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तूणीर : जब अधर्म बढ़ता है तब कृष्ण आते हैं

नवल गर्ग

Update: 2019-12-08 10:55 GMT

आज श्री गीता जयंती है। कहा जाता है कि आज ही भगवान श्रीकृष्ण ने सुयोग्य शिष्य अर्जुन को युद्धस्थल, कुरूक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाओं के मध्य रथ खड़ा करके श्रीमद्भगवद्गीता के निष्काम कर्मयोग का तत्व समझाया था। पांच हजार वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत होने के बाद भी गीता जी के संदेश की उपादेयता वैसी ही है। या यह भी कहा जा सकता है गीता जी का उपदेश और उसके मर्म को समझना वर्तमान में और अधिक महत्वपूर्ण है। भगवान् गीता जी के संवाद - संदेश में यों तो अर्जुन के विचारों में आई कायरता को दूर करने के लिए, उसकी कुंठित हो रही अस्थिर बुद्धि को पुन: स्थिर करके विवेकपूर्ण बनाने के लिए अनेकानेक तरीकों से उसे समझाते हैं लेकिन वर्तमान संदर्भों में इस अमृत संदेश के कुछ बिंदु महत्वपूर्ण हैं।

जब जब अधर्म बढ़ता है और धर्म की हानि होती है तब तब धर्म की पुनस्र्थापना तथा प्राणियों की रक्षा के लिए मैं जन्म लेता हूं।

भगवान का यह वचन हम सभी के लिए महत्वपूर्ण आधार है निराशा की घटाटोप से बाहर आने के लिए । इसी प्रकार एक और अत्यंत महत्वपूर्ण बात श्रीकृष्ण जी ने नवम् अध्याय (श्लोक 22) में भी कही है।

जो अनन्य भाव युक्त जन मुझको चिंतन करते हुए मुझे आराधते हैं, सदा मुझमें रहने वालों (उपासकों) का योगक्षेम मैं चलाता हूं।

इसी तथ्य को सरल शब्दों में, श्रीरामशरणम् के संस्थापक श्री स्वामी सत्यानन्द जी ने अपने अवतरित ग्रंथ 'श्री भक्ति प्रकाश जी Ó में इस तरह कहा है --

जो जन हरि के हो रहे , हरि की करते कार ।

योगक्षेम उनका सभी करता हरि संभार।। (183/33 )

अधर्म और दुराचार बढऩे और धर्म की हानि होने पर भगवान का अवतार लेना एवं अनन्य भाव से परमात्मा का चिंतन/ स्मरण व आराधना करते हुए, स्वयं को परमात्मा का किंकर मानने वालों के योगक्षेम को स्वयं परमात्मा द्वारा वहन करने का आश्वासन राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा - पत्र या चुनावी आश्वासन जैसा नहीं है। बल्कि अटल सत्य है।

यद्यपि परमात्मा के दर्शन हरेक को हर समय वैसे ही होते रहें, जैसे हम लोग एक दूसरे को देखकर, बातचीत करके महसूस कर सकते हैं, यह सम्भव नहीं है फिर भी परमात्मा द्वारा पांच हजार साल पहले गीता जी के संदेश में दिए गए उसके आश्वासन पर हम सभी धर्म - अध्यात्म प्रेमी जन पूरे मन से विश्वास करते हैं और उसके द्वारा किसी न किसी प्रकार से परमात्मा के होने की और उसके आश्वासन के तत्काल पूरा होने की अनुभूति भी होती है। यह बात वर्तमान कानून के रक्षकों, शासक, प्रशासकों के आश्वासन में नहीं झलकती, यह सार्वजनिक चिंता का विषय है। बढ़ते दुर्दम्य अपराधों की अंतहीन श्रृंखला और पस्त पड़े कानून के रखवाले चाहे जहां हों वे समाज की सुरक्षा का दायित्व निर्वाह में एकदम असहाय दिख रहे हैं।

वर्तमान में कानून के शासन की लचर व्यवस्थाओं और विलम्बित लम्बी, दुरूह न्याय व्यवस्था को और अधिक लम्बित रखे जाने के कारण, केवल इन व्यवस्थाओं से ही नहीं पूरे सिस्टम से आमजन का विश्वास उठता जा रहा है। फिर हश्र वह होना स्वाभाविक ही है जो हैदराबाद के रेप काण्ड के आरोपियों के साथ एनकाउंटर करके हैदराबाद पुलिस ने कर दिखाया है। सभी छोटे - बड़े और नेता -- अभिनेता पुलिस की बड़ाई, अभिनंदन करने में जुटे हैं।

घटाटोप अंधेरे में आशा की एक भी किरण दिखाई दे तो सबके मन में राहत होना स्वाभाविक ही है।

हालांकि ऐसे एनकाउंटर लंबे समय तक बहुत सराहनीय कृत्य माने जायें, ऐसा नहीं है। सिस्टम को दुरूस्त करने और कानून व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए कान खड़े करने में, पूरे सिस्टम को खुली चुनौती देता यह एनकाउंटर कुछ अप्रत्यक्ष मदद भले ही कर दे पर इसका अधिक प्रभाव नहीं हो पाएगा।

वरना यदि एनकाउंटर ही कानून व्यवस्था में समरस हो गए व नेतागण इसे ही अपनी उपलब्धि मानने लग गये तो हैवानियत सिर चढ़कर बोलेगी और हम इंसान और इंसानियत दोनों को ही ढ़ूंढने रह जाएंगे --

इन्सानियत की रोशनी गुम हो गई कहां,

साए तो हैं आदमी के मगर आदमी कहां?

(लेखक पूर्व जिला न्यायाधीश हैं।)

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