समस्या राजनीतिक नहीं, मजहबी उन्माद की है

जम्मू-कश्मीर में गहरे में जड़ें जमा चुके पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को समाप्त करने के लिए महबूबा सरकार को गिराकर प्रदेश को राज्यपाल के हवाले कर दिए जाने का सीधा अर्थ यही है कि अब सुरक्षा बलों को सख्ती करने के सभी अधिकार दे दिए गए हैं।

Update: 2018-07-04 05:33 GMT

-नरेन्द्र सहगल

जम्मू-कश्मीर में गहरे में जड़ें जमा चुके पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को समाप्त करने के लिए महबूबा सरकार को गिराकर प्रदेश को राज्यपाल के हवाले कर दिए जाने का सीधा अर्थ यही है कि अब सुरक्षा बलों को सख्ती करने के सभी अधिकार दे दिए गए हैं। पाकिस्तानी घुसपैठियों, सशस्त्र आतंकवादियों, पत्थरबाजों, प्रशासन में घुसे गद्दारों और इन चारों की पीठ थपथपाने वाले अलगाववादियों की गुलामी से कश्मीर घाटी को आजाद करवाने के इस कदम से आतंकवाद खत्म होगा या और अधिक बढ़ेगा? इस सवाल पर दिल्ली की सरकार ने भली-भांति विचार कर ही लिया होगा। देश की जनता को विश्वास है कि अब की बार आतंकवाद के जन्मदाताओं को भी बख्शा नहीं जाएगा। अगर अब भी चूक गए तो देश की सवा सौ करोड़ जनता मोदी सरकार को बख्शेगी नहीं। ये समस्या भारत की सुरक्षा, अखंडता और स्वाभिमान के साथ जुड़ी हुई है।

1947 में देश के विभाजन के साथ ही पैदा हुई मजहबी उन्माद की इस समस्या से निपटने के लिए भारत की सभी सरकारों ने प्राय: सभी हथियार आजमा लिए हैं। अनुच्छेद 370 के तहत ढेरों राजनीतिक/आर्थिक सुविधाएं, विशेष आर्थिक पैकेज, वार्ताओं के पचासों दौर, सैनिक कार्यवाही, आतंकियों की घर वापसी, पत्थरबाजों की आम माफी, पाकिस्तान के साथ अनेकों वार्ताएं और सीज फायर और बार-बार राष्ट्रपति शासन इत्यादि सब कुछ आजमा कर देख लिया। मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की। दरअसल पाकिस्तान के साथ लगे इस सीमावर्ती प्रांत में जो कुछ भी हो रहा है वह साधारण कानून व्यवस्था के बिगड़ने का मामला नहीं है, ये तो कट्टरपंथी और एकतरफा मजहबी जुनून में से निकल रही एक ऐसी राष्ट्रघातक आग है जिसे वार्ताओं, समझौतों और आर्थिक पैकेज जैसे छोटे-मोटे फायर ब्रिगेड बुझा नहीं सकते। भारत के संविधान, राष्ट्रध्वज, संसद और भूगोल को अमान्य करने वाले ऐसे तत्व कभी भी ऐसे समाधान को सामने नहीं आने देंगे जिससे उनके अलगाववादी उद्देश्य को नुकसान पहुंचे। पाकिस्तान की खुली मदद और कश्मीर में भारतीय संविधान के अंतर्गत सुरक्षा ले रहे अलगाववादियों की सरपरस्ती में कश्मीर के युवकों ने हाथों में संगीनें उठाकर इस्लामी जेहद के लिए कमर कसी है।

कश्मीर की मुकम्मल आजादी के लिए चलाए जा रहे जेहाद का पहला हिस्सा था कश्मीर के हिन्दुओं को निकाल बाहर करना, ये सफल रहा। अब सेना, पुलिस और सरकारी अमलों पर गुरिल्ला हमला करके दूसरे हिस्से को पूरा किया जा रहा है। सुरक्षाबलों पर हो रही पत्थरबाजी साधारण घटना न होकर बाकायदा खूनी जिहाद की सोची समझी राजनीति है। इस विस्फोटक परिस्थिति के लिए राजनीतिक घुटन और आर्थिक पिछड़ेपन को जिम्मेदार बताने वाले बुद्धिजीवी अपने तथाकथित सैकुलर मुखौटे को उतारकर यथार्थ को निहारने का प्रयास करें तो कश्मीर समस्या का वास्तविक स्वरूप नजर आ जाएगा। कश्मीर में न गरीबी है और न ही राजनीतिक पक्षपात जैसी कोई चीज है। सारा उत्पात एकतरफा मजहबी जुनून है। वहां तो इस्लाम और निजामें-मुस्तफा की हुकूमत के लिए खूनी संघर्ष हो रहा है।

वास्तव में कश्मीर की राजनीति प्रारम्भ से ही इसी मजहबी उन्माद से ग्रस्त रही है। शेख अब्दुल्ला, सादिक अली, बक्शी गुलाम मोहम्मद, गुलाम मोहम्मद शाह, सैयद मुफ्ती, फारुख अब्दुल्ला, गुलान नबी आजाद, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती (सभी मुख्यमंत्री) जैसे नेताओं ने मजहब पर आधारित जिस राजनीति का समावेश कश्मीर में किया है, उसी का नतीजा है वर्तमान पाकिस्तान समर्थित हिंसक आतंकवाद। इस धार्मिक उदंडता को कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी संगठन डेमोक्रेटिक फ्रीडम पार्टी के अध्यक्ष शब्बीर शाह के शब्दों (पोस्टरों) से समझा जा सकता है..-इस्लाम की क्रांति का सूर्य उग रहा है, आस्था की संतानों को अब आगे आना चाहिए और भारत से आजादी पाने की कोशिश करनी चाहिए। अल्ला की इच्छा हमारी मार्गदर्शक है, कुरआन हमारा संविधान है, जेहाद हमारी नीति है और शहादत हमारी आकांक्षा है।

संभवतया कश्मीर देश की एकमात्र ऐसी समस्या है जिसपर अभी तक कोई भी राष्ट्रीय सहमति नहीं बन सकी। इस रास्ते की सबसे बड़ी बाधाएं हैं : वोट बैंक की राजनीति, एकरस राष्ट्र जीवन का अभाव, पाकिस्तान का सैनिक हस्तक्षेप और कट्टरपंथी मजहबी भावना। देश और कश्मीर के दुर्भाग्य से इस प्रदेश में सक्रिय संगठन नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल डेमोक्रेटिक पाटी, हुर्रियत कांफ्रेंस, तहरीक-ए-हुर्रियत और सभी आतंकी संगठनों ने क्रमश: आॅटोनमी, सैल्फ रूल, ग्रेटर कश्मीर, पाकिस्तान में विलय और मुकम्मल आजादी जैसे समाधान प्रस्तुत किए हैं। ये सभी समाधान देश और प्रदेश के अमन चैन और सुरक्षा पर आधारित न होकर मजहब, जाति और क्षेत्र के धार्मिक और राजनीतिक स्वार्थों पर आधारित हैं। इसी प्रकार कश्मीर की गुत्थी को सुलझाने के लिए राष्ट्रीय स्तर के दल भी किसी एक राष्ट्रीय सहमति के आसपास भी नहीं पहुंच रहे। समयोचित जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय स्तर के सभी राजनीतिक दल अपने दलगत, जातिगत एवं चुनावी स्वार्थों से ऊपर उठकर एक राष्ट्रीय सहमति बनाएं और केन्द्रीय सरकार द्वारा वर्तमान में उठाए जा रहे कदमों का एक स्वर से समर्थन करें।

उल्लेखनीय है कि सख्त सैन्य कार्यवाही से समस्या का तत्कालिक समाधान जरूर निकलेगा, परन्तु कश्मीर समस्या के स्थाई हल के लिए कुछ ठोस और स्थाई कदम भी उठाने होंगे। अनुच्छेद 370 को हटाकर इस प्रदेश को भारत के शेष प्रदेशों के समकक्ष लाया जाए। इस विशेष अनुच्छेद के समाप्त होते ही अलगाववाद का आधार चरमरा जाएगा। 27 अक्टूबर 1947 को पूरे जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हो चुका है। प्रदेश की जनता द्वारा चुनी गई संविधान सभा ने इसे मान्य किया है। अत: पाकिस्तान द्वारा जबरदस्ती गैर कानूनी ढंग से हथियाए गए कश्मीर के एक तिहाई भाग को सैनिक कार्यवाही से वापिस लेकर भारत में शामिल किया जाए। अर्तराष्ट्रीय कानूनों/परम्पराओं के तहत पाकिस्तान में चल रहे आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को सर्जिकल स्ट्राइक जैसी प्रभावशाली सैन्य कार्यवाही से ध्वस्त किया जाए। कश्मीर से विस्थापित होकर आए हिन्दुओं की सम्मानजनक एवं सुरक्षित घर वापसी की सुचारू व्यवस्था के लिए केन्द्र की सरकार को यथाशीघ्र ठोस कदम उठाने चाहिए।

कश्मीर में जेहाद के नामपर खून-खराबा कर रहे युवकों को कश्मीरियत जम्हूरियत, इन्सानियत और राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाकर उन्हें देश की मुख्यधारा में लाने के लिए देशभक्त और मानवतावादी मुस्लिम विद्वानों को अपनी भूमिका निभानी होगी। यह प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान केन्द्र सरकार ने हिम्मत जुटाकर सुलग रही कश्मीर घाटी को पाकिस्तान परस्त तत्वों की कैद से मुक्त करवाने के लिए जरूरी सैन्य कार्यवाही प्रारम्भ कर दी है। यदि अब भी राष्ट्रीय स्तर के और प्रादेशिक राजनीतिक दलों ने अपनी दलगत राजनीति को छोड़कर इस रणनीति का समर्थन न किया तो देश की सुरक्षा और अखंडता खतरे में पड़ सकती है।

                                                                                                                                                                      ( लेखक वरिष्ठ राष्ट्रवादी चिंतक हैं )


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