घोड़े पर हौदा और हाथी पर जीन
राम बहादुर राय, लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष तथा बहुभाषी न्यूज एजेंसी हिन्दुस्थान समाचार के समूह संपादक हैं।
'मुझे गरीबों की चिंता है, उन्हें बंगलों की।' यही है उत्तर प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनाव का नारा। जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मगहर में दिए अपने लंबे भाषण के बीच जनता से सीधे संवाद में कहा। मगहर कई लोक कथाओं की स्थली है। काशी से कबीर वहां गए। किसीे पूछा कि यहां क्यों आए, तो उन्होंने जो जवाब दिया, वह आज भी वहां और हर जगह दोहराया जाता है। काशी में मुक्ति मिलती है। मगहर में उस पर संदेह होता है। कबीर ने उस मिथक को तोड़ा। मगहर को मुक्ति के लिए चुना। नरेन्द्र मोदी का दूसरा नाम है, बड़ी लकीर खीचते जाना। यही उन्होंने मगहर पहुंच कर किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले संत कबीर की मजार पर चादर चढ़ाई। उस तपस्थली के दर्शन किए। उसके बाद आमसभा में बोले। जो बोले, वह 2019 के चुनाव का मंत्र बन जाएगा। इससे बेहतर प्रतीक दूसरा नहीं हो सकता। जिसे प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी संदेश के लिए चुना। कबीर सामाजिक समरसता के गायक थे। जातिवाद और कट्टर जमातवाद पर आजीवन प्रहार करते रहे। अपने जीवन में सादगी, स्वावलंबन और भक्ति की धारा को अपनाया। कबीर ने आखिरी सांस मगहर में ली। उस मगहर को चुनकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक बहस की दिशा तय कर दी है। 2014 में उन्होंने 'सबका साथ-सबका विकास' का नारा दिया था। इस बार उसे उन्होंने नया शब्द दिया है। पुराने शब्दों पर नए अर्थ की कलम चलाने से जो प्रक्रिया प्रारंभ होती है, वह एक बहस से गुजरते हुए लोकतांत्रिक क्रांति में परिवर्तित हो जाती है। यही मगहर का राजनीतिक संदेश है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सही समय और उचित स्थान चुनने के लिए जाने जाते हैं। जब विपक्ष के बेमेल गठबंधन की चर्चा जोरों पर हो, ऐसे समय में प्रधानमंत्री ने सीधे जनता से संवाद का निर्णय किया। महात्मा गांधी इसी तरीके को अपनाते थे। जब-जब जरूरत पड़ी, तो उन्होंने जनता को जगाया। दिल्ली के दरबार की परवाह नहीं की। कुछ हद तक यही तरीका नरेन्द्र मोदी ने अपनाया है। वे सीधे फरियाद जनता से ही करते हैं। मगहर में भी यही किया। उत्तर प्रदेश में जिस बेमेल गठजोड़ की जमीन बन रही है, उसकी वास्तविकता उन्होंने उजागर कर दी। कहा कि मुझे गरीबों के उत्थान की रात-दिन चिंता रहती है। उसके लिए सरकार योजनाएं बना रही हैं। उस पर अमल हो रहा है। दूसरी तरफ अपना बंगला बचाने के लिए गठजोड़ की तैयारी हो रही है। समाजवादी पार्टी-बीएसपी में मेल-जोल के जो भी प्रयोग उत्तर प्रदेश में हुए, वे विफल रहे। उनका दुखांत ऐसा हुआ, जो गहरे घाव छोड़ गया है। यह सही है कि तब समाजवादी पार्टी का नेतृत्व मुलायम सिंह कर रहे थे। आज अखिलेश यादव कर रहे हैं। क्या यह फर्क समाजवादी पार्टी-बीएसपी के समर्थकों को अपने कटु अनुभवों से निकलने में सहायक होगा? इसके बारे में अभी निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। जो संकेत समाजवादी पार्टी - बीएसपी के नेतृत्व से मिल रहे हैं, उससे यह स्पष्ट हो रहा है कि लोकसभा के चुनाव में सीटों पर तालमेल की बात बढ़ रही है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन बनना लगभग तय है। समाजवादी पार्टी, बीएसपी, कांग्रेस और अजीत सिंह का लोकदल मिलकर चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटों में समाजवादी पार्टी-बीएसपी बराबर की हिस्सेदार होगी। तब कांग्रेस और लोकदल के लिए कितनी सीटें बचेगी? समाजवादी पार्टी-बीएसपी में इस पर सहमति है कि कांग्रेस के लिए तीन से पांच सीटें छोड़ देनी चाहिए। इसी तरह लोकदल के लिए दो सीटें समाजवादी पार्टी-बीएसपी के नेतृत्व ने देना सोचा है। बची हुई सीटें समाजवादी पार्टी-बीएसपी में बराबर-बराबर बटेगी। ऐसा अगर हो गया तो नेतृत्व के स्तर पर महागठबंधन कामयाब हो जाएगा। उत्तर प्रदेश में महागठबंधन का प्रयोग कभी सफल हुआ नहीं। इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि उत्तर प्रदेश के लोकमानस में यह गहरे बैठा हुआ विश्वास है कि भारत की एकता-अखंडता बनाए रखने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी उसकी है। यह उत्तर प्रदेश का वह अंतर्मन है, जो राजनीति में निर्णायक भूमिका बहुत पहले से निभाता है। वह देखता है कि नेतृत्व के चयन में हुई थोड़ी-सी असावधानी भी बहुत भारी पड़ सकती है। यही सोच उसे हमेशा जगाए रखता है। वह उन भविष्यवाणियों को विफल करता है, जो सतही आधार पर उभरे लक्षणों से किए जाते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश दसियों बार इस बात को खूब जांचेगा कि जो महागठबंधन है, वह क्या राजनीतिक स्थिरता की कसौटी पर खरा उतर सकता है?
विपक्ष के बेमेल गठजोड़ के लिए सिर्फ यही और एकमात्र कसौटी नहीं है। दूसरी भी है। उन्हें किसी सर्वेक्षण से नहीं जाना जा सकता। वैसे भी सर्वेक्षण की कोई साख बची नहीं है। इन दिनों कई सर्वेक्षण आए हैं। वे कितने वास्तविक हैं? उनके आधार पर विपक्ष में राहुल गांधी को उभारने का प्रयास हो रहा है। ऐसे सर्वेक्षण से राहुल गांधी को नरेन्द्र मोदी के समकक्ष बताने की एक सोची-समझी चाल चली जा रही है। इस पर अचानक कोई भरोसा कर लेगा? कैसे कर लेगा? क्योंकि यह विचित्र प्रयास है। अस्वाभाविक है। नेतृत्व विकसित होता है, उसे मान्यता मिलती है और फिर उसे जनता की स्वीकृति भी प्राप्त होती है, लेकिन इसकी कुछ शर्तें होती हैं। पहली शर्त यह कि पार्टी उसे अपना नेता स्वीकार करे। कांग्रेस ने राहुल गांधी को उस तरह अपना नेता नहीं स्वीकार किया है, जैसा उसने कभी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को किया था। शिवप्रसाद मिश्र 'रूद्र' एक महान साहित्यकार हुए हैं। वे 'रूद्र' काशिकेय के रूप में विख्यात हुए। उनका उपन्यास है-'बहती गंगा।' उसका एक अध्याय है-'घोड़े पर हौदा और हाथी पर जीन।' एक तमाशा का यह चित्रण है। चुनावी राजनीति में राहुल गांधी पर वह तमाशा चिपक जाता है।
जब कांग्रेस में राहुल गांधी की सर्वमान्य स्वीकृति नहीं है, तो विपक्ष उन्हें अपना नेता कैसे मान लेगा। इसका कोई सवाल ही नहीं उठता। उत्तर प्रदेश के उदाहरण से बात करें, तो राहुल गांधी को अखिलेश यादव और मायावती उस तरह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, जैसा कि 1989 के चुनाव में मुलायम सिंह, अजीत सिंह और बीजेपी ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को स्वीकार किया था। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह जनता दल के नेता थे। मुलायम सिंह और अजीत सिंह जनता दल के प्रदेश में दो बड़े नेता थे। बीजेपी से जनता दल का सीटों पर तालमेल हुआ था। इस बार कांग्रेस उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी-बीएसपी की दया पर आश्रित है। इसका राजनीतिक अर्थ यह हुआ कि प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में उत्तर प्रदेश से कांग्रेस नहीं है। अगर कोई हो सकता है तो वह मायावती है। यानी अखिलेश यादव ने मायावती से एक सौदा कर लिया है। वह उत्तर प्रदेश में रहेंगे और मायावती दिल्ली की दावेदारी में जाएंगी।
उत्तर प्रदेश से विपक्षी एकता की जो तस्वीर उभर रही है, वह उस आशंका को बढ़ाएगी, जिसमें राजनीतिक सौदेबाजी और उससे उत्पन्न अस्थिरता का महौल बन सकता है। यह तो भविष्य की बात है। इस समय यह स्पष्ट सा हो गया है कि चुनाव पूर्व महागठबंधन की राष्ट्रीय स्तर पर कोई संभावना नहीं है। एचडी देवेगौड़ा का बयान आया है कि 'कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में छह विपक्षी दल शामिल हुए थे। यह जरूरी नहीं है कि जिन नेताओं व दलों ने कुमारस्वामी के शपथ समारोह में भाग लिया था, वे 2019 में सब मिलकर चुनाव लड़ेंगे।' इसी तरह शरद पवार का एक बयान कुछ दिन पहले आया। उन्होंने कहा कि 'चुनाव पूर्व महागठबंधन व्यावहारिक नहीं है।' उनके इस बयान से महागठबंधन की राष्ट्रीय स्तर पर जो वास्तविकता है, वह प्रकट होती है। इसमें कम से कम दो बातें हैं। पहली यह कि महागठबंधन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर किसी नेता को राज्य के दल स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। हर राज्य का नेता अलग है। अांध्र प्रदेश में तेलगू देशम के चंद्रबाबू नायडू, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, उड़ीसा में बीजू जनता दल के नवीन पटनायक, महाराष्ट्र में शरद पवार आदि ऐसे नाम हैं, जो राहुल गांधी को चुनाव पूर्व महागठबंधन का नेता नहीं मानने जा रहे हैं। शरद पवार का जिस दिन बयान आया, उसी दिन कांग्रेस के प्रवक्ता ने कहा कि शरद पवार पूरी तरह सही हैं। शरद पवार के बयान से जो दूसरी बात निकलती है, वह यह है कि विपक्ष की एकता आज कल्पनालोक में है। ऐसा बिखरा हुआ विपक्ष क्या कोई भरोसा जनता में पैदा कर सकता है?
(राम बहादुर राय, लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष तथा बहुभाषी न्यूज एजेंसी हिन्दुस्थान समाचार के समूह संपादक हैं)