विपक्षी हंगामा और अंदरूनी राजनीति
विमुद्रीकरण पर संसद के भीतर व बाहर विपक्षी कवायद से कई दिलचस्प तथ्य उभरे। एक यह कि इनकी एकता केवल हंगामा खड़ा करने तक सीमित थी। लेकिन भीतर ही भीतर एक-दूसरे को बढ़त से रोकने की नीति पर भी अमल हो रहा था। दूसरी बात यह कि संसद में बहस हेतु विपक्ष ने पूरी या सही तैयारी नहीं की थी। सबके भाषण से यही झलक रहा था कि ये आम जन की परेशानी भुनाने का प्रयास कर रहे हैं। तीसरा प्रधानमंत्री को राज्यसभा में बुलाने के लिए लंबा हंगामा किया गया। इस अवधि का प्रयोग विपक्ष सरकार से सवाल पूछने में कर सकता था। क्योंकि सत्र प्रारम्भ होने के पहले विपक्षी नेताओं का दावा था कि उनकी तैयारी पूरी है। अनेक प्रश्न हैं, जो सरकार को परेशान करेंगे, उनका जवाब देना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। लेकिन जब ऐसा करने का अवसर आया, विपक्ष ने हंगामे में समय निकाल दिया। जबकि वित्तमंत्री कह रहे थे कि वह सभी प्रश्नों का जवाब देने को तैयार हैं। तब ऐसा लगा कि विपक्षी नेताओं की तैयारी में इतना दम नहीं कि सरकार को परेशान किया जा सके। कालाधन रोकने के अन्य उपायों के संबंध में उनके पास कोई विचार नहीं है न वह यह बताने की स्थिति में थे कि इस योजना को किस प्रकार बेहतर ढंग से लागू किया जा सकता था। इसके अलावा इस दौरान विपक्ष की आत्मग्लानि भी दिखाई दी, क्योंकि सत्ता में रहते हुए ये लोग कालाधन व घोटाला रोकने में विफल रहे थे। आज किस मुंह से कहते कि हम विफल रहे, इस सरकार ने ठीक किया इसलिए हंगामे का रास्ता चुना गया। चर्चा में राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष कितने गंभीर थे, इसका भी खुलासा हो गया। उन्होंने नोट बदलवाने के दौरान मृत लोगों की तुलना उरी में शहीद सैनिकों से कर दी। इस प्रकार न केवल उन्होंने देश के शहीदों का अपमान किया, वरन् यह भी दिखा दिया कि वह लोगों की परेशानी का राजनीतिक लाभ उठाने हेतु किसी भी हद तक जा सकते हैं।
संसद का सत्र प्रारम्भ होने के बाद ऐसा लग रहा था कि सरकार को शायद कठिनाई का सामना करना पड़े। अच्छे मकसद से किए गए कार्य से भी यदि आम जन को परेशानी होती है, तो संवेदनशीलता बढ़ती है। विपक्ष जिम्मेदारी का परिचय न दे, तो ऐसी घटनाओं का लाभ उठाना आसान हो जाता है। विपक्षी दलों ने यही बात लपक ली। वह पूरे अभियान को संवेदनशीलता के स्तर से उठाने में जुट गया। एक तरफ संसद का सत्र चल रहा था, दूसरी तरफ मार्च निकाला गया। पहले इस मार्च में हुई विपक्षी राजनीति पर गौर कीजिए। इसे देखकर साफ होगा कि आमजन की चिन्ता तो बहाना थी, असली मकसद मौके का सियासी फायदा उठाना था। कई दल केन्द्र के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाने को बेताब थे। इसकी पहल तृणमूल सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की। उन्हें लगा होगा कि आमजन की परेशानी का मुद्दा उठाकर वह राष्ट्रीय स्तर पर अपना नेतृत्व आगे बढ़ा सकेंगी।
किन्तु ममता बनर्जी की यह मुहिम ध्वस्त हो गयी। आम आदमी पार्टी व नेशनल कांग्रेस पार्टी को छोड़ दें, तो अन्य विपक्षी दलों ने यह बता दिया कि उन्हें ममता का नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर पर मंजूर नहीं। दिल्ली के मुख्यमंत्री को लगा कि इस बहाने राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होगी, मोदी पर हमले की आत्मसंतुष्टि मिलेगी, वह भी ममता के साथ हो गए।
इसके पहले अरविन्द केजरीवाल ने अन्य लोगों पर भ्रष्टाचार के जो आरोप लगाए, उनमें उन्हें नीचा देखना पड़ा है। नितिन गडक़री, अरूण जेटली के मामले में भी केजरीवाल ने मुंह की खाई थी। कोई तनिक भी स्वाभिमानी या गंभीर नेता होता तो भविष्य में बिना सोचे समझे आरोप लगाना बन्द कर देता। लेकिन केजरीवाल ने ममता बनर्जी के साथ खड़े होकर विमुद्रीकरण को घोटाला बताया। मोदी पर निशाना लगाया। इस पर उनको फिर शर्मिन्दगी उठानी होगी, लेकिन केजरीवाल को इसी प्रकार की राजनीति में सुख मिलता है। वह यह नहीं बताना चाहेंगे कि पहले जिन नए क्षेत्रों में वह अपनी पार्टी को लड़ाना चाहते थे, वह फैसला नोटबन्दी के बाद वापस क्यों लिया। या अपने विधायकों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर उनका क्या रूख है। वह तो इन्हें बिना जांच के क्लीन चिट दे रहे हैं।
सबसे पहले वामदलों ने ममता के मार्च से किनारा किया। कांग्रेस को भी इनके साथ रहना था अन्य विपक्षी दल भी दूर हो गए। जाहिर है सियासत के अलावा अन्य कोई मकसद था ही नहीं।
सपा व बसपा का प्रकरण भी कम दिलचस्प नहीं। बसपा प्रमुख मायावती तो पहले दिन से ही इस फैसले से बेहद नाराज हैं। सपा को दो दिन बाद लगा कि कहीं केन्द्र के समर्थन का आरोप न लग जाए। मुलायम सिंह यादव ने भी प्रेस कांफ्रेंस में मायावती की राह पकड़ ली। ऐसा लगा जैसे वोट बैंक की राजनीति में वह बसपा के हाथ में बाजी नहीं देना चाहते।
राज्य सभा में मायावती और सपा नेता रामगोपाल के विचारों में केवल शब्दों का फर्क था। दोनों ने सरकार पर हमला बोला। लेकिन भीतर ही भीतर राजनीति चल रही थी। रामगोपाल को सपा का पक्ष रखते देखना मायावती को पसन्द नहीं आया। जबकि मुद्दा तो विमुद्रीकरण था। दोनों के विचार इस विषय पर समान थे, तो बात यहीं समाप्त हो जानी चाहिए। लेकिन राजनीति इसके बाद शुरू हुई। मायावती ने प्रेस ंकांफ्रेन्स करके कहा कि राम गोपाल की सपा में वापसी से मुसलमान भ्रमित न हों। सपा की आन्तरिक लड़ाई समाप्त नहीं हुई है। अब विमुद्रीकरण और मुस्लिम राजनीति का इस समय औचित्य नहीं था। लेकिन आम जन के लिए बेहाल दिख रहे दल केवल अपना - अपना समीकरण दुरूस्त करने में लगे थे। इसी धुन में कांग्रेस नेता गुलामनवी आजाद ने बढ़त बनाने का प्रयास किया। उन्होंने उरी से तुलना कर दी। उन्हें लगा होगा कि संवेदना का ज्वार दिखाकर वह सब पर भारी पड़ेंगे। लेकिन दांव उल्टा पड़ा। इस बयान पर उनकी फजीहत हो गई। विपक्षी दल हंगामा करने तक तो एक मत थे। लेकिन इनके आपसी मतभेद भी दांव-पेंच में खुलकर सामने आ गए। इससे यह भी साबित हो गया कि ये विमुद्रीकरण व आमजन की परेशानी को लेकर कितने गंभीर थे।