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याद आई खादी


खादी अर्थात स्वतंत्रता संग्राम में देश भक्ति का प्रतीक चिन्ह, महात्मा गांधी ने चरखा और खादी को जन-जन के स्वाभिमान और आत्माभिमान से जोड़कर राष्ट्रजागरण का प्रमुख अस्त्र बनाया था। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि स्वतंत्रता के बाद वर्षों-वर्ष उस दल की सरकार रही जिसके नेता उन्हीं गांधी और खादी के नाम पर वोट तो मांगते रहे लेकिन न गांधी के विचारों को आत्मसात किया न खादी के उपयोग को बढ़ावा दिया। खादी का संबंध सिर्फ गांधीजी के चरखे या उनके विचारों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह कहा जाए कि खादी में गांधीजी का दर्शन छिपा है, तो अतिश्योक्ति नहीं होना चाहिए...
खादी और ग्रामोद्योग आयोग ने केंद्र सरकार को सुझाव दिया है कि वह अपने कर्मचारियों को सप्ताह में एक दिन खादी के कपड़े पहनने को कहे... सरकार इस सुझाव पर गंभीरता से विचार कर रही है कि हर शुक्रवार अगर सरकारी कर्मचारी खादी के कपड़े पहनें, तो इससे देश के खादी और ग्रामोद्योग से जुड़े लोगों को बहुत फायदा हो सकता है... इसको अनिवार्य करने से बेवजह का विवाद हो सकता है, इसलिए सरकार इसे स्वैच्छिक बनाने पर विचार कर रही है... केंद्र सरकार के कर्मचारियों की संख्या रेलवे और सेना के कर्मचारियों को छोड़कर 35 लाख के करीब है, अगर ये सभी एक-एक जोड़ी खादी के वस्त्र भी खरीद लें, तो खादी और ग्रामोद्योग आयोग को बड़ा फायदा होगा... ऐसा नहीं हैै कि सरकारी कर्मचारी खादी नहीं पहनते, लेकिन इसमें एक वर्ग भेद है... आला अफसर खादी या हैंडलूम के ऊंचे ब्रांड के कपड़े पहने मिल जाएंगे, लेकिन मंझले या निचले स्तर पर इनकी तादाद नगण्य ही होगी... लेकिन अगर सरकारी कर्मचारियों को खादी पहनने के लिए प्रोत्साहित किया जाए, तो यह अच्छी बात हो सकती है...
खादी का रिश्ता हमारे इतिहास और परंपरा से है... आजादी के आंदोलन में खादी एक अहिंसक और रचनात्मक हथियार की तरह थी... यह आंदोलन खादी और उससे जुड़े मूल्यों के आस-पास ही बुना गया था... खादी को महत्व देकर महात्मा गांधी ने दुनिया को यह संदेश दिया था कि आजादी का आंदोलन उस व्यक्ति की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आजादी से जुड़ा है, जो गांव में रहता है और
जिसकी आजीविका का रिश्ता हाथ से कते और बुने कपड़े से जुड़ा है, और जिसे अंग्रेजी व्यवस्था ने बेदखल कर दिया है... आजादी के आंदोलन के सभी कांग्रेसी नेता अपने हाथों से सूत कताई करते थे और खादी ही पहनते थे। आजादी के बाद भी लंबे वक्त तक कांग्रेसजनों के लिए खादी पहनना अनिवार्य था... अब खादी से जुड़ा यह इतिहास भी लोगों को याद नहीं है और वक्त भी काफी बदल गया है...
लेकिन इस वक्त भी खादी का काम करने वाले लोग समाज में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के ही हैं और खादी का इस्तेमाल बढ़े, तो इन्हें फायदा होगा... हुआ यह है कि अब खादी पहनना फैशन में नहीं है और आधुनिक तकनीक से बने वस्त्र खादी के मुकाबले सस्ते और सुविधाजनक भी हैं, इसलिए खादी पहनना काफी कम हो गया है... अब खादी से जुड़ी संस्थाएं और लोग खादी का आधुनिक समाज में प्रचलन बढ़ाने की कोशिशें कर रहे हैं... वे खादी को ज्यादा सुविधाजनक और नई रुचि व फैशन के मुताबिक बना रहे हैं और उसके लिए बाजार भी तलाश रहे हैं... अब प्राकृतिक और पर्यावरण के नजरिये से हानिरहित चीजों के इस्तेमाल का चलन बढ़ा है, इसलिए भी खादी की प्रासंगिकता बढ़ी है... कई बड़ी निजी कंपनियां भी खादी को प्रोत्साहन देने के लिए आगे आई हैं...
जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था बदलेगी, वैसे-वैसे खादी की अर्थव्यवस्था भी बदलेगी... खादी को प्रोत्साहन देने के पीछे अवधारणा यही थी कि भारत के सीमांत या भूमिहीन किसान परिवारों को खादी से कुछ अतिरिक्त कमाई हो जाए... जैसे-जैसे शहरीकरण होगा और रोजगार के अन्य साधन बढ़ेंगे, ऐसे परिवारों की संख्या कम होगी... शायद तब खादी का अर्थ बदल जाए... लेकिन अभी आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी ऐसे परिवारों की बड़ी तादाद है और इसलिए खादी का वही पुराना अर्थ व प्रासंगिकता बनी हुई है... खादी को प्रोत्साहित करना जरूरी है, साथ ही ऐसी परिस्थितियां भी पैदा की जानी चाहिए कि खादी बुनना और पहनना किसी की मजबूरी नहीं, बल्कि गौरव और सम्मान का विषय हो... केन्द्र सरकार ने या कहें मोदीजी ने खादी को जन-जन से जोडऩे की पहल की है... और उसके सकारात्मक नतीजे भी मिलना प्रारंभ हो गए हैं... उम्मीद करना चाहिए खादी के उपयोग के साथ ही खादी से जुड़ा गांधीजी का विचार और कार्य भी प्रासंगिकता प्राप्त करेगा...

Updated : 17 March 2016 12:00 AM GMT
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