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सोशल मीडिया का खौफ

दिनेश राव

Update: 2018-09-08 08:49 GMT

पिछले कुछ दिनों से लगातार हो रहे रोज-रोज के आंदोलनों ने प्रशासनिक तंत्र के सामने एक नई परेशानी खड़ी कर दी है। इस साल के बीते आधे दिनों पर नजर डाले तो अभी तक तीन-चार बार भारत बंद सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाले संदेशों के आधार पर ही बिना किसी बात के हो चुके हैं। मोबाइल पर शहर बंद, भारत बंद जैसे संदेश प्रसारित होते हैं और पूरा तंत्र इस बंद से निपटने की तैयारी में लग जाता है। कहीं कोई अनहोनी न हो जाए इस बात को लेकर सरकार से लेकर प्रशासनिक तंत्र तक की नींद हराम हो जाती है। यह आंदोलन कौन कर रहा है? इसमें शामिल होने वाले लोग कौन है और कहां से आ रहे हैं? इन्हें कौन उकसा रहा है? इन्हें कौन इकठ्ठा कर रहा है? ऐसे कई सवालों के जवाब फिलहाल ठीक-ठीक नहीं मिल पा रहे हैं। किसी को नहीं पता कि दो अप्रैल को हुआ विरोध प्रदर्शन किसके दिमाग की उपज थी। एकाएक सोशल मीडिया पर बंद का आह्वान होता है और दूसरे दिन ही न जाने कितने अनजाने चेहरे सड़कों पर उतर पड़ते हैं और जब तक प्रशासनिक अमला कुछ समझ पाता, उसके पहले ही यह लोग सड़कों पर उत्पात मचा कर रफू चक्कर हो जाते हैं। इसके बाद दस अप्रैल को इस घटना के विरोध में हुआ भारत बंद भी सोशल मीडिया पर प्रसारित हुए संदेशों के आधार पर ही रहा। इस बार प्रशासनिक तंत्र सतर्क था इसलिए कोई अनहोनी नहीं हो सकी। इन दोनों आंदोलनों में एक बात जो देखने में आई वह यह थी कि एक भी संगठन आधिकारिक तौर पर सामने नहीं आया और न ही किसी ने इसकी जिम्मेदारी ली। तीसरा आंदोलन जो हाल ही में 6 सितम्बर को हुआ उसमें भी किसी संगठन ने आधिकारिक तौर पर बंद करने का आह्वान नहीं किया। हां कुछ चेहरे जरूर सोशल मीडिया व सड़कों पर सभा करते हुए सामने आए।

बंद के इन तरीकों को देखने व समझने के बाद सबसे अहम बात जो सामने आ रही है वो यह है कि यह तीनों ही विरोध प्रदर्शन सोशल मीडिया से उपजे हैं। इसे एक नए तरह का संकेत कहा जा सकता है। एक नए दौर की आहट सुनाई दे रही है। एक नई तरह की समस्या जन्म लेते दिख रही है। फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप के जरिए अनर्गल संदेश फैलाकर फलां दिन बंद का आह्वान किया जाता है और ये आह्वान कौन कर रहा है किसी को नहीं पता। देखते ही देखते इस तरह के संदेशों की बाढ़ सी आ जाती है। जिस तरह से सोशल मीडिया के जरिए 2 अप्रैल के भारत बंद की भूमिका तैयार हुई ठीक उसी तर्ज पर दस अप्रैल और फिर 6 सितम्बर को भारत बंद का आह्वान किया गया। दो अप्रैल को भारत बंद की सूचना केवल सोशल मीडिया पर ही वायरल हो रही थी, इसलिए इसे न तो प्रशासन ने गंभीरता से लिया और न ही आम लोग सतर्क थे। फिर दो अप्रैल को जो कुछ हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। अनायास हजारों की संख्या में न जाने कहां से ग्वालियर-चंबल के कुछ जिलों में भीड़ उतर पड़ती है और जो कुछ हुआ वह सबके सामने हैं। इसके बाद से सोशल मीडिया पर जैसे ही भारत बंद की सूचना वायरल होती है सबके कान खड़े हो जाते हैं और एक बार फिर से प्रशानिक अमला सतर्क होकर सड़कों पर उतर पड़ता है। दो अप्रैल की घटना की पुनरावृत्ति न हो, पुलिस के माथे पर फिर कोई कलंक का टीका न लगे इस भय से सारा कामकाज बंद कर प्रशासनिक अमला सड़कों पर उतर पड़ता है और एक अनजाना सा भय सबके दिलो दिमाग पर छा जाता है। दो अप्रैल की घटना के बाद से ही प्रशासन सतर्क था इसलिए दस अप्रैल और छह सितम्बर को हुए बंद के दौरान किसी प्रकार की हिंसा नहीं हो सकी। शायद लोगों ने भी थोड़ा संयम रखा। इन तीनों आंदोलनों को देखते हुए एक बात पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि इस तरह से अगर सोशल मीडिया से विरोध प्रदर्शन उपजता रहा तो ये आने वाले दिनों में और मुश्किलें खड़ी कर सकता है। सोशल मीडिया के एक पोस्ट से अगर गोलबंदी हो जाए तो समझा जा सकता है कि ये कितने खतरनाक स्तर पर जा सकता है। एक पोस्ट के वायरल होने पर देशभर की सड़कों पर जनता उतरने लगे तो कानून-व्यवस्था के सामने गंभीर संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। अभी तक अपनी-अपनी राजनीति का झंडा उठाए लोग सोशल मीडिया पर जो एजेंडा चला रहे हैं वो खतरनाक है। दिनबदिन बेलगाम होते जा रहे सोशल मीडिया को काबू में रखना जरूरी हो गया है। 

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