ध्रुपद की महान परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं बेटियां

ध्रुपद की महान परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं बेटियां
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-तानसेन संगीत समारोह में टूट रही हैं संगीत की रूढ़ियां
-पुरूषों के गंभीर कंठ के विपरीत दे रहीं अपना कोमल आलाप
ग्वालियर/मधुकर चतुर्वेदी। राष्ट्र तभी सशक्त बन सकता है, जब उसका हर नागरिक सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से सशक्त हो। इसमें भी महिलाओं की भूमिका ही सबसे आगे है। परिवार में एक मां के रूप में वह अपनी भूमिका को आदिकाल से निवर्हन करती चली आ रही है लेकिन, वर्षो बाद नारी के चरित्र का समग्र रूप अब हर क्षेत्र मेंं अपनी अग्रणी भूमिका के साथ हम सभी के सामने सुखद अनुभूति कराता दिखाई दे रहा है। अंतरिक्ष से लेकर समुद्र और सेना में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाली देश की बेटियां अब विश्व की सबसे प्राचीन गायन शैली धु्रपद के क्षेत्र में भी अपने नए कीर्तिमान स्थापित कर रहीं हैं।

ध्रुपद गंभीर प्रकृति की गायन विधा है। इसे गाने में कण्ठ और फेफड़े पर बल पड़ता है। इसलिये लोग इसे मर्दाना गीत कहते हैं। नाट्यशास्र के अनुसार वर्ण, अलंकार, गान- क्रिया, यति, वाणी, लय ध्रुपद के अंग रहे हैं। अक्सर माना जाता रहा है कि ध्रुपद गायन केवल पुरूष ही कर सकते हैं क्योंकि इस गायन विधा में जिस गंभीरता की आवश्यकता होती है, वह केवल पुरूषों के स्वरों में ही संभव है लेकिन, तानसेन संगीत समारोह में देश की बेटियों ने ना केवल इस मिथक को तोड़ा है अपितु धु्रपद गायन को और अधिक ऊंचाईयों पर ले जाने का कार्य भी किया है। 22 दिसंबर से शुरू हुए तानसेन संगीत समारोह की सप्तम सभा तक प्रारंभ की प्रत्येक प्रस्तुतियों में बेटियों ने तानपूरा पर ध्रुपद की आलापचारी की है। देखा जाए तो इस वर्ष का समारोह संगीत के क्षेत्र में वर्षों से चले आ रहे कई मिथकों को तोड़ने के लिए भी जाना जाएगा।

वेदों में मिलता हैं नारी के ध्रुपद का उल्लेख

पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों की व्याख्याएं देखें तो वैदिक काल में महिलाएं धु्रपद का गायन करती थीं। ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिन्हें धु्रपद व धमार गायकी में सिद्धता प्राप्त थी, जिनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं।

पखावज संगतकार के रूप में उभर रही हैं बेटियां

एक ओर जहां महिलाएं ध्रुपद गायन कर रहीं हैं तो वहीं पखावज जैसे प्राचीन वाद्य को बजाने में भी बेटियां पीछे नहीं हैं। विश्वभर में पखावज के माध्यम से भारतीय संगीत का प्रचार कर रहे सुप्रसिद्ध पखावज वादक अखिलेश गुंदेचा ने बताया कि 80 के दशक तक जहां ध्रुपद गायन के क्षेत्र में ढूंढने से भी कोई महिला नहीं मिलती थी, आज अच्छी संख्या में महिलाएं धु्रपद गा रही हैं। अखिलेश खुद भी महिलाओं को पखावज की शिक्षा दे रहे हंै और आज उनकी शिष्याएं लब्ध प्रतिष्ठित कलाकारों के साथ संगत कर भारतीय संगीत को बल प्रदान कर रहीं हैं।

इनका कहना है

संगीत की सभी विधाएं कठिन हैं लेकिन,अभ्यास से कुछ भी संभव है। यह बात सही है कि खयाल की अपेक्षा धु्रपद गायन में गंभीरता की आवश्यकता है। अच्छे गुरू से ध्रुपद सीखने में कठिनाई नहीं होती। आज देश के हर कौने से बेटियां ध्रुपद सीखने आ रही हैं।

अमिता सिन्हा महापात्रा, धुप्रद गायिका, मुंबई।

महिलाएं आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहीं हैं और हम सभी को इस दृष्टि से प्रयास भी करने चाहिए। भोपाल गुरूकुल में पुरूषों के साथ महिलाएं भी पखावज की शिक्षा ले रहीं हैं। इसमें पुणे, भोपाल व दिल्ली की बेटियां भी शामिल हैं। आने वाले दिनों में देश को और भी अच्छी पखावज बजाती बेटियां मिलने वाली हैं। यह सुखद संकेत है।

अखिलेश गुंदेचा, सुप्रसिद्ध पखावज वादक, भोपाल

पखावज को ध्रुपद का आभूषण माना जाता है। महिलाओं ने संगीत के क्षेत्र में प्रयोग करते हुए पुरुषों के दबदबे को कम किया है, इससे भारतीय संगीत को विस्तार मिला है। आज की पीढ़ी जहां जर्मन रॉक और पॉप म्यूजिक में अपना भविष्य तलाश रही है ऐसे में देश की बेटियां एक प्रेरणा के रूप में भारतीय संगीत में युवाओं के लिए नए रास्तों का निर्माण कर रहीं हैं। देखा जाए तो यह अवसर बेहद खास है, नेतृत्व व क्षमताओं को दर्शाती बेटियों की यह प्रतिभा भारत को विश्वगुरू बनाने की ओर अग्रसर कर रही है।

पं. डालचंद्र शर्मा, विश्वविख्यात पखावज वादक, नई दिल्ली

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