एक संगीत साधना की संक्षिप्त समाप्ति
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एक अनपेक्षित विसंवादी स्वर
21 दिसंबर की सुबह नागपुर के संगीत विश्व में कभी न भरी जानेवाली एक रिक्तता, एक खालीपन लेकर आयी। एक भयानक दुर्घटना में एक प्रखर संगीत साधना के अकाल निधन का अनपेक्षित विसंवादी स्वर आ गया जिसने शास्त्रीय संगीत के कई सारे श्रोताओं को अंदर तक हिला दिया। ईश्वर प्रदत्त सुमधुर कंठ से हजारों विद्यार्थियों को संगीत का प्रशिक्षण देने वाली गायत्री कानिटकर के जीवन की अंतिम तान उसी कालनियंता में विलीन हो गई। जो सभी को अच्छे लगते हैं, वे ईश्वर को भी भाते हैं इसी उक्ति को साकार करने वाली अपने विद्यार्थियों उनके अभिभावक, श्रोताओं, मित्र परिवार, पड़ौसियों तथा अपने अंतरंग सभी नाते रिश्तेदारों में लोकप्रिय गायत्री कानिटकर को 42 वर्ष की अल्पायु में ही ईश्वर ने अपने पास बुला लिया। उनके स्नेहिल स्वभाव के दर्शन अंबाझरी घाट पर उनके अंतिम संस्कार में तथा घर में उनके अंतिम दर्शन के लिए आए हुए तथा इस अविश्वसनीय आकस्मिक घटना से व्यथित उनके सभी आत्मीय जनों के शोकाकुल चेहरे पर भी हो रहे थे। अपने 4 वर्ष के विद्यार्थी से लेकर 60 वर्ष तक की गृहिणी जो उनसे संगीत की शिक्षा लेते थे, प्रेम से उन्हे ताई जी (काकु) कहकर पुकारते थे और ये ताई उनके विद्यार्थियों के लिये उनका सर्वस्व थी।
28 फरवरी 1975 को सुसंस्कृत दामले परिवार में जन्मी गायत्री को बचपन से ही कला में रूचि थी और बहुत थोडी उम्र में उन्होंने गायन, वादन, नृत्य और कीर्तन इन सभी क्षेत्रों में प्रवीणता प्राप्त कर ली। अनेक परीक्षाओं तथा प्रतियोगिताओं में सर्वोत्तम स्थान प्राप्त करने वाली गायत्री उच्च विद्यासम्पन्न थी। शास्त्रीय संगीत में नागपुर विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद स्नातकोत्तर परीक्षा में उन्होंने स्वर्ण पदक प्राप्त किया। जयपुर घराने की गायकी पर अनुसंधान कर पी. एच. डी (आचार्य) के लिये उन्होंने अपना प्रबंध प्रस्तुत किया। अखिल भारतीय गांधर्व महाविद्यालय मिरज में संगीत अलंकार परीक्षा में उन्होंने विदर्भ में प्रथम स्थान प्राप्त किया। उसके पश्चात विविध परीक्षाओं में परीक्षक के रूप में कार्य किया। धरमपेठ माध्यमिक विद्यालय के गणित शिक्षक श्री. जयराम दामले तथा श्रीमती अपर्णा दामले ने श्री. मुकुंद व माधवी कानिटकर के पुत्र श्री. मकरंद कानिटकर (जो स्वतंत्र व्यवसायी हैं) को कन्यादान किया। और कानिटकर परिवार की इस पुत्रवधू ने स्वतंत्र व्यवसाय की विशेष परिस्थितियों के कारण आने वाली पारिवारिक चुनौतीयों का पूरे सामथ्र्य से सामना किया। अपने पारिवारिक दायित्व निभाते हुए भी उन्होंने अपनी संगीत साधना निरंतर शुरू रखी और उसमें उन्हे अपने पति का पूरा साथ मिला। शोधकार्य के लिये विभिन्न संगीतकारों से मिलना उनके संगीत की खूबियों को समझना, आत्मसात करना इस सारे कार्य में अपने व्यवसाय को संभालते हुए भी मकरंद उनका पूरा साथ देते रहे।
अपने जीवन के अंतिम कत्र्तव्य के रूप में भी उन्होंने संगीत विशारद परीक्षा के परीक्षक के रूप में कार्य किया। इसी कार्य के पश्चात नांदेड़ से लौटते समय एक दुर्दैवी घटना में उनकी यह संगीत साधना स्तब्ध हो गई। स्वर्गीय गायत्री की शास्त्रीय संगीत पर गहरी निष्ठा थी। सुगमसंगीत तथा आज के टी. व्ही. कार्यक्रमों में जिस हल्के संगीत का प्रलोभन, आकर्षण विद्यार्थियों को होने लगता है। उससे उन्हें ंंंसंरक्षित कर भारतीय पद्धति पर आधारित शुद्ध शास्त्रीय संगीत की शिक्षा अपने विद्यार्थियों को देने का उन्होंने आजीवन प्रयास किया। मिरज, पुणे, जोधपुर, मुंबई, नागपुर , यवतमाळ, वरूड तथा अमरावती जैसे अनेक स्थानों पर एकल तथा सामूहिक मंचीय कार्यक्रम करने के बाद भी उनका मूल स्वभाव संगीत शिक्षिका का ही था। उन्होंने बी, एड का औपचारिक प्रशिक्षण प्रवीणता के साथ पूर्ण किया। किंतु उनका झुकाव पारंपरिक गुरूकुल पद्धति से, गुरू शिष्य परंपरा से विद्यार्थियों को तैयार करने में ही था। अपनी ददिया सास स्वर्गीय राधाबाई कानिटकर के नाम से उन्होंने संगीत विद्यालय प्रारंभ किया। तथा अपने विद्यार्थियों का संपूर्ण दायित्व लेते हुए उन्हे पुत्रवत स्नेह से प्रशिक्षण देने का कार्य गायत्री ने किया। अनेक विद्यार्थियों के अभिभावकों से भी उनके आत्मीय संबंध थे। अपने स्वयं से अधिक अपने विद्यार्थियों को सामने लाने का उन्होंने आजीवन प्रयास किया। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के विभिन्न चैनल पर उनके विद्यार्थियों के कार्यक्रम प्रस्तुत हुए। स्वयं को पीछे रखने की आत्मविलोपी वृत्ति गायत्री में थी। मायके तथा ससुराल दोनों ही परिवार में संघ संस्कार उन्हे मिला था इसलिये सामाजिक दायित्व बोध उनकी स्वभावगत विशेषता थी। विविध सामाजिक संगठनों में सक्रिय संबंध रखते हुए उन्होंने संगीत सेवा के साथ-साथ इन संगठनों में कार्य करते हुए प्रत्यक्ष सेवा भी की। प. पू. श्री. गुरूजी की जन्मशताब्दी अवसर पर संघ में गाये जाने वाले विविध राष्ट्रभक्ति गीतों को सुमधुर शास्त्रीय स्वर प्रदान कर उन्होंने एक अनोखा कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया था। साधना की पूर्णता भक्ति से ही होती है। गायत्री जीं ने गोंदवलेकर महाराज की परंपरा में अनुग्रह प्राप्त किया था। राम नाम का जप अंतिम श्वास तक उनका साथी था। पति तथा श्वसुर दोनों ही दत्तभक्त होने से प्रतिवर्ष दत्त जयंती के पूर्व दत्तपाठ का पठन घरों में चलता था। उसमें अपने सहकलाकारों के साथ गायत्री नियमित रूप में भक्तिगीतों के कार्यक्रम की प्रस्तुति देती रही। अपनी सास माधवी कानिटकर द्वारा लिखित 10-12 दत्त भजनों को उन्होंने स्वयं श्रद्धापूर्ण संगीत दिया तथा नियमित रूप में अत्यंत भक्तिभाव से वे उनका गायन करती थी। उनके अंतिम दो कार्यक्रम दत्तसप्ताह में उन्होंने 12 व 13 दिसंबर को प्रस्तुत किये थे।
चि. दीपांकुर तथा वृंदा के रूप में गायत्री की बहुमुखी प्रतिमा का स्मरण हमें हमेशा होता रहेगा। सितार वादन, शास्त्रीय नृत्य, कीर्तन, संगीत दिग्दर्शन, चित्रकला इन सभी कलाओं में अभिरूचि रखने वाली गायत्री का मूल स्वरूप संगीतमय ही था। उनके इस अल्प किंतु सार्थक जीवन का एक शब्द में वर्णन करना हो तो ‘संगीत शिक्षिका’ यही करना होगा। उनकी संगीत की साधना इतनी प्रखर थी कि बचपन में उन्हें संगीत सिखाने वाले कुछ शिक्षकों ने भी स्वयं उनसे संगीत सीखने की इच्छा व्यक्त की थी। संगीत में नित-नये प्रयोग वे करती रहती थी। संगीत के शोध कार्य के निमित्त गानयोगिनी धोंडुताई कुलकर्णी तथा संगीत ऋषि राजेंद्र मणेरीकर से उनका संपर्क हुआ और इन सुविज्ञ साधकों से उन्होंने गहरी श्रद्धा से उनकी विशिष्ट कला को सीखा। उनकी सतत नया सीखने की लगन आजीवन रही इसलिये उन्होंने अपने स्वर को साधने के लिये विशेष पद्धति से प्रशिक्षण (Voice Culture) भी लिया। नागपुर के संगीत विश्व को तथा उनके शताधिक विद्यार्थियों को अब उनकी इस साधना को संरक्षित रखना होगा। उनका परिवार तथा शिष्यवंृद ‘कै. राधाबाई कानिटकर संगीत विद्यालय’ के माध्यम से स्वर्गीय गायत्री की स्मृति निरंतर रखने के लिए संकल्प बद्ध है।