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भारत में बही साहित्य सृजन की निर्बाध धारा

सतत परिवर्तनशीलता प्रकृति का गुण है। इसके अन्तस में सर्वपूर्ण श्रेष्ठतम स्थिति की प्यास है सो प्रकृति प्रतिपल सक्रिय है। नित्य नूतन गढ़ने, जीर्णशीर्ण पुराने को विदा करने और नये को बारंबार सृजित करने का प्रकृति प्रयास प्रत्यक्ष है। वह लाखों करोड़ों बरस से सृजनरत है। अपने सृजन से सदा असंतुष्ट जान पड़ती है प्रकृति। एक असमाप्त सतत संशोधनीय कविता जैसी। मनुष्य इसी प्रकृति का सृजन है। प्रकृति ने मनुष्य को अपनी ही अन्तर्काया से विकसित किया है सो प्रकृति के सारे गुण मनुष्य में भी आ गये हैं। प्रकृति अपने अन्तस में सदा असंतुष्ट है, प्रतिपल नया रचती है। नई वनस्पति, नये फूल, नये शिशु, पशु, पक्षी, कीट, पतिंग, नये मेघ, नई वृष्टि और नई सृष्टि। मनुष्य में भी प्रकृति का सर्जक गुण है। मनुष्य प्राप्त से असंतुष्ट रहता है, अप्राप्त के प्रयास करता है। सृजनरत कवि, साहित्यकार या कलाकार प्रतिपल नवोन्मेष की प्रीति में रमे रहते हैं। वे जनसमूह से प्रभावित होते हैं, यथार्थ से सामग्री लेते हैं, भावार्थ को जोड़ते घटाते हैं। तर्क प्रतितर्क करते हैं। जनसमूह की जीवन शैली को प्रभावित भी करते हैं।

वर्तमान विश्व तनावपूर्ण है लेकिन अपनी रूग्णताओं और बीमारियों से परिचित भी है। सामाजिक, आर्थिक और शासकीय बीमारियों की शिनाख्त चिन्तकों दार्शनिकों और साहित्यकारों ने ही की। बीमारियां ढेर सारी होती हैं लेकिन स्वास्थ्य एक ही होता है। स्वास्थ्य की दशा तक पहुंचाने वाले रास्ते अनेक होते हैं। जनसमूहों को स्वस्थ आत्मीय रिश्तों तक ले जाने की प्यास बहुत पुरानी है। कोई भी समाज स्वयंपूर्ण आदर्श नहीं होते। साहित्यकार समाज में सत्य, शिव और सुंदर प्रवाह के लिए दृष्टि देते हैं। वे बोलते हैं, संवाद करते हैं। संवाद में वाद-विवाद भी होते हैं यथास्थिति के विरूद्ध बोलने या लिखने वाले अपमानित भी होते हैं लेकिन वे अपना काम करते रहते हैं। बीमारी या बुरे विचार संक्रामक होते हैं, वे तेजी से फैलते हैं लेकिन बीमारी की ही तरह स्वास्थ्य भी संक्रामक होता है और सद्विचार भी। जनतंत्र का विचार ऐसे ही सद्विचारों का प्रतिफल है। आज के भारत का शुभतत्व हमारे पूर्वजों और सर्जकों के सचेत कर्मों का ही प्रसाद है। जनतंत्र की नींव दुनिया में सबसे पहले वैदिक कवियों ने ही डाली थी। ऋग्वेद के कवि ऋषि भी थे।

जनतंत्र खूबसूरत जीवनशैली है। असहमति का आदर और समन्वय वैदिक कवियों ने ही प्रारंभ किया था। इंग्लैण्ड के संसदीय जनतंत्र की प्रशंसा होती है। ब्रिटिश संसद को संसदीय जनतंत्र की मातृ संस्था बताने वाले भी विद्वान कम नहीं हैं लेकिन ब्रिटिश जनतंत्र राजतंत्र की प्रतिक्रिया से अस्तित्व में आया और धीरे धीरे उसका विकास हुआ। वे बधाई के पात्र हैं कि कठोर विश्वासी अपने रिलीजन पंथ के बावजूद संसारी और ईश्वरीय तत्वों को अलग करने में प्राय: सफल रहे। भारत को संसदीय जनतंत्र अंगीकृत करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। यहां के राष्ट्र में संगठित चर्च जैसी कोई शक्तिशाली संस्था नहीं थी। यहां सबकी अपनी निजी आस्था और विश्वास के लोकतंत्री वातावरण का प्रभाव था। वैदिक कवियों ने ढेर सारे देवताओं की स्तुतियां कीं। इन कवियों ने भारतीय देवतंत्र में भी गजब का लोकतंत्र फैलाया। तो भी बहुदेववाद नहीं आया। सत्य एक, देवरूप और देव नाम अनेक। ऋग्वेद के कवि ऋषि की घोषणा भी यही थी - सत्य एक है, विद्वान उसे इन्द्र या अग्नि अनेक नामों से पुकारते हैं। सत्य, शिव और सुन्दर भारत-मन के तीन स्वप्न हैं। दर्शन विज्ञान सत्य का उद्घाटन करते हैं। समाजचेता लोकमंगल के लिए काम करते हैं। साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी सत्य शिव को सुंदरतम तक ले जाते हैं। भारत का लोकतंत्र जन से देवों तक विस्तृत था और है। इसका श्रेय प्राचीन भारतीय कवियों ऋषियों को ही दिया जाना चाहिए।

देवता होते हैं या नहीं होते? यह बहस भी भारतीय चिंतन में कवियों ऋषियों ने ही चलाई। देवताओं में भी एक मत नहीं था। कठोपनिषद् के ऋषि कवि ने लिखा है कि मृत्यु के बाद जीवन की पूर्ण समाप्ति या सतत प्रवाह पर देवताओं में भी बहस थी। कठोपनिषद् के मुख्य पात्र नचिकेता को यम ने बताया था कि यह प्रश्न अनिर्णीत है, देवों में भी इस प्रश्न पर बहस चलती है। ऋग्वेद के बाद के कवियों साहित्यकारों ने रामायण और महाभारत जैसे आख्यान देकर राष्ट्रजीवन की तमाम मान्यताओं को उघाड़ा और सामाजिक परिवर्तन की गति को आगे बढ़ाया था। भारतीय राष्ट्रभाव की स्थापना का श्रेय भी ऋग्वेद अथर्ववेद के कवियों को दिया जाना चाहिए। क्या यह आश्चर्यजनक तथ्य नहीं है कि भारतीय संस्कृति, दर्शन और विज्ञान का ज्ञान सुगठित कविता के रूप में ही उपलब्ध है। भारतीय जनतंत्र के पुष्ट होने के कारण ही यहां बाईबिल या कुरान जैसा कोई पंथ ग्रंथ या धर्मग्रंथ नहीं है। यहां का समूचा दर्शन और ज्ञान साहित्य ही है। इसलिए जनतंत्र की स्थापना विकास और संवर्द्धन का श्रेय कवियों साहित्यकारों को ही दिया जाना चाहिए।

विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत के संविधान 1949 में मौलिक अधिकार बनी लेकिन प्राचीन भारत में भी यह एक उच्चतर जीवन मूल्य थी। प्राचीन यूनानी दर्शन के इतिहास में विचार अभिव्यक्ति को लेकर सुकरात को मृत्युदण्ड मिला। भारत में नास्तिक दर्शन भी फलाफूला। चार्वाक समूहों ने भौतिकवादी लोकायत दर्शन चलाया। साहित्यकारों ने भारत की लोकतंत्री परम्परा का लगातार संवर्द्धन किया। भारत के कवि, साहित्यकार नवसृजन में लगे रहे। यूरोप के मध्यकालीन अंधकार को इटली के दातें जैसे कवियों ने प्रकाश से भरा। यूरोपीय पुनर्जागरण में कवियों सर्जकों की भूमिका थी। भारत में साहित्य सृजन की निर्बाध धारा चली। इसलिए जम्बूद्वीप भरतखण्ड के सामाजिक इतिहास और जनतंत्र को यूरोप के मध्यकाल से अलग करके देखा जाना चाहिए। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रवादी चेतना का ज्वार फैलाने में साहित्यकारों की प्रमुख भूमिका थी। स्वाधीनता संग्राम के बाद स्वतंत्र भारत में भी साहित्यकारों ने अपनी श्रेयस्कर भूमिका का सम्यक निर्वाह किया। यहां के साहित्यकारों ने सामाजिक भेद विभेद पर जमकर हमला बोला। उनका हस्तक्षेप सामाजिक कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शक बना। छुआछूत जैसी कुरीतियों व आर्थिक विषमता पर भी साहित्यकारों ने बहुत कुछ लिखा। उनके प्रभाव को कम करके नहीं आंका जा सकता।

भारतेन्दु कवि और प्रख्यात साहित्यकार थे। उन्होंने फरवरी 1874 की कविवचन सुधा में आमजनों को याद दिलाया अंग्रेज व्यापारी माल भेजते हैं। बढ़ई आदि छोटे व्यापारियों को काम मिलना कठिन हो गया। घरों की खिड़कियां और दरवाजे आदि विलायत से बनकर आते हैं। भारतेन्दु अंग्रेजी राज के विरूद्ध लोकजागरण में गतिशील थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बंगाल को प्रभावित किया और समूचे भारत के साथ विश्व को भी। तमिल कवि सुब्रह्मण्य भारती (जन्म 1882) ने वंदेमातरम् का उद्घोष किया। उनकी काव्य रचनाएं अंग्रेजी राज को सीधी चुनौती थी। 15वीं और 16वीं शती के हिन्दी साहित्यकारों की रचनाएं सामाजिक पुनर्गठन की प्रेरक हैं। तुलसीदास, कबीर और सूरदास के साथ ही मीरा के पद सब ओर गाए जाते थे। आधुनिक काल के कवियों में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के सृजन में लोक और समाज के साथ दर्शन भी है। निराला अद्भुत थे। समाज का रसायन बदलने वाले साहित्यकारों की नामावली बड़ी है। सभी साहित्यकारों ने देश के सांस्कृतिक प्रवाह को गतिशील बनाया। साहित्यकारों के सृजन ने भारतीय राष्ट्रभाव को समाज के अन्तर्मन की विषय वस्तु बनाया। कथित असहिष्णुता के बहाने पुरस्कार वापसी जैसी छोटी मोटी घटनाओं ने लोगों का दिल दुखाया है। विदेशी आधुनिकता भी हाथ पैर मार रही है। उधार आई विदेशी आधुनिकता के बावजूद सृजनधर्म जारी है।

Updated : 6 Aug 2017 12:00 AM GMT
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