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आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण के मायने

आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण के मायने

-प्रमोद भार्गव


आरक्षण के इस प्रावधान में एक साथ दो पेंच है। एक तो हमारा संविधान अर्थ और धर्म के आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं देता है,दूसरे सर्वोच्च न्यायालय का जो दिशा-निर्देश है,उसके अनुसार 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। लिहाजा इस नए रूप में आए आरक्षण का भी वही हश्र हो सकता है,जो राजस्थान सरकार द्वारा गुर्जर समुदाय के आरक्षण हेतु किए प्रावधान का हुआ था। हालांकि गुजरात सरकार का तात्कालिक मकसद तो इतना भर समझ आता है कि इस ताकतवर समुदाय को संतुष्ट करने की दृष्टि से ऐसे उपाय किए जाएं,जिससे पटेल-पाटीदार फिलहाल संतुष्ट हो जाएं।


पटेल आरक्षण आंदोलन की आग में झुलस रही गुजरात की भाजपा सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की है। जबकि आंदोलनरत इस समुदाय के लोगों की मांग थी कि अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में पटेलों-पाटीदारों को शामिल किया जाए। लेकिन गुजरात सरकार का यह निर्णय किसी समुदाय विशेष के लिए न होते हुई, उन सभी समुदायों के गरीब वर्गों के लिए है,जिनके परिजनों की वार्षिक आमदनी 6 लाख रुपए से नीचे है। मसलन इस दायरे में तृतीय श्रेणी कर्मचारी और सहायक शिक्षकों की संतानें आसानी से आ जाएंगी। यदि ये जातियां पिछड़ी जातियों की नौवीं अनुसूची में शामिल हो जाती तो वे आप से आप आरक्षण की हकदार हो जाती। इस समुदाय की दूसरी सबसे बड़ी मांग थी कि राजद्रोह के मामले में हार्दिक पटेल समेत जो युवक जेल में बंद हैं,उन्हें रिहा किया जाए। यह मांग सरकार ने मान ली है। हालांकि पाटीदार अमानत आंदोलन समिति के नेता हार्दिक पटेल ने अभी यह संकेत नहीं दिया है कि सरकार का फैसला उन्हें स्वीकार है।

आर्थिक आधार के बहाने सामने आया आरक्षण का यह नया रूप संविधान की कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं, यह समय तय करेगा, लेकिन इतना तो तय है कि सरकारी नौकरी और शिक्षा में आरक्षण की बढ़ती और हिंसक हो रही मांग के मद्देनजर आरक्षण का यह तरीका उचित दिशा में चलता दिखाई दे रहा है। लेकिन आरक्षण से भी बड़ा मुद्दा यह है कि नए रोजगार सृजित क्यों नहीं हो रहे ? पहले राजस्थान फिर हरियाणा और अब गुजरात में किए जा रहे आरक्षण के नए-नए प्रावधानों से यह तो तय है कि ये प्रावधान अंतिम नहीं हैं। इन्हें कानून में बदलने से पहले संबंधित राज्यों के उच्च न्यायालयों और फिर सर्वोच्च न्यायालय में न्याय की कसौटी पर खरा उतरना होगा। क्योंकि इन तीनों ही प्रांतों में आरक्षण का लाभ देने से देश में यह संदेश गया है कि जो शक्तिशाली जाति-समुदाय हैं, यदि वे अपनी पर उतर आएं तो दबाव डालकर राज्य सरकारों को झुका सकते हैं। संविधान से जुड़े आरक्षण के जो मानक हैं,उनसे आंदोलनकारियों का कोई वास्ता नहीं है। आरक्षण पाने वाले समुदाय को समाज के स्तर पर गया-गुजरा होना जरूरी है। जबकि राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट और गुजरात में पटेल-पाटीदार न केवल संख्याबल के हिसाब से बल्कि सामाजिक,आर्थिक और शैक्षिक लिहाज से भी अपने-अपने राज्यों में ताकतवर जाति-समूह हैं। इनसे प्रेरित होकर हो सकता है,कल को आंध्र प्रदेश का कापू समुदाय इसी राह पर चल पड़े। कुछ समय पहले इसी मांग को लेकर वह प्रदेशव्यापी आंदोलन कर भी चुका है। हालांकि अपने लक्ष्य में फिलहाल उसे सफलता नहीं मिली है। लेकिन आर्थिक आधार पर आरक्षण का अब जो नया अवतार सामने आया है,उसकी प्रतिच्छाया में उनकी भी उम्मीद बढऩा तय है।
जाट आरक्षण से जुड़े विधेयक को कानूनी रूप देने के लिए हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर सरकार ने बीसी ;पिछड़ा वर्ग सी नाम से एक नई श्रेणी बनाई है,ताकि पहले से अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल, आरक्षण का लाभ प्राप्त कर रही जातियां अपने अवसर कम होने की आशंका से नाराज न हों। साथ ही बीसी-ए और बीसी-बी की श्रेणी में आरक्षण का प्रतिशत भी बढ़ाकर 10 कर दिया गया है। जाटों के साथ इसमें जट सिख, बिश्नोई, त्यागी, रोड, मुस्लिम जाट व मुल्ला जाट जातियां भी शामिल कर दी गई हैं। विधेयक के मसौदे में यह नजरिया साफ है कि जाट आंदोलन की तपिश से मुरझाई सरकार ने यह हर संभव प्रयास किया है कि राज्य में सामाजिक समीकरण सधे रहें।
सरकार ने आनन-फानन व सर्वदलीय सहमति से विधेयक भले पारित कर दिया है,लेकिन प्रावधान से जुड़ी चुनौतियां और संवैधानिक पेंच अभी भी बरकरार हैं। हां इस विधेयक को तुरत-फुरत पारित कर दिए जाने से इतना जरूर सुनिश्चित हुआ है कि ताकतवर समुदाय के समक्ष सरकार में बैठे विपक्षी दलों की बोलती भी बंद है। गुजरात में भी विपक्षी नेता आंदोलनकारियों की मांगों के समर्थन में उतर आए हैं। शंकरसिंह वाघेला ने कहा है कि 'यह कोटा कम है, इसे बढ़ाकर 20 फीसदी किया जाए और आय सीमा को भी दोगुना किया जाए।' जबकि आरक्षण को यह जो नया रूप दिया गया है, उसकी आपूर्ति अनारक्षित कोटे से की जाएगी। यदि आय सीमा 6 लाख से बढ़ाकर 12 लाख कर दी जाती है तो आरक्षण का लाभ वंचित तबकों के वास्तविक जरूरतमंदों को नहीं मिलेगा।
आरक्षण के इस प्रावधान में एक साथ दो पेंच हैं। एक तो हमारा संविधान अर्थ और धर्म के आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं देता है,दूसरे सर्वोच्च न्यायालय का जो दिशा-निर्देश है,उसके अनुसार 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। लिहाजा इस नए रूप में आए आरक्षण का भी वही हश्र हो सकता है,जो राजस्थान सरकार द्वारा गुर्जर समुदाय के आरक्षण हेतु किए प्रावधान का हुआ था। हालांकि गुजरात सरकार का तात्कालिक मकसद तो इतना भर समझ आता है कि इस ताकतवर समुदाय को संतुष्ट करने की दृष्टि से ऐसे उपाय किए जाएं, जिससे पटेल-पाटीदार फिलहाल संतुष्ट हो जाएं। वैसे भी गुजरात में 2017 में राज्य विधानसभा के चुनाव होने हैं और भाजपा सरकार संख्याबल की दृष्टि से इस बड़े समुदाय की नाराजी मोल लेकर चुनाव में उतरना नहीं चाहती। यह समुदाय शहरी,कस्बाई और ग्रामीण तीनों ही क्षेत्रों में अपनी मजबूत राजनीतिक हैसियत रखता है। साथ ही राज्य में इस समुदाय की आबादी करीब 15 फीसदी है। इस लिहाज से इस तबके को संतुष्ट करना भाजपा की राजनीतिक मजबूरी भी है। पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा इसकी कीमत चुका भी चुकी है।

लेकिन जिस तरह से सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक रूप से समर्थ जातियां एक-एक करके आरक्षण की मांग को लेकर आगे आ रही हैं,उस परिप्रेक्ष्य में यह जरूरी हो जाता है कि आरक्षण के संवैधानिक हल खोजे जाएं। हालांकि इसके समाधान खोजना भी जोखिम भरा काम है,क्योंकि यदि मांगें मान ली जाती हैं तो नई-नई जातियां उठ खड़ी होंगी और यदि संविधान में संशोधन की बात करके सुधार की पहल की जाती है तो पिछड़ी जातियां हो-हल्ला करने लग जाती हैं। इसलिए इस या उस आरक्षण के उपायों के बहाने युवाओं के दिग्भ्रमित करने की बजाय रोजगार-उपलब्धता की सच्चाई से भी रूबरू कराने की भी जरूरत है ?

Updated : 4 May 2016 12:00 AM GMT
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