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आंदोलन की व्यापकता को नहीं समझ पाई सरकार : सुधांशु द्विवेदी

आंदोलन की व्यापकता को नहीं समझ पाई सरकार : सुधांशु द्विवेदी
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मध्यप्रदेश में आंदोलनरत किसानों के प्र्र्रति सरकार ने अगर समय रहते संवेदनशीलता और तत्परता दिखाई होती तो शायद हालात इतने बेकाबू नहीं होते। साथ ही यह भी समझा जाना जरूरी है कि सत्ताधारियों के मन में अगर किसी भी मुद्दे पर पूर्वाग्र्रह व दुराग्रह समाहित हो जाए तो नतीजे इसी तरह भयावह व अमंगलकारी होते हैं। प्र्रदेश के मंदसौर में पुलिस की गोलीबारी में आठ किसानों की मौत हो चुकी है तथा मुख्यमंत्री को मृतकों के परिजनों के लिये एक-एक करोड़ की मुआवजा राशि व परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की घोषणा करनी पड़ी है।

किसान संगठनों द्वारा शासन- प्रशासन को उग्र आंदोलन की सूचना मई माह में ही दे दी गई थी। समय रहते न तो प्र्रशासन ने हालात से निपटने की कोई ठोस रणनीति बनाई और न ही सरकार कोई ठोस निर्णय ले सकी। इसका नतीजा यह हुआ कि किसान आंदोलन शुरूआती दौर से ही जोर पकड़ता गया तथा भूमि- पुत्रों ने मध्यप्रदेश के अपने इस आंदोलन को चंद दिनों में ही राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बना दिया। अब तो इस आंदोलन को लेकर विभिन्न विपक्षी राजनीतिक दलों का भी प्रत्यक्ष समर्थन मिल चुका है, वहीं दावे यह भी किये जा रहे हैं कि आंदोलन में चंद असामाजिक तत्वों की पैठ से आंदोलन का स्वरूप भी विकृत हो चुका है। आंदोलन से जुड़े जितने भी पक्ष हैं, उनके द्वारा अपने-अपने ढंग से दावे किये जा रहे हैं। फिर भी स्थिति से निपटने और मुद्दों को सुलझाने की असली जिम्मेदारी तो प्र्रदेश सरकार की ही है। प्र्रदेश सरकार इस मुद्दे पर अगर किसी तरह का सुविधावादी-दुविधावादी रुख अपनाने या किंतु-परंतु में अपना समय जाया करेगी तो किसानों से जुड़े असल मुद्दों का समाधान अभी भी नहीं हो पाएगा। ऐसे में आगे फिर किसी ऐसे आंदोलन से किसी अनिष्ट की आशंका बनी रहेगी। इसलिए बेहतर यही होगा कि प्रदेश सरकार भविष्य में फिर किसी अनहोनी का इंतजार करने के बजाय किसानों के हित में ऐसे ठोस फैसले ले, जिनके नतीजे धरातल पर नजर आयें तथा किसानों के हालात बेहतर हों। पांच बार कृषि कर्मण पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रदेश में आंदोलन के दौरान फायरिंग में आठ किसानों की मौत जितनी दुखद है, उतनी ही आश्चर्यजनक भी। उक्त पुरस्कार से जुड़े दावों के अनुरूप अगर सही मायने में प्रदेश के किसानों को समृद्धि व खुशहाली से नवाजा गया होता तो फिर किसानों को इतने उग्र आंदोलन के लिए मजबूर क्यों होना पड़ता?

प्रदेश सरकार किसान आंदोलन के राजनीतिक रंग लेने या इसके उद्देश्य से भटकने का बहाना बनाकर अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हट सकती। सत्ता में आसीन लोगों को तो परिस्थितिजन्य कारणों के चलते आतंकियों-नक्सलियों तक से बातचीत करके उनकी समस्याओं के समाधान व उनकी मांगें मानने के लिए कभी-कभी मजबूर होना पड़ता है। फिर यहां आंदोलन करने वाले लोग तो प्रदेश के अन्नदाता हैं। मुख्यमंत्री या प्रदेश सरकार कृषि कैबिनेट की बैठक बुलाएं या अन्य कवायदों को अंजाम दें लेकिन तमाम गतिविधि के ठोस नतीजे ही सामने आने चाहिए। वरना न तो समस्याओं का समाधान हो पाएगा और न ही मुद्दे सुलझ पाएंगे। प्रदेश सरकार द्वारा स्थिति को संभालने में नाकाम रहे मंदसौर कलेक्टर व एसपी को हटाया जाना एक प्रशासनिक मामला है। असल पहल तो ऐसी होनी चाहिए जिसके तहत व्यवस्था में व्याप्त गंभीर विसंगतियां दूर हों तथा बातें कम और ठोस काम ज्यादा हों। सरकार समय रहते इस किसान आंदोलन की व्यापकता को नहीं समझ पाई तथा किसानों के हित में ठोस निर्णय लेने के बजाय सिर्फ पैंतरेबाजी करती रही। ऐसे में अब जरूरी है कि किसानों के हित में जरूरी फैसले लिये जाएं तथा आंदोलनकारियों पर तोहमत लगाने के बजाय सदाशयता व संवेदनशीलता पूर्वक वाद-संवाद का रास्ता अपनाया जाए। विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा अगर किसानों के मुद्दे पर राजनीति करने का सवाल है तो यह तो राजनीतिक दलों की कार्य संस्कृति ही है। उनकी सजगता, सक्रियता व संवेदनशीलता ही उनकी राजनीतिक सफलता, प्रासंगिकता व उपयोगिता का पैमाना है। इस दृष्टि से विपक्षी राजनीतिक दल अगर किसानों के मुद्दे पर सरकार की घेराबंदी कर रहे हैं तो वह अपने राजनीतिक धर्म का ही निर्वहन कर रहे हैं। सरकार को चाहिए कि वह विपक्षी राजनीतिक दलों की इन कवायद को अपराध मानने के बजाय तंत्र को बेहतर व जवाबदेह बनाने में अपनी ऊर्जा खर्च करे। ऐसा करने से भविष्य में फिर किसी आंदोलन के बवंडर का रूप लेने तथा फायरिंग में किसानों की इस तरह से अकाल मौत की स्थिति निर्मित न हो सकेगी।

लेखक - सुधांशु द्विवेदी

Updated : 8 Jun 2017 12:00 AM GMT
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