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भारत माता को कोसने वाले जरा इतिहास तो पढ़ें

भारत माता को कोसने वाले जरा इतिहास तो पढ़ें
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* दिनेश राव

अभी हाल ही में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर निवेदिता मेनन ने राजस्थान के जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय में आयोजित संगोष्ठी में भारत माता, कश्मीर व सेना पर विवादित बयान देकर देशवासियों के सामने एक सवाल खड़ा कर दिया है। वे न तो भारत माता को मानती है और न ही सेना के जवानों की उस ताकत व हिम्मत को मानने को तैयार है जिसका जवाब समय समय पर सेना दुश्मनों को देती रहती है। मेनन यही तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने कश्मीर को भी भारत का अभिन्न अंग मानने से इंकार कर दिया। मेनन जैसे कई ऐसे प्रोफेसर हैं जो इस तरह के बयान समय समय पर देकर या तो वे चर्चा में बनें रहने के लिए देते हैं या फिर उन्हें वास्तव में इतिहास का ज्ञान होते हुए भी अनजान बने रहते हैं। सवाल किसी के मानने या ना मानने का भी नहीं है। इस ब्रम्हाण्ड में बहुत सी वस्तुएँ ऐसी हैं जो दिखाई नहीं देती हैं लेकिन फिर भी हम मानते हैं। अल्लाह हो या गॉड या फिर ईश्वर यह भी हमें नहीं दिखाई देते हैं, लेकिन इनके अस्तित्व को भी कोई नहीं नकारता। हवा चलती है, लेकिन दिखाई नहीं देती। सुगंध भी दिखाई नहीं देती लेकिन इन सबका अपना अस्तित्व है और इसलिए इन्हें लोग मानते हैं। ऐसा ही कुछ भारत माता के साथ है। भारत माता दिखाई नहीं देती हैं जैसा कि मेनन जी कह रही हैं, लेकिन इसका अहसास सबको होता है और इसीलिए लोग इसे मानते हैं।

एक भारतवासी होने के नाते इस तरह के बयानों को सुनकर या पढ़कर कभी कभी हमें शर्म भी आती है कि आखिर अपने ही देश से इतनी नफरत क्यों? आज के गूगल युग में कहीं भी किसी अन्य देशों से इस तरह की अपने ही देश के प्रति नफरत भरे शब्द सुनने को नहीं मिलते। दुनिया में जितने भी देश हैं, वहां के रहने वाले अपने देश की संस्कृति पर गर्व करते हुए ही दिखाई देते हैं। दुर्भाग्यवश दुनिया में ऐसा एकमात्र देश अपना भारत ही बना हुआ है, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर या ढिंढोरा पीटकर यह सभी अनहोनी बातें होती है। स्वार्थ, राजनीति और वोट बैंक के लालच ने इस देश के राजनेताओं, विचारकों को इतना निचले स्तर पर ला खड़ा किया है कि देशभक्ति, देशप्रेम का सौदा करने में उन्हें जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती है।

खैर मेनन ने जो कहा उसे अभिव्यक्ति की आजादी भले ही कहा जाए लेकिन प्रोफेसर जैसे पद पर विराजमान मेनन को देश का गौरवशाली इतिहास जरूर पढ़ना चाहिए जिस भारत माता को वे माता नहीं मान रही है, उसका अतीत न तो भाजपा ने गढ़ा और न ही राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने। जब संघ की स्थापना नहीं हुई थी, उससे पहले से ही भारत माता के जय जय के नारे लगाने की प्रथा रही हैं। भारत माता की जय बोलते बोलते न जाने कितने क्रांतिकारियों ने इस देश के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया, यहां तक की अपने प्राणों की बलि भी चढ़ा दी। आइए अब जानते हैं भारत माता के बारे में जिसके अस्तित्व को कुछ तथाकथित लोग नकार रहे हैं। सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में क्राांतिकारियों ने औरंगाबाद के नजदीक दौलताबाद के किले में ‘भारत माता’ की मूर्ति की प्रतिष्ठापना कर स्वाधीनता की शपथ ली और इस संग्राम की शुरूआत की थी। अंग्रेजों ने औरंगाबाद में क्रांति चौक स्थित भारत माता की जय बोलने वालों को कालाचबूतरा पर फांसी पर लटकाया। उस समय इन क्रांतिकारियों ने इस तरह की कल्पना नहीं की होगी कि जिस भारत माता को वे मां मानकर अपनी जान दे रहे हैं, उसी भारत में भारत माता की इस तरह से दुर्दशा होगी।

स्वाधीनता के पश्चात पिछले 70 सालों में छद्म सेक्युलॅरिज्म ने देशभक्ति से जुड़ी हुई अनेक संकल्पनाओं को विपरीत संदर्भ दिया और देशभक्ति के प्रकटीकरण का खुलेआम विरोध बेशर्मी से करने की मानसिकता को बढ़ावा दिया। देशभक्ति और देशप्रेम के बारे में बेशर्मी भरे बयान देने में गर्व का अनुभव करने तक, ऐसे बयान देने वालों को संरक्षण एवं सम्मान देने तक यह स्तर नीचे गिर गया है। स्वाधीनता संग्राम में जो बातें देशभक्ति की, राष्ट्रीयता की पहचान बनी हुई थी उन्हें विरोध करने में अपना राजनीतिक अस्तित्व ढूँढने की बेशर्मी लोग करने लगे हैं। वंदे मातरम् यह स्वाधीनता संग्राम का मंत्र बन चुका था. लेकिन अब वंदे मातरम् कहने का विरोध होता है। यह देशभक्ति भरा जयघोष था। स्वाधीनता संग्राम में वंदे मातरम भारत माता की जय, भगवा ध्वज, शिवाजी जयंती, गणेशोत्सव, हिंदुस्तान में सब बातें राष्ट्रीय थीं, जिन्हें अब स्वाधीनता के पश्चात साम्प्रदायिक कहा जाने लगा है। वास्तव में भारत माता की संकल्पना और भारत माता का चित्र संघ की स्थापना के पहले से ही स्वाधीनता संग्राम की प्रेरणा बने थे। भारत माता की जो तस्वीर आज हम देखते हैं, उसे 19वीं सदी के आखिरी समय में स्वाधीनता सेनानियों ने तैयार किया था। किरण चंद्र बनर्जी ने एक नाटक लिखा था जिसका टाइटल था, भारत माता, ‘इस नाटक का प्रदर्शन सन 1873 में किया गया था। यहीं से ‘भारत माता की जय’ का नारा शुरू हुआ। सन् 1882 में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘आनंदमठ’ नामक उपन्यास में पहली बार ‘वंदेमातरम’ यह गीत देश को दिया। भारत माता का एक तस्वीर में वर्णन करने का श्रेय रवीन्द्रनाथ टैगोर को जाता है।

उन्होंने भारत माता को चार भुजाओं वाली देवी दुर्गा के रूप की तरह दिखाते हुए एक चित्र तैयार किया था। यह देवी एक हाथ में एक पुस्तिका पकड़े और गेरूए रंग के कपड़े पहने थी। इस तस्वीर ने उन दिनों देशवासियों की भावनाओं को देश की स्वाधीनता के लिए मजबूत करने का काम किया था। स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने इस पेंटिंग को और विस्तार दिया। उन्होंने भारत माता को हरियाली से भरी धरती पर खड़ा दिखाया, जिनके पीछे एक नीला आसमान था और उनके पैरों पर कमल के चार फूल थे। चार भुजाएं आध्यात्मिक ताकत का पर्याय बनीं। इसके बाद आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहे सुब्रहमण्यम भारती ने भारत माता की व्याख्या गंगा की धरती के तौर पर की और भारत माता को शक्ति के तौर पर पहचाना और भी कुछ दिलचस्प बातें हैं जैसे सन 1936 में महात्मा गांधी ने वाराणसी स्थित काशी विश्वविद्यालय में भारत माता के मंदिर का उद्घाटन किया था हरिद्वार में विश्व हिंदू परिषद की ओर से एक भारत माता मंदिर का निर्माण वर्ष 1983 में किया गया।

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस मंदिर का उद्घाटन किया था। भारतीय सेना को जोश देने वाला ‘भारत माता की जय’ यह नारा अब भारतीय सेना का ध्येय वाक्य बन गया है। लेकिन जब तुष्टीकरण की बात सामने आई तो सभी काँग्रेस के लोग, सारे तथाकथित वामपंथी ‘भारत माता की जय’ के विरोध में खड़े दिखाई दे रहे हैं। आचार्य गोविंददेव गिरी महाराज ने एक भाषण में कहा था कि ‘भारत माता की जय’ यह मात्र एक जयघोष नहीं है, यह भारतवर्ष को परम वैभव की अवस्था तक ले जाने का एक मंत्र है। हमें यह सोचना होगा कि इस मंत्र की सिद्धि कैसे करें? पं. दीनदयाल जी ने भी कहा है कि हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है। केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा।

Updated : 7 Feb 2017 12:00 AM GMT
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