रसोईया बनी गुरु मां: 15 के लिए चढ़ा दी 26 मासूमों की शिक्षा की बलि, रसोईये ने संभाली पढ़ाई की जिम्मेदारी
Tribal Children Education Crisis : अर्जुन झा, जगदलपुर। शिक्षा विभाग का एक ऐसा तुगलकी फैसला, जिसने शिक्षा के अधिकार के पर कतर दिए हैं, महज 15 बच्चों के लिए 26 बच्चों के भविष्य और शिक्षा की बलि चढ़ा दी गई। मगर ग्रामीण भी कहां हार मानने वाले थे, खुद नहीं पढ़ पाए तो क्या, वे अपने बच्चों का भविष्य चौपट होते नहीं देख सके। टीचर की भूमिका में आ गई स्कूल की कुक और स्कूल में फिर से गूंजने लगी है क ख ग की स्वर लाहारियां।
21वीं सदी के इस भारत में जहां डिजिटल इंडिया, राइट टू एजुकेशन और सर्व शिक्षा अभियान की बातें तो खूब होती हैं, मगर बस्तर संभाग के सुदूर गांवों में जमीनी हकीकत कुछ और कहानी बयां करती है। एक गांव के 26 आदिवासी बच्चे आज शिक्षा के मामले में बेसहारा होकर स्कूल भवन में बैठे, शिक्षा के अधिकार की भीख मांगते नजर आ रहे हैं।
उनके शिक्षा के अधिकार के पर कतर दिए गए हैं। महज 15 बच्चों या कहें शिक्षकों और अधिकारियों के स्वार्थ की खातिर ये उनके भविष्य और शिक्षा की बलि चढ़ा दी गई है। ये कहानी है बस्तर संभाग के बीजापुर जिले के भैरमगढ़ ब्लॉक के जांगला संकुल अंतर्गत प्राथमिक शाला ककाड़ीपारा की, जहां शिक्षा विभाग ने ईचेवाड़ा के 15 बच्चों की सुविधा के लिए इस स्कूल के 26 बच्चों की उम्मीदें रौंद दीं।
ककाड़ीपारा में स्कूल का भवन है, बच्चे भी हैं, लेकिन नहीं है तो शिक्षक, और आदेश निकालकर चुप बैठे विभाग के हुक्मरान। सन 2006-07 में सलवा जुडूम के दौरान प्राथमिक शाला ईचेवाड़ा स्कूल को अस्थाई रूप से ककाड़ीपारा शिफ्ट किया गया था। अब पोटेनार सरपंच की मांग पर शिक्षा विभाग ने 30 जून को स्कूल को दोबारा ईचेवाड़ा शिफ्ट कर दिया। सिर्फ 15 बच्चों की तीन किलोमीटर की परेशानी को कम करने के खातिर।
ककाड़ीपारा के 26 बच्चे? उन्हें कहा गया- 4 किमी दूर जांगला जाओ, वहीं शिक्षा मिलेगी। ये वही विभाग है जो 3 किमी की दूरी को परेशानी मानकर स्कूल हटाता है, लेकिन नदी के उस पार, 4 किमी दूरी को आदिवासी बच्चों के लिए कोई चुनौती नहीं मानता।
शिक्षक गायब, कुक बनी शिक्षिका
3 जुलाई से आज तक कोई शिक्षक नहीं आया इस स्कूल में। शिक्षा विभाग द्वारा कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की जाने ने की स्थिति में ग्रामीणों और शाला प्रबंधन समिति ने बैठक रखी। ग्रामीण झुके नहीं डटे रहे। हरिराम पोयाम ने मोर्चा संभाला, वह हर दिन बच्चों को रोज स्कूल लाता हैं। रसोईया पार्वती कोवासी मध्यान्ह भोजन तैयार करने के साथ साथ बच्चों को पढ़ा भी रही हैं। विज्जे वाचम बच्चों की देखभाल कर रही हैं, तो पूरा गांव बारी-बारी चावल-दाल-सब्जी लाकर मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था को चला रहा है।
सिस्टम फेल, खड़ा हुआ पूरा गांव
जब पूरा सिस्टम फेल होता नजर आया तब भी ग्रामीणों ने उम्मीद नहीं छोड़ी, हौसला नहीं खोया। अपने बच्चों के भविष्य के लिए पूरा गांव खुद उठ खड़ा हुआ। ग्रामीण कहते हैं- या तो शिक्षक भेजो या स्कूल वापस दो। शिक्षा विभाग की बेरुखी से नाराज और शिक्षकों की व्यवस्था करने की मांग को लेकर पूर्व सरपंच बुधराम पोयाम, शाला प्रबंधन समिति अध्यक्ष बचलू वाचम, अयतू पोयाम, रामलू पोयाम, हरिराम पोयाम व अन्य ग्रामीणों ने सीईओ भैरमगढ़, डीईओ, कलेक्टर, विधायक से मिलकर अपनी समस्या बताई, आवेदन दिए।
26 आदिवासी बच्चों के भविष्य का हवाला देते हुए ककाड़ीपारा में फिर से स्कूल शुरू करने और वहां के बच्चों के लिए शिक्षक नियुक्त करने की मांग की। ग्रामीण उम्मीद के हर दरवाजे पर दस्तक दे चुके हैं, लेकिन नतीजा अब तक जीरो ही है।
मासूम बन गए डीईओ ककाड़ीपारा के बच्चों के भविष्य के बारे में बीजापुर डीईओ से सवाल करने पर बड़ी मासूमियत से वे कहते हैं- कलेक्टर महोदय से पूछ कर बताऊंगा। जिला शिक्षा अधिकारी ने कैमरे से बचते रहे और बस इतना कहा - “कलेक्टर महोदय स्वयं देख रहे हैं पूछे बिना कुछ नहीं बोलूंगा।” क्या यही है एक जिम्मेदार अधिकारी का रवैया? जब एक गांव के 26 मासूम बच्चों की पढ़ाई 3 जुलाई से बंद पड़ी है, क्या यही जवाब है उन बच्चों के भविष्य का?
क्या अधिकारी सिर्फ आदेश टाइप करने और कुर्सी पर बैठने के लिए हैं? अब सवाल यह कि क्या आदिवासी बच्चे इस देश के नागरिक नहीं? क्या 26 बच्चों की पढ़ाई की कोई कीमत नहीं? क्या शिक्षा विभाग जानबूझकर ग्रामीणों को उनके अधिकार से वंचित कर रहा है?
अगर अब भी शासन- प्रशासन नहीं जागे, तो यह समझ लिया जाएगा कि शिक्षा का अधिकार अब कागजों तक सीमित रह गया है। ककाड़ीपारा के बच्चों ने हार नहीं मानी है, वे आज भी हर सुबह स्कूल आते हैं, प्रार्थना करते हैं, सीखने की कोशिश करते हैं।
यह खबर सिर्फ एक गांव से आई खबर नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम के खोखलेपन की तस्वीर है। 15 बच्चों की सुविधा के लिए 26 बच्चों की शिक्षा को जोखिम में डालना क्या न्यायोचित निर्णय है? ककाड़ीपारा के मासूम आदिवासी बच्चों का कसूर क्या है?