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प्रधानमंत्री की भावनाएं और जमीनी सच्चाई

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

Update: 2018-10-02 07:44 GMT

ज्ञान और शिक्षा सिर्फ किताबें नहीं हो सकती हैं। शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। इसके लिए नवोन्मेष जरूरी है। अगर यह रुक जाता है तो जिंदगी ठहर जाती है। नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला जैसे हमारे प्राचीन विश्वविद्यालयों में ज्ञान और नवोन्मेष दोनों का समान महत्व था। आज हमने स्वामी विवेकानंद की शिक्षा को भुला दिया है। जरूरत है कि विद्यार्थियों को कॉलेज, यूनिवर्सिटी के क्लास रूम में तो ज्ञान दें ही, उन्हें देश की आकांक्षाओं से भी जोड़ा जाए ।

वस्तुत: यह समस्त विचार प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के हैं। प्रधानमंत्री 30 सितंबर को दिल्ली के विज्ञान भवन में कुलपतियों और अन्य शिक्षाविदों के एक आयोजन को संबोधित कर रहे थे। यह बात सच है कि केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद चुनौतियां कम नहीं रही हैं। फिर भी यह भी उतना ही सत्य है कि जिस देश की शिक्षा व्यवस्था में अपने समाज और राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव जाग्रत करने की क्षमता होती है, दुनिया में वही देश शक्ति सम्पन्न और सामर्थ्यवान बनते हैं। इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि भारत शक्तिसम्पन्न एवं सामर्थ्यवान नहीं है। जिस स्तर पर देश की जनसंख्या है और जैसे संसाधन हम स्वाधीनता के बाद पिछले 70 साल में खड़े कर सके हैं, उन्हें देखकर तो यही लगता है कि अभी बहुत दूर तक हमें विकास की मंजिल तय करना था, पर कर ना सके आपस के विरोधों में।

आज प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं, दुनिया में कोई भी देश, समाज या व्यक्ति एकाकी होकर नहीं रह सकता। हमें ग्लोबल सिटीजन और ग्लोबल विलेज के दर्शन पर सोचना ही होगा और ये दर्शन तो हमारे संस्कारों में प्राचीन काल से ही मौजूद हैं। उच्च शिक्षा हमें उच्च विचार, उच्च आचार, उच्च संस्कार और उच्च व्यवहार के साथ ही समाज की समस्याओं का उच्च समाधान भी उपलब्ध कराती है। फिर भी प्रश्न यही है कि क्या भारत की वर्तमान उच्च शिक्षा हमें वैश्विक सोच देने के साथ सामाजिक समस्याओं का हल उपलब्ध करा रही है? इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करने और अपने आस-पास देखने पर लगता है कि ऐसा बिल्कुल नहीं है। यदि ऐसा होता तो आज शिक्षा प्राप्त करते ही सभी को रोजगार के समान अवसर उपलब्ध हो जाते। समाजगत सभी जातीय विषमताएं समाप्त हो जातीं और देश की समस्त कुरीतियों का नाश हो जाता। किंतु इसके विपरीत वर्तमान शिक्षा जिस संस्कार को उत्पन्न कर रही है, वह येन केन प्रकारेण अधिकतम धन कमाने की है, फिर उसके लिए रास्ता कुछ भी हो, भ्रष्टाचार करना पड़े तो वह भी कर लेंगे। कुल मिलाकर धन आना चाहिए।

वस्तुत: इस सोच के ठीक विपरीत भारत के प्राचीनतम ग्रंथ हमें जिस जीवन पद्धति के सूत्रों की ओर इशारा करते हैं, उसमें धर्म, अर्थ, काम और अंत में मोक्ष की अवधारणा है। यानी कि धर्म प्राप्त करने के पश्चात धर्म से ही युक्त अर्थ प्राप्त करते हुए अपनी कामनाओं की पूर्ति एवं उसके बाद उन तमाम कामनाओं से निवृत्ति करते हुए मोह का क्षय करना एवं उसके बाद मोक्ष को प्राप्त करना प्रत्येक भारतवासी की संकल्पना होनी चाहिए।

देश के प्रधानमंत्री आज मंच से अवश्य यह कहते दिख रहे हों कि वेदों को संस्कृति का आधार स्तंभ बताया गया है और इसका शाब्दिक अर्थ ज्ञान है। उसी के ज्ञानमय आलोक पर कार्य हो, किंतु क्या प्रधानमंत्रीजी के इस सुझाव पर कोई अमल करता दिख रहा है। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है, जिन वेदों में ज्ञान का खजाना है, उसे आज हम लोगों ने ही अपनी शिक्षा व्यवस्था से पूरी तरह दूर रखा हुआ है। वस्तुत: धर्म और पंथनिरपेक्षता की आड़ में हमने शिक्षा के परंपरागत संस्कारों को अपने से बहुत दूर कर दिया है।

आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अकेले यह कहने भर से काम नहीं चलने वाला कि देश के महान विचारकों का मानना था कि अगर शिक्षा का कोई लक्ष्य न हो तो वह खूंटी पर टंगे सर्टिफिकेट से ज्यादा कुछ नहीं होता है। शिक्षा को लक्ष्य देने और उसे समाज से जोड़ने के लिए सरकार लगातार प्रयास कर रही है। यहां कहना होगा कि सरकारें किसी भी दल की रही हों, शिक्षा में विकास का दावा अपने समय में सभी करती हैं किंतु वह इस बात की गंभीरता नहीं देख पा रही हैं कि जो शिक्षा की नीति भारत ने अंग्रेजों की यथावत स्वीकार्य की है, वह क्या आज देश के लिए उपयुक्त है? क्यों किसी विद्यार्थी को किन्हीं विषयों से बांधकर अध्ययन करने के लिए मजबूर किया जाता है? क्यों 10+2 से लेकर स्नातक एवं स्नातकोत्तर का इतना अधिक महत्व बना दिया गया है? क्यों जिसके पास यह डिग्रियां नहीं भी हैं. तो उसे अपनी प्रतिभा के बूते विश्व स्तर पर आगे बढ़ने के अवसर सुलभ नहीं होते? वस्तुत: हमारे यहां प्रतिभाएं कभी अंग्रेजी भाषा के दबाव में तो कभी विषय की अनिवार्यता एवं उसमें उत्तीर्ण होने की आवश्यकता के बीच नित्य प्रति दम तोड़ रही हैं।

आज भारत में अकेले उच्च शिक्षा का परिदृश्य देखें तो देश में 900 उच्च शिक्षण संस्थान और 40 हजार से अधिक महाविद्यालय हैं। सच यह है कि हम इन्हें अपनी श्रेष्ठ परंपराओं से नहीं जोड़ सके हैं। वस्तुत: इन सभी में अपनी श्रेष्ठ परंपराओं से जोड़कर हम ज्ञान देना आरंभ कर दें और यूरोप के कई देशों की तरह का मॉडल विकसित करें, जिसमें विद्यार्थी की जिस विषय में विशेष योग्यता रहती है, उसे उसमें ही आगे बढ़ने के पर्याप्त सुअवसर प्रदान किए जाते हैं तो निश्चित ही देश में कोई बेरोजगार नहीं रहेगा। इसके अतिरिक्त सरकार को चाहिए कि वह उच्चशिक्षा में भी नैतिक शिक्षा जोड़ने के साथ प्रत्येक विद्यार्थी को उसकी मौलिक भाषा में आगे बढ़ने के अवसर मुहैया कराए।

यहां यूनेस्को की डेलर्स कमेटी की एक रिपोर्ट देख लेना उचित होगा, जो सीधे तौर पर कहती है किसी भी देश की शिक्षा का स्वरूप उस देश की संस्कृति एवं प्रगति के अनुरूप होना चाहिए। आज सवाल यही है कि हमारे देश की शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार का नहीं है। वस्तुत: इसमें जब तक सुधार नहीं होगा, लगता यही है कि अंग्रेजियत की मानसिकता के बीच सरकार भले ही इस दिशा में सुधार के अपने भरसक प्रयत्न करती रहे, देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन दिखाई देने वाले नहीं हैं।

(लेखक पत्रकार एवं सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य हैं)

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