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राजनीतिक ढलान पर क्यों है माकपा ?

राजनीतिक ढलान पर क्यों है माकपा ?
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- रमेश सर्राफ

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के महासचिव सीताराम येचुरी राज्यसभा से रिटायर हो रहे थे उसी दौरान उन्होंने अपने कॉलेज सहपाठी व देश के वित्त मंत्री अरूण जेटली से पूछा कि वे उनके विदाई भाषण में उनके बारे में क्या बोलेंगे। इस पर जेटली ने कहा कि मैं बोलूंगा कि 12 साल पहले सीताराम येचुरी एक कामरेड के रूप में इस सदन में आये थे और आज 12 साल बाद एक कांग्रेस नेता के रूप में राज्यसभा से विदाई ले रहे हैं। जेटली की बात पर सीताराम येचुरी बुरी तरह से झेंप गये। हालांकि जेटली ने राज्यसभा में अपने भाषण के दौरान ऐसा कुछ नहीं कहा लेकिन इस प्रहसन से माकपा की वास्तविक स्थिति समझी जा सकती है।

देश में कभी कांग्रेस के बाद सबसे अधिक प्रभावशाली पार्टी रही माकपा आज अपना अस्तित्व बचाने को संघर्षशील नजर आ रही है। पार्टी के प्रभाव क्षेत्र में तेजी से कमी आती जा रही है। पार्टी की राष्ट्रीय स्तर की मान्यता पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो माकपा का जनाधार इतना सिकुड़ गया कि उसे मात्र 9 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। जबकि 1964 में अपनी स्थापना के बाद 1967 में हुये लोकसभा चुनाव में उसे 19 सीटें मिली थी। 1971 की इन्दिरा लहर में भी माकपा 25 सीटें जीतने में सफल रही थी। माकपा ने 1977 की जनता पार्टी की लहर में 22 सीट,1980 में 37 सीट,1984 में 22 सीट, 1989 में 33 सीट, 1991 में 35 सीट,1996 में 32 सीट, 1998 में 32 सीट, 1999 में 33 सीट जीती थी। 2004 के लोकसभा चुनाव में माकपा ने अपने सभी पिछले रिकार्ड तोड़ते हुये 43 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

माकपा ने 2004 में कांग्रेस नीत संयुक्त प्रजातांत्रिक मोर्चा सरकार को बाहर से समर्थन देकर सरकार गठन में अहम भूमिका निभायी थी। लेकिन 2008 में अमेरिका से हुये परमाणु समझौते के विरोध में सरकार के खिलाफ वोटिंग करने का खामियाजा माकपा को 2009 के लोकसभा चुनाव में उठाना पड़ा व पार्टी 16 सीट ही जीत सकी। रही सही कसर 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने पूरी कर दी। माकपा को अब तक की सबसे कम मात्र 9 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। इसके अलावा 1977 से लगातार बंगाल में सरकार चला रही माकपा को 2011 में सत्ता से हाथ धोना पड़ा। इतना ही नहीं 2016 के विधान सभा चुनाव में कांगे्रस से गठबंधन कर चुनाव लड़ने के उपरान्त माकपा की स्थिति और खराब हो गयी। माकपा को 294 के सदन में मात्र 26 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। माकपा को 1989 के लोकसभा चुनाव में देश भर में 6.55 प्रतिशत वोट मिले थे वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में वोट घटकर 3.20 प्रतिशत ही रह गये। माकपा गठबंधन की आज केरल व त्रिपुरा में सरकारें चल रही हैं मगर त्रिपुरा में शीघ्र ही चुनाव होने वाले हैं। माकपा को त्रिपुरा में अपने 20 साल पुराने किले को बचाने में भाजपा से कड़ी चुनौती मिल रही है।

माकपा के तेजी से घटते जनाधार के लिये उसके नेता व नीतियां ही जिम्मेदार रही हैं। माकपा आज कांग्रेस की पिछलग्गू बनकर रह गयी है। भाजपा विरोध के नाम पर आंख मीचकर कांग्रेस को समर्थन देना व पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन करके चुनाव लड़ने से माकपा का रहा सहा जनाधार भी साफ हो गया। कभी समाज के दबे कुचले अल्पसंख्यक, दलित, किसान,मजदूर माकपा के मजबूत वोट बैंक हुआ करते थे। मगर कई प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व में आने से माकपा का वोट बैंक खिसककर क्षेत्रीय दलों की तरफ चला गया। क्षेत्रीय दलों ने इनके सामाजिक न्याय, महंगाई, भ्रष्टाचार व गरीबी जैसे एजेंडे को हथिया लिया है। आज पार्टी की स्थिति ऐसी हो गयी है कि वह दावे के साथ कह नहीं सकती कि हमारा यह पुख्ता वोट बैंक है।

कभी माकपा का देश के केरल, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, त्रिपुरा, बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे राज्यों में अच्छा जनाधार हुआ करता था। इन राज्यों में माकपा ने कई बार लोकसभा व विधानसभा की सीटें जीती थीं। मगर आज बंगाल,त्रिपुरा व केरल को छोड़कर माकपा का देश के अन्य किसी प्रदेश में कोई जनाधार नहीं बचा है। धीरे-धीरे कम्युनिस्ट विचारधारा सुस्त पड़ती जा रही है। इतना कुछ होने के बाद भी आज पार्टी में आन्तरिक लड़ाई चरम पर है। पार्टी पर वर्चस्व को लेकर बंगाल बनाम केरल धड़ा संघर्षरत है। पार्टी महासचिव प्रकाश करात भाजपा विरोध के नाम पर कांग्रेस से गठबंधन कर अगला लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं। वहीं गठबंधन का हश्र देख चुके पूर्व महासचिव प्रकाश करात एकला चलो की नीति पर अकेले चुनाव लड़ने की पैरवी कर रहे हैं।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी चाहते थे कि भाजपा को रोकने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस का साथ दे लेकिन उनके इन प्रयासों को उस समय बड़ा धक्का लगा जब कोलकाता में सम्पन्न हुई केंद्रीय समिति की बैठक में माकपा नेता प्रकाश करात ने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से किसी तरह के गठबंधन न करने का एक प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव पर सदस्यों के बीच वोटिंग कराई गयी और प्रकाश करात द्वारा कांग्रेस से गठबंधन न करने के प्रस्ताव के पक्ष में 55 वोट पड़े वहीं कांग्रेस से गठबंधन किये जाने के पक्ष में 31 वोट पड़े और बैठक में आगामी लोकसभा चुनावों में कांग्रेस से गठबंधन न करने पर मुहर लग गयी।
1996 में माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत पार्टी ने ज्योति बसु को देश का प्रधानमंत्री बनने से रोका था। जिसका खामियाजा माकपा आज तक उठा रही है। यदि उस वक्त माकपा का नेता प्रधानमंत्री बनता तो पार्टी का देश में बहुत अधिक विस्तार होता मगर पुरानी सोच के नेताओं ने उस वक्त दैवयोग से हाथ आये एक सुनहरे अवसर को अपनी जिद के कारण गंवा दिया था। उस वक्त ज्योति बसु को कहना पड़ा था कि यह एक ऐतिहासिक भूल हुई है। पार्टी के विस्तार का ऐसा मौका फिर नहीं आने वाला है। यह शायद इतिहास की एक और विडम्बना ही थी कि सन 2004 में फिर एक बार कांग्रेस के अल्पमत के कारण सीपीएम को यूपीए-1 के साथ काम करने का मौका मिला था। लेकिन यह मौका भी सीपीएम के लिए किसी लंबी छलांग का मौका बनता, उसके पहले ही अमेरिका के साथ परमाणविक संधि के बहाने गंवा दिया।
माकपा को एक समय में पंजाब दूसरा बंगाल बनता दिखने लगा था, लेकिन धीरे-धीरे वहां भी हालात बिगड़ते गए। पंजाब में पहले बसपा ने फिर आम आदमी पार्टी ने माकपा को प्रभावशून्य कर दिया। मौजूदा समय में नजर दौड़ाएं तो पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर को मिला कर वामपंथ के दो ही विधायक है एक जम्मू-कश्मीर की कुलगांव सीट से कामरेड मोहम्मद यूसुफ तरीगामी चौथी बार चुनाव जीत कर विधानसभा में पहुंचे हैं। दूसरा हिमाचल प्रदेश की ठियोग सीट से माकपा के राकेश सिंघा विधायक बने हैं। अगर वोटों के हिसाब से देखें तो भारत में वामपंथी विचारधारा पिछड़ती नजर आ रही है।
इस समय सीपीएम के लिए सबसे जरूरी है कि बुनियादी प्रश्नों पर विचार करे। पार्टी का पतन क्यों हुआ? कहां-कहां भूल हुई? क्या वजह है कि पार्टी न तो सत्ता प्राप्त कर सकी और न ही विपक्ष में कोई बड़ी भूमिका निभा सकी? प. बंगाल जहां सीपीएम ने लगातार चौंतीस वर्ष तक शासन किया उसके उपरान्त भी पार्टी लगातार दो-दो बार कैसे पराजित हो गई?

Updated : 5 Feb 2018 12:00 AM GMT
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