Home > Archived > युवा मन को आज भी आकर्षित कर रहा है पखावज

युवा मन को आज भी आकर्षित कर रहा है पखावज

युवा मन को आज भी आकर्षित कर रहा है पखावज
X

सन् 1924 से शुरू तानसेन महोत्सव में पहली बार एक मंच पर दिखे दिग्गज पखावज वादक, अलग-अलग घरानों के साथ बड़ी संख्या में युवाओं की प्रस्तुति


ग्वालियर।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो धाराएं हैं। एक स्वर की तो दूसरी वाद्यों की और ताल वाद्यों में आज भी पखावज का स्थान सर्वोपरि है। भगवान गणेश के मृदंग वादन से लेकर इंद्रादि देवों ने जिस पखावज का स्तुतिगान में उपयोग किया , वो भला मानव के मन-मस्तिष्क को आंदोलित ना करें, ऐसा संभंव नहीं है। अक्सर सुनने में आता है कि आधुनिक चकाचौंध के दौर में पखावज वादन की परंपरा लुप्त हो चली है, जबकि ऐसा नहीं हैं। तमान कठिनाइयों के दौर से गुजरते हुए पखावज आज युवा मन को आकर्षित करती दिखाई दे रही है। अगर विश्वास नहीं होता तो ग्वालियर में आयोजित तानसेन संगीत समारोह के मंच और उसके पाश्र्व में आकर देखिए, जहां ना जाने कितने ‘तरूण’ पखावज पर ‘तिटकत गदिगन धा धा धा’ की प्रस्तुति से पहले पूर्वाभ्यास करते दिखाई देंगे।

तानसेन संगीत समारोह में पहली बार देश के कौने-कौने से आए धु्रपद गायक व उनके साथ पखावज की संगत देने बड़ी संख्या में पखावज वादक ग्वालियर आए। समारोह में इस बार सबसे महत्वपूर्ण नाथद्वारा घराने के मूर्धन्य पखावज वादक पं. डालचंद्र शर्मा को वर्ष 2016-17 का तानसेन अलंकरण मिलने से स्पष्ट है कि पखावज वादन की परंपरा को हमारे युवा आत्मसात कर रहे हैं। आधुनिक मृदंग वादन की परंपरा भरतकालीन है और महोत्सव में आए डॉ. अनिल चौधरी, हरीशपति, अखिलेष गुंदेचा, अंकित पारिख, संजय पंत, रोमनदास, प्रवीण आर्य, मुन्नालाल भट्ट जैसे दिग्गज पखावज वादकों में से अधिकांश युवा हैं।

दरअसल संगीत में प्राण डालने वाले वाद्य ही होते हैं, जिसकी ताल पर श्रोता घंटों तक खोया-खोया वृक्ष-पत्रों की भांति झूमता रहता है और पखावज में तो यह स्थिति अपनी चरम सीमा तक पहुंच जाती है। उस समय ऐसा लगता है कि मानो शंकर की ताल पर सारा ब्रहामांड नाच रहा हो। ‘नादाधीनमिदं जगत’ के स्थान पर हम ‘कालाधीन मिदं जगत’ कहें तो वह अधिक सत्य होगा। क्योंकि वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार नाद भी काल के ही अधीन है। काल के ही पर्याप्त कंपन, आंदोलन आदि हैं, जिससे पखावज की गति, लय आदि के भेद दिखाई पड़ते हैं।

पखावज की थाप से निकलते चेतनता का प्रतीक है और स्वर की अपेक्षा गति का प्रभाव अधिक विस्तृत एवं व्यापक होता है। आप भी तानसेन संगीत समारोह में गंूजते पखावज के बोलों का आनंद लीजिए कुछ इस तरह......धनगिन, तिरकिट, किडनग, दिनतक, धिडनग, ननगधेटे, किटतक, धेरधेरे, गदिगन आदि।
स्वर का आनंद प्राप्त करने के लिए संस्कार चाहिए लेकिन, गति का आनंद छोटे-बड़े, ऊंच नीच, देहाती-शहरी सभी को अनायास होता है। नाथद्वारा परंपरा में स्तुति परन और लय के बोल सीखना आसान है। यह अच्छी बात है कि बड़ी संख्या में युवा पखावज की ओर आकर्षित हो रहे हैं।

ग्वालियर में हुई वृंदावन की अनुभूति
श्रीधाम वृंदावन में जन्मे और दरभंगा घराने के पं. विदुर मलिक के शिष्य पं. राधागोविंद दास ने बताया कि वह सन् 1985 में अपने गुरू के साथ यहां गायन हेतु आ चुके हैं। आज गुरू जीवित नहीं हैं लेकिन गायन के समय मैं अपने गुरू और संगीत सम्राट तानसेन दोनों की वंदना करता रहा। मैंने अपने गायन में पूरा प्रयास किया कि श्रोताओं को श्रीस्वामी हरिदास जी के धु्रपद से परिचित कराऊ।

आपके शहर में संगीत और श्रंगार दोनों हैं....
पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के सुप्रसिद्ध कंपोजर मेथिस ब्रोएनर ने कहा कि मुझे पता है कि ग्वालियर के लोग संगीत के बहुत शौकीन हैं लेकिन, यहां आकर जब शहर की ऐतिहासिक इमारतों को देखा तो पता चला यहां के लोग श्रंगार को भी बहुत महत्व देते हैं। मेथिस ने कहा कि मेरे वायलिन वादन को श्रोताओं की खूब वाहवाही मिली।

ग्वालियर में तानसेन का सब कुछ मिलेगा
मुरादाबाद के सारंगी वादक मुराद अली ने बताया कि तानसेन ने संगीत की कई शैलियों की रचना की। घरानों के निर्माण के बाद सब अलग-अलग स्थापित हो गए लेकिन ग्वालियर में धु्रपद, ख्याल, टप्पा, ठुमरी, तंत्रकारी व नोम-तोम की आलापचारी आदि सभी तानसेनी विधाएं धरोहर के रूप में संरक्षित हैं।

भारत का संगीत कल्चरल प्राईज
विश्व संगीत के अंतर्गत अरेबिक संगीत के विशेषज्ञ ओसामा अब्दुलरसूल का कहना है कि भारत के लोग अपनी संस्कृति की वजह से विश्वभर में चर्चित होते हैं। इसलिए भारत को संगीत का कल्चरल प्राइज कहा जाता है। ओसामा अब्दुलरसूल ने कहा कि वह अपने आप को खुशकिस्मत मानते हैं कि ग्वालियर के श्रोताओं ने उनके संगीत को सराहा।

मेरी प्रस्तुति से पिता को होगा मुझ पर गर्व
समारोह में पुणे से सितार पर प्रस्तुति देने आर्इं शहाना बनर्जी ने कहा कि उन्हें सुर सम्राट की समाधि पर स्वरांजलि अर्पित कर अत्यंत खुशी हो रही है। उन्होंने बताया कि मेरे पिता भी तानसेन समारोह में सन् 1959 में सुर बहार की एकल प्रस्तुति और सन् 1969 में हमारे गुरू के साथ जुगलबंदी कर चुके हैं। मेरे पिता को अभी मेरी ग्वालियर की प्रस्तुति के बारे में पता नहीं है, लेकिन यह जानकर उन्हें मुझे पर गर्व होगा।


Updated : 20 Dec 2016 12:00 AM GMT
Next Story
Top