंपरिक ज्ञान तंत्र की इस खूबी को अत्यंत बारीकी से समझने की जरूरत है। जो हर तरह से फायदेमंद ही है।

नियमों का व्यावहारिक पक्ष - 

डॉ तिवारी के अनुसार चतुर्मास का मात्र धार्मिक और आध्यात्मिक ही नहीं, ऐसे कई व्यावहारिक कारण भी हैं, जिनके चलते इन चार महीनों में कोई मांगलिक कार्य नहीं होते। चातुर्मास की शुरुआत ऐसे माह से होती है जब खेती-बाड़ी का काम बहुत हुआ करता था। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां चौमासे की फसल से परिवार की वर्षभर की आवश्यकताएं पूरा हुआ करती थीं, इस समय घर के हर व्यक्ति को खेत खलिहान में ज्यादा से ज्यादा समय देना होता था। ऐसे धार्मिक, सामाजिक अनुष्ठान कर पाना बड़ा मुश्किल था। साथ ही बरसात के इस मौसम में बीमारियों का प्रकोप भी अधिक सबसे अधिक होता है।

प्रकृति का पूजन - 

चातुर्मास प्रकृति की उपासना का भी समय है। इस दौरान धरती पर असंख्य जीव, नन्हे पौधे और वनस्पतियां विकसित होती हैं। यह कितनी सुन्दर बात है कि हमारी संस्कृति में पेड़-पौधों में भी जीवन और संवेदना का वास माना गया है। यही बात आगे चलकर वैज्ञानिक शोध में भी सिद्ध हुई। यही कारण है पर्यावरण को सहेजने का भाव हमारी सांस्कृतिक विरासत का अहम हिस्सा है। चातुर्मास में तुलसी, पीपल सींचने और अक्षय नवमी को आंवले के वृक्ष की पूजा की भी परंपरा है।  इस परंपरा को हम प्रकृति और परमात्मा के प्रेम का प्रतीक भी मान सकते हैं। कोरोना विपदा के बाद हम पीपल, तुलसी, आंवला जैसे औषधीय और जीवनरक्षक पौधों की पूजा के मायने समझने लगे हैं। यह प्रकृति पूजन कहीं न कहीं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का ही संदेश देता है। समस्त प्राणियों के लिए जीवन-दायनी आॅक्सीजन उपलब्ध कराने वाले- तुलसी, आंवला और पीपल के पौधों को संरक्षित रखने की बात भी चातुर्मास के नियमों का हिस्सा है। यह किसी अंधविश्वास से नहीं, बल्कि पूरी तरह वैज्ञानिक और जनकल्याण के भाव से जुड़े हैं। आज के समय में जब हमें अपनी परंपराओं को जीवित रखने की जरूरत है, वैज्ञानिकता के साथ बनाये गये चातुर्मास के ये नियम सेहत, संयम और संस्कृति के सच्चे वाहक हैं।

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