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जातियों से नहीं, राजनीतिक जातिवाद से है खतरा

जातियों से नहीं, राजनीतिक जातिवाद से है खतरा
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जयकृष्ण गौड़। समाज में जाति और राजनीति में जातिवाद के संदर्भ के साथ चर्चा इसलिए प्रासंगिक है कि राजनीतिक जातिवाद एकात्मता के ताने-बाने के लिए भी न केवल नासूर बन गया है, लेकिन यह देश विरोधी माहौल भी बना रहा है। चाहे हार्दिक पटेल, मायावती हो, मेवाणी या और कोई हो, ये राजनीति में आज के भविष्य की तलाश करते हुए सामाजिक ताने-बाने के साथ खिलवाड़ करके वर्ग या जाति के बीच द्वेष पैदा कर रहे हैं। समाज में छुआछूत और ऊंच-नीच के लिए हमारे धर्म-संस्कृति में कभी कोई स्थान नहीं रहा। विदेशी हमलावरों ने हमारे सामाजिक ताने में बिखराव की साजिश की। इसके बाद भी द्वेषभाव की ऐसी स्थिति नहीं बनी, जो राजनीतिक जातिवाद के कारण दूषित वातावरण बना है। हमारे ऋषि-मुनि, साधू-संतों यहां तक कि रामकृष्ण जैसे अवतारियों के विचार ग्रंथों में है, उसमें शबरी के जूठे बेर राम द्वारा खाने का वृतांत है, श्रीकृष्ण और गरीब सुदामा के मिलन की कथा है। राम द्वारा वानर जाति की संगठन शक्ति में आसुरी शक्ति को परास्त करने की रामायण है। संतों, महापुरुषों को भी जातियों में बांटकर राजनीति में प्रभावी होने की कोशिश की जाती है। क्या रामायण के रचियता वाल्मिकी किसी एक सम्प्रदाय के ऋषि थे, क्या महर्षि परशुराम का फरसा किसी एक सम्प्रदाय का प्रतीक है, अखिलेश यादव भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित करने जा रहे हैं।

यादवेन्द्र (श्रीकृष्ण) को भी एक सम्प्रदाय का प्रतीक राजनीतिक स्वार्थ के लिए माना जाता है। उनसे कोई सवाल करे कि वे क्या भगवान श्रीकृष्ण के जन्म स्थान मथुरा को मुक्त कराने की आवाज बुलंद करेंगे? इस बारे में मुँह बंद रहेगा, क्योंकि इससे उनकी राजनीति में घाटा होगा। जातियों ने सामाजिक, एकता में कभी रुकावट नहीं डाली। व्यवसाय, कामधंधों के पहचान सूचक शब्द को जाति कहा गया। इच्छा से कर्म अपनाने के पूरे अवसर रहे। विश्वामित्र क्षत्रिय थे, लेकिन कठिन तपस्या से वे ऋषि हो गए। उनके वंशज ब्राह्मण हैं। परम्परा से प्राप्त संस्कार शिक्षा ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में चकित करने वाली प्रगति हुई। अजंता-एलोरा, कोणार्क का सूर्य मंदिर आदि शिल्पकला के जीवित उदाहरण है। यह हमारे शिल्पकारों के श्रेष्ठ और अद्भुत ज्ञान के कौशल हैं। हमलावरों ने हमारे ज्ञान-विज्ञान के ग्रंथों को जलाया, मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट किया, लेकिन ऐसी स्थिति में भी ब्राह्मणों ने इस धरोहर की धर्म-संस्कृति को जीवित रखा। सिख, जाट, मराठा, गुर्जर, राजपूत, भीलों आदि ने वीरता और बलिदान का इतिहास रचा। उसी शौर्य, बलिदान से प्रेरणा लेकर इन सम्प्रदायों के लोग सेना में भर्ती होते हैं। सभी जाति वर्ग के लोग समान संस्कृति की भावभूमि पर खड़े हैं। गंगा-भारत माता और गौमाता के प्रति सभी में अटूट श्रद्धा है। त्योहार, कुंभ सिंहस्थ मेलों और संत समागम में जो जन सैलाब उमड़ता है, वह सामाजिक एकता को सुदृढ़ करता है।


जातियों की पहचान और जातीय अस्मिता से भी इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इन सबके बीच अटूट सांस्कृतिक संबंध रहे। रिश्तों का ताना-बाना ऐसा रहा है, जिसे देखकर विदेशी भी चकित होते हैं, गाँव की बेटी पूरे गाँव की बेटी होती है, उसकी प्रतिष्ठा पूरे गाँव की प्रतिष्ठा होती है। माता-बहिन के स्वरूप में हर महिला को मानने के संस्कार हमारे आचार-व्यवहार में रहे हैं। पाश्चात्य सभ्यता के कारण कुछ बुराइयां आई, उसमें शर्मसार करने वाली घटनाएं भी हुई है। विवाह, भाई-बहिन, माता-पिता, दादा-दादी, यहां तक कि पूर्वजों को भी मानने-पूजने की परम्परा है। वृद्धाश्रम (ओल्ड क्लब) आयातित सभ्यता की देन है। माता-पिता की सेवा के लिए कानून बनाए जा रहे हैं। महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के लिए कठोर कानून की पैरवी होती है, लेकिन हजारों वर्षों तक संस्कारित समाज रहा, जहां महिला का सम्मान सुरक्षित और सम्मानीय रहा, माता-पिता संयुक्त परिवार के मुखिया और उनके द्वारा ही संयुक्त परिवार संचालित होते रहे। ओरंगजेब ने अपने भाई दारा को कत्ल कर अपने पिता शाहजहां को जेल में डाल दिया, तब शाहजहां ने दु:खी होकर कहा था कि हिन्दू तो श्राद्ध में अपने पूर्वजों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं और मुगल बादशाह के बेटे ने अपने बाप को ही जेल में डाल दिया। श्रीराम तो अपने पिता के कहने से राज त्याग कर वन में चले गए। चाहे दुनिया के इतिहास के पन्नों को दूरबीन लगाकर पलटे जाएं, लेकिन कहीं श्रीराम जैसा मर्यादा पुरुषोत्तम, सीता जैसी पत्नी और लक्ष्मण-भरत जैसे भाइयों के अटूट रिश्तों का चरित्र कहीं नहीं मिलेगा। उसी महान संस्कृति की धरोहर को सुरक्षित रखकर उसको आत्मसात करने से ही ये बुराइयां दूर हो सकती हैं। हमारे मनीषियों ने समय के अनुसार साहसिक बदलाव किया है। वर्षों तक राजधर्म के अनुसार राज्य व्यवस्थाएं संचालित हुई। राम राज्य और स्वर्ण युग की आदर्श व्यवस्था आज भी हमारे लिए मानक हैं। विधान में बदलाव समयानुकूल होते रहे। विडंबना यह रही कि पाश्चात्य लोकतांत्रिक व्यवस्था को हमने अपनाया। संविधान की तत्कालीन नेतृत्व के प्रबुद्ध जनों ने बनाया। उसके प्रमुख शिल्पी डॉ. अम्बेडकर थे, उन्होंने ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाने के लिए संघर्ष किया। वे ऐसे सपने को लेकर चले, जिसमें समरस समाज हो। सबको बराबरी के समान अवसर मिले, लेकिन उनके नाम पर अम्बेडकरवाद परोसने की कोशिश हुई, जो समग्र समाज के लिए थे, जिनके संविधान से राज्य व्यवस्था संचालित होती है। क्या वे केवल दलितों के लिए थे।

हरिजन शब्द जिस तरह गांधीजी ने एक वर्ण को सम्मान देने के लिए प्रायश्चित किया, उसी तरह दलित शब्द प्रयोग वर्तमान दलित राजनीति की पहचान बन गई है। जो राजनीतिक शिगूफेबाजी करते हैं, उन्हें सामाजिक स्थिति (सोशल इंजीनियर) का भी गहरा अध्ययन नहीं है। जिन्हें दलित कहते हैं, उनसे कई उपजातियां है। इनमें भी एक दूसरे को ऊंच-नीच माना जाता है। यादवों में भी मुलायम सिंह अलग है और लालू यादव अलग हैं। गुर्जर-जाट अलग हैं। हरिजनों में भी कई उपजातियां हैं। इसी प्रकार आदिवासी जिन्हें वनवासी या जनजाति कहना उचित होगा, उनमें भी भील-भीलाला और अन्य फिरके हैं, लेकिन इन सबमें धर्म-संस्कृति के प्रति अटूट भाव है। भील भी सुबह उठकर राम-राम कहता है। मंदिरों में जाकर सभी नमन करते हैं। गंगा-गौमाता को सभी पूज्यनीय मानते हैं। होली-दिवाली आदि के त्योहार सब मिलकर मानते हैं। समभाव में इन सांस्कृतिक पर्वों पर शामिल होते हैं। विडंबना यह रही कि राजनीतिक स्वार्थ के लिए जो परस्पर संबंध थे, उनमें भेदभाव और द्वेष का जहर घोला गया। जातिवाद बहुमत प्राप्त करने का फार्मूला बन गया, जिसका प्रयोग गत 70 वर्षों से राजनीति में हो रहा है। पहली बार 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जातिवादी, परिवारवादी और वंशवादी राजनीति के विकल्प के नाते विकास के मुद्दे को प्रस्तुत किया। जनता को भेदभाव की राजनीति की बजाय विकास में अपना उन्नत भविष्य दिखाई दिया। विश्वसनीय नेतृत्व के साथ जनता खड़ी हो गई। हालांकि अब भी जातिवादी गुफाओं के जीव-जंतु की आवाज सुनाई देती है। कभी पाटीदारों के मामले में, कभी महारो और ब्राह्मणों या मराठों के बीच भेदभाव की रेखाएं खींचने की कोशिश होती है। इन सबके बाद भी संस्कृति मंच पर सब एक साथ खड़े दिखाई देते हैं। जब राम जन्म भूमि का अभियान चला था, श्रीराम के नाम पर अयोध्या में जातीय भेदभाव को मिटाकर एकजुट हिन्दू दिखाई दिया। धर्म-संस्कृति ही ऐसा रसायन है, जिसने सबको जोड़कर रखा है, हमारी संस्कृति ही भारत की राष्ट्रीयता का प्राण तत्व है, जो इस संस्कृति को नकारते हैं वे और कुछ वादी हो सकते हैं, लेकिन उनकी भावना इस देश की माटी से जुड़ी नहीं हो सकती। साम्यवाद (कम्युनिस्ट) कब्र में है, लेकिन इस कब्र के भूत-प्रेतों की आवाज सुनाई देती है, जातिवाद, परिवार और वंशवादी राजनीति को कभी भारत की जनता ने नकारा है, राष्ट्रवादी अवधारणा से राजनीति संचालित हो रही है, लेकिन जातिवाद, परिवारवाद का लोलाट सुनाई दे रहा है। परिवार की गुफा से निकलकर कोई कीकड़ (कमजोर) पहलवान नरेन्द्र मोदी के शक्तिशाली नेतृत्व को चुनावी देने की बात कर रहा है। जिस तरह जंगल के शेर के विरोध में सब जानवर एकत्र होकर हमला करने की सोचते हैं, उसी जातिवादी, परिवारवादी के साथ अलगाववादी देश विरोधी भी एकत्रित होकर नरेन्द्र मोदी और भाजपा का मुकाबला करने की राजनीति की तैयारी करने में लगे हैं।

(लेखक - वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)

Updated : 6 Feb 2018 12:00 AM GMT
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