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भारतीय विमर्श से डरी विज्ञान कांग्रेस ?

भारतीय विमर्श से डरी विज्ञान कांग्रेस ?
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- राकेश सैन


भारतीय विज्ञान कांग्रेस 2018 के स्थगित होने का समाचार विस्मयकारी है। यह 3 से 7 जनवरी के बीच हैदराबाद के उसमानिया विश्वविद्यालय में आयोजित की जानी थी जिसका उद्घाटन परंपरागत रूप से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने करना था। मोदी ने साल 2014 में एक अस्पताल का उद्घाटन करते हुए कहा था कि शल्य चिकित्सा के पहले प्रयोग से हिंदू देवता गणेश का सिर जोड़ा गया था। इससे पता चलता है कि जैविक विज्ञान प्राचीन काल में मौजूद था। तब विज्ञान कांग्रेस के साथ-साथ इतिहासकारों ने भी इसका विरोध किया था। केवल इतना ही नहीं विगत कई सालों से इसी विज्ञान कांग्रेस में ऐसे विमर्श भी होने शुरु हो गए जिसे एक विचारधारा मिथिहास, कपोल कल्पना, गल्प और भी न जाने क्या क्या बता कर उपहास उड़ाती आई है। इस साल की विज्ञान कांग्रेस के स्थगन का स्पष्ट कारण तो नहीं बताया गया है परंतु इसके पीछे विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों का असंतोष सहित अनेक कारण गिनाए जा रहे हैं परंतु सबसे बड़ा कारण भारतीय चिंतन का भय दिखाई दे रहा है।

वैज्ञानिकों के राष्ट्रीय संगठन में अब तक सब ठीकठाक चला आरहा था, यहां वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोगों का बोलबाला था। इसके सम्मेलनों के दौरान विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया की उपलब्धियों पर खूब ताली पीटी जाती और भारतीय ज्ञान-विज्ञान का उपहास उड़ाने और उन्हें पूरी तरह मिथ्या बताने जैसी रस्मों के साथ हर साल विज्ञान कांग्रेस का आयोजन संपन्न हो जाता। लेकिन समस्या उस समय शुरु हुई जब से पूरी दुनिया सहित भारत में भी अपनी जड़ों को खोजने और उनके साथ जुडऩे के प्रति नई चेतना विकसित होने लगी। इसी के चलते नए वैज्ञानिकों व चिंतकों ने स्वदेशी चिंतन को आगे बढ़ाना शुरु किया। पहले तो स्वदेशी चिंतन की भत्र्सना हुई फिर विरोध और अब लगता है कि आयोजन ही स्थगित करने में ही भलाई समझी जा रही है कि चलो न होगा बांस और न बजेगी बांसुरी। न विज्ञान कांग्रेस होगी और न ही भारतीय चिंतन सुनने की नौबत आएगी।
स्वदेशी चिंतन पर पश्चिमपंथी व वामपंथी विचारधारा से प्रभावित वैज्ञानिक सदैव विवाद उठाते आए हैं। 103वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में भी विवाद में रहा। मैसूर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस में एक वनस्पति वैज्ञानिक को कथित तौर पर उनका पेपर नहीं पढऩे दिया गया। मध्य प्रदेश निजी विश्वविद्यालय नियामक आयोग, भोपाल के अध्यक्ष प्रो. अखिलेश पांडेय वनस्पति वैज्ञानिक हैं और वे विज्ञान कांग्रेस में 'भगवान शिव विश्व के सबसे महान पर्यावरणविद्Ó विषय पर पत्र पढऩे वाले थे। उन्होंने शोध में भगवान शिव और शंख को भी शामिल किया। बताया जाता है कि उन्हें शोधपत्र पढऩे से इसलिए रोका गया कि कुछ वैज्ञानिकों आरोप था कि डा. पांडेय गल्प और विज्ञान का घालमेल कर रहे हैं। हालांकि, अखिलेश पांडेय ने उन्हें पेपर पढ़े जाने से रोकने की बात का खंडन किया परंतु इसके साथ ही उन्होंने कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि मेरे शोध में विज्ञान का उल्लेख नहीं है? आखिर विज्ञान क्या है? आज की फंतासी या गल्प ही कल का विज्ञान है। गल्प ही आविष्कार की जननी है। इसी विज्ञान कांग्रेस में हिंदू धर्म बहुत पहले ही स्वच्छ वातावरण की बात समझ चुका था यह शोध पढ़ा जाना था, जिसमें विभिन्न शहरों में हवा की गुणवत्ता पर चर्चा होनी थी परंतु नहीं होने दी गई। कानपुर के वैज्ञानिक राजीव शर्मा के नृविज्ञान और व्यवहारिक विज्ञान (एथ्रोपोलॉजी एंड बिहैविरल साइंस) के तहत शंख की उपयोगिता पर शोध सामने आया, जिसमें मानव स्वास्थ्य से जुड़े शंख के लाभ होने के दावे किए गए तो इसका भी खूब विरोध हुआ। तत्कालीन तकनीकी मंत्री डा. हर्षवर्धन ने विज्ञान कांग्रेस में दावा किया था कि पाइथागोरस प्रमेय का उद्भव भारत से हुआ तो उस पर भी विवाद हुआ।
केवल युरोप के ही विज्ञान को प्रमाणिक मानने वाले हमारे कुछ वैज्ञानिक अभी तक रामसेतु को प्राकृतिक रचना बताते आरहे थे, लेकिन हाल ही में अमेरिका के वैज्ञानिक चैनल ने दुनिया को यह बताया है कि यह रचना मानव निर्मित है। विशुद्ध रूप से एक विदेशी वैज्ञानिक संस्थान द्वारा किए गए शोध का हमारे देश के वामपंथी नेता डी. राजा ने जिस तरह उपहास उड़ाया और खारिज किया उससे साफ पता चलता है कि वामपंथी चिंतक भारतीय ज्ञान-विज्ञान की प्रमाणिकता की साबित होने की शुरू हुई प्रक्रिया से घबरा गए हैं। रामसेतु की इस नई खोज ने रामायण के रूप में भारतीय इतिहास व विज्ञान पर प्रमाणिकता की मुहर लगा दी है। अब दुनिया के सामने सच्चाई आगई है कि भारत में युगों पहले सेतु बनाने की इंजीनियरिंग विशेषज्ञता विकसित हो गई थी और पुल केवल नदियों के दो पाटों के बीच ही नहीं बल्कि समुद्र पर भी बांध सकने की योग्यता भारतीयों में थी। केवल रामसेतु ही क्यों सरस्वती नदी का पुर्नोत्थान, गो-मूत्र को मिले अमेरिकी पेटेंट, योग की वैज्ञानिकता, आयुर्वेद की वैज्ञानिक सार्थकता, औषधी विज्ञान में प्राचीन भारतीय ज्ञान की पुर्नस्थापना, गुजरात के समुद्री तट में भगवान कृष्ण से जुड़ी प्राचीन नगरी द्वारिका के अवशेष मिलना अदि अनेक उपलब्धियां हैं जो साबित करती हैं कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में इस देश की उपलब्धियां किसी से कम नहीं रही हैं। माना कि देश के सारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को वर्तमान परिस्थितियों में प्रमाणित करना दुरुह कार्य है और जो लोग इसमें विश्वास नहीं रखते उन पर यह काम थोपा भी नहीं जाना चाहिए परंतु अपने देश, अपनी मिट्टी से प्यार करने वाले, देश के प्राचीन ज्ञान पर गौरव करने वाले भी वैज्ञानिक भी तो हैं। आखिर इन वैज्ञानिकों को भी तो अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने, नए शोध समाज में लाने के लिए मंच की आवश्यकता है। इस काम के लिए भारतीय विज्ञान कांग्रेस से उचित कौन सा मंच हो सकता है?
विज्ञान कांग्रेस केवल वामपंथियों व पश्चिमपंथियों की ही तो बपौती नहीं इस पर देश के संपूर्ण वैज्ञानिक समुदाय का एक समान अधिकार है। किसी के शोध या वैज्ञानिक खोज पर दूसरे को संदेह है तो इसकी काट विज्ञान के आधार पर की जानी चाहिए न कि विचारधारा के धरातल पर। भारत के स्वतंत्रता के बीते 70 सालों के इतिहास में नहीं बल्कि 105 सालों के इतिहास में हुई एकमात्र घटना है जब विज्ञान कांग्रेस को स्थगित किया गया है। भारतीय वैज्ञानिकों और स्वतंत्रता संग्राम चला रहे नेताओं के बीच संबंधों के बावजूद ब्रिटिश दौर में भी भारतीय विज्ञान कांग्रेस बिना रुकावट होती रही। आज बिना किसी ठोस कारण के इसे स्थगित करना कई तरह के संदेह पैदा करता है कि इसके पीछे वैचारिक असहिष्णुता तो नहीं?

Updated : 26 Dec 2017 12:00 AM GMT
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