चीन की महत्वाकांक्षाओं पर विराम की दरकार
असम में भूपेन हजारिका पुल के उद्घाटन के बाद चीन ने भारत को 'संयमित' रहने की चेतावनी दी है। राम जाने, हमारे वैदेशिक संबंध संभालने वाले इस पर क्या कहेंगे? किन्तु लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय संबंधों का अवलोकन करने वालों के लिए कुछ बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं। पहली, चीन के बयान भारत पर एक विशेष मनोवैज्ञानिक दवाब डालने के लिए होते हैं। बस इतना ही उसका लक्ष्य होता है-मानसिक दबाव। दुर्भाग्यवश भारतीय राजनीतिक तंत्र में दलीय हित, बार-बार सत्ता बदलाव, अज्ञानी नेतागण, फलत: नौकरशाही की व्यावहारिक स्वायत्तता और उत्तरदायित्वहीनता, कूटनीति में गंभीर प्रशिक्षण व कड़ी जबावदेही का अभाव आदि कारणों से कई बार संबंधित जिम्मेदारी लिए हुए अधिकारी भी असल बात नहीं समझते। न उपाय खोज पाते हैं। वरना, उन्होंने चीन के ऐसे बयानों के विरुद्ध वैसे ही चुटीले, आत्मविश्वासपूर्ण और रोचक बयान तैयार रखे होते। केवल उसी से बहुत काम हो जाते!
हांस मार्गेन्थाऊ ने अपनी क्लासिक पुस्तक 'पॉलिटिक्स अमंग नेशंस(1948) में लिखा है कि 'दो देशों के बीच संबंध केवल बंदूकों, मिसाइलों, सैनिकों की तुलनात्मक ताकत से तय नहीं होते। बल्कि कभी-कभी एक भंगिमा, नजर मिलाने या न मिलाने, मुस्कराने या सपाट चेहरा रखने, रूमाल गिराकर बढऩे आदि से भी किसी देश की स्थिति देखी और तौली जाती है। वस्तुत: भारत-चीन के बीच संबंधों में तो विगत 50 साल से यही असली क्षेत्र हैं, जहां भारत भोलेपन से व्यवहार करता रहा है। तय मानिए, जिस दिन भारत ने चीन की कथनी-करनी पर विश्वासपूर्ण, खुशमिजाज, पर चुटीली टिप्पणियां करना सीख लिया, उसी दिन से भारत और चीन के बीच अधिक संयत संबंध बनने शुरू हो जाएंगे। निर्भीकता, वाक्पटुता और सद्भाव एक साथ स्पष्टता से दिखें, इसी में भारत की सफल चीन-नीति की एक कुंजी है। दूसरी कुंजी तिब्बत पर भारत का रुख सुधारने में है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत और चीन के बीच सारी गड़बड़ी तिब्बत पर भारत द्वारा अपना कूटनीतिक अधिकार छोड़ देने से शुरू हुई है। 1949 से पहले के इतिहास में भारत और चीन के बीच कोई झगड़ा तो दूर, किसी मनो-मालिन्य का भी प्रमाण नहीं मिलता। स्वयं स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री द्वारा तिब्बत चीन को सौंप दिए जाने के बाद से ही भारत की सीमाएं चीन से मिल गईं, जिसके बाद खटपट अवश्यंभावी थी। दो सहस्राब्दी से भी पहले चाणक्य ने बताया था कि यदि दो बड़े देशों की सीमाएं मिलें, तो वे मित्र नहीं रह सकते। मगर नेहरू मार्क्स-स्तालिन के दीवाने थे, चाणक्य को उन्होंने उपेक्षित किया। नतीजा देश को भुगतना पड़ा। तिब्बत स्वतंत्र देश था।
मार्च 1947 में दिल्ली में 'एशियन रिलेशंस कॉन्फ्रेंस' में तिब्बत और चीन, दोनों ने स्वतंत्र देशों की तरह हिस्सा लिया था। इसीलिए, आज तिब्बत की जो दुर्गति है, वह स्वतंत्र भारत के प्रथम नेतृत्व की ओर से की हुई है। इसी का एक शर्मनाक पहलू है कि तिब्बत की दुर्गति कराने से ही भारत की सीमाएं असुरक्षित हुईं और इतिहास में पहली बार भारत-चीन संबंध खराब हुए। तिब्बत की स्वतंत्रता उसी तरह थी, जैसी नेपाल, भूटान या स्विट्जरलैंड जैसे देशों की है। यानी पास-पड़ोस के देशों की सहमति और छाया में स्वतंत्र। इसकी एक ही मुख्य शर्त होती है कि ऐसा देश अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तटस्थ रहेगा। तिब्बत ऐसा ही था, जिसकी जिम्मेदारी मुख्यत: भारत ने ली हुई थी। सदियों से सांस्कृतिक, भौगोलिक और व्यापारिक रूप से तिब्बत उसी तरह भारत से अधिक जुड़ा था, जैसे नेपाल। जिस तरह स्वतंत्र भारत के प्रथम नेतृत्व ने नेपाल के प्रति लापरवाही रखी, उस से बहुत अधिक बुरा तिब्बत के साथ किया। स्वतंत्रता मिलते ही भारत ने अपनी ओर से तिब्बत में अपने तमाम कूटनीतिक अधिकार, कार्यालय और टैक्स व्यवस्थाएं खत्म कर दीं। कैलाश के पास मिनसार गांव विगत चार सदियों से भारतीय रियासत का अंग था। वह 1950 तक जम्मू-कश्मीर राज्य को टैक्स देता रहा था। वे सारी व्यवस्थाएं स्वतंत्र भारत को उत्तराधिकार में मिली थीं। उन्हें यथावत बनाए रखना ही उचित होता। भारत और चीन के बीच स्वतंत्र या सीमित-स्वतंत्र तिब्बत बना रहना सामान्य संबंध रखने में उपयोगी था। फिर, हालिया विश्व इतिहास से भी साफ था कि तिब्बत की भौगोलिक स्थिति उसे अत्यंत महत्वपूर्ण बनाती है। इसीलिए अंग्रेजों ने वहां सदैव नजर रखी ताकि दूसरे कुदृष्टि न लगाएं। इसके अलावा, तिब्बत की सांस्कृतिक-सामाजिक स्थिति उसे सदैव भारत से जोड़े हुए थी।
इन सबसे अनजान स्वतंत्र भारत ने रूमानी नीतियां शुरू कीं। तिब्बत पर स्वयं तिब्बतियों से कोई सलाह नहीं की गई! नेहरू चीन में कम्युनिस्ट क्रांति से सम्मोहित थे और अपनी सद्भावना पर स्वयं फिदा रहते थे। इसीलिए उनके लिए यह प्रश्न अनर्गल था कि स्वयं तिब्बतियों की इच्छा क्या है? यह सब बिना सोचे उन्होंने तिब्बत को चीन के हवाले कर दिया और अप्रैल, 1954 में कथित पंचशील समझौता किया। उस समझौते का नाम भारतीय विदेश-नीति के विषय में प्राय: लिया जाता है। ध्यान दें कि वह समझौता तिब्बत और भारत के बीच व्यापार व संबंध के लिए हुआ था। उस दस्तावेज के नाम में ही स्पष्ट उल्लेख है- 'चीन के तिब्बत क्षेत्र और भारत के बीच व्यापार और संबंध के बारे में।' इससे यह भी दिखता है कि भारत के साथ तिब्बत का संबंध एक प्रामाणिक एवं चीन द्वारा स्वीकृत तथ्य है। अत: भारत को पूरा अधिकार है कि वह तिब्बत पर, तिब्बत के साथ अपनी साझी चिन्ताओं के बारे में, व्यापारिक और सांस्कृतिक जरूरतों के बारे में चर्चा करे। यही चीज आज भी चीन की चिन्ता, हमारी सीमाओं की असुरक्षा और सात दशकों की गैर-जिम्मेदारी को समझने का भी सूत्र है।
हमारे नेता, अधिकारी और बुद्धिजीवी 'तिब्बत रीजन ऑफ चाइना' की शब्दावली में सदैव 'चाइना' देखते हैं और तिब्बत भूल जाते हैं! जबकि उलटा भी संभव है कि हम सदैव तिब्बत का नाम लें और चीन को भूल जाएं। वैसे भी, तिब्बत हमारी सीमा पर है और चीन उसके परे। वस्तुत: समझौते के समय इसकी चर्चा इसी नाम से होती थी! समझौते के तुरंत बाद कोलकाता से प्रकाशित साप्ताहिक 'प्राची के 9 मई, 1954 के अंक में संपादकीय का शीर्षक था: 'भारत-तिब्बत समझौता!' नेहरू ने उस समझौते को अपना तब तक का 'सबसे अच्छा काम' कहा था, जबकि उसके 8 ही वर्ष बाद कम्युनिस्ट चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया।
वस्तुत: जिस समय वह समझौता हो रहा था, उस समय भी चीन चोरी-छिपे जम्मू-कश्मीर के पूर्वी भाग में 179 कि.मी. अंदर घुसकर कब्जा कर रहा था। पर नेहरू चीन-मैत्री में ऐसे विभोर थे कि उन्होंने तिब्बत को समर्पित कर देने के बाद चीन से लग गई भारतीय सीमाओं की रक्षा की भी चिंता न की। उलटे, नेहरू चीन को संयुक्त राष्ट्र में सदस्य बनाने, और सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट दिलाने का अभियान चला रहे थे। यह जानकर अनेक भारतीय चकित हो जाएंगे कि 1947 से 1956 तक अमेरिका और रूस, दोनों ही भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट देने को तैयार थे, जिसे स्वयं नेहरू ने ठुकराया। एक नहीं, कई बार! क्योंकि वे चीन को वह सीट दिलाना चाह रहे थे। यानी न केवल नेहरू ने चीन को तिब्बत समर्पित कर भारत की सीमाएं असुरक्षित कर लीं, बल्कि आक्रमणकारी चीन को विश्व-मंच पर विशिष्ट ताकत दिलाने का अभियान चलाया। इस के लिए भारत को दी जा रही वह ताकत जिद करके छोड़ दी। यह सब नेहरू जी ने लिख-लिखकर बताया है।
लेखक : शंकर शरण