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भारतीय चिंतन का ब्रह्म संपूर्णता का मूल तत्व

ज्ञान आनंद का द्वार है और जिज्ञासा है ज्ञान की माता। जिज्ञासा के गर्भ में ज्ञान का शिशु पलता है, बढ़ता है। फिर ज्ञान का जन्म होता है। ज्ञान अपने चारों ओर देखता है, आश्चर्यचकित होता है। सृष्टि रहस्य उसे आकर्षित करते हैं। ज्ञान सूर्य को देखता है। वह सूर्य की दीप्ति प्रकाश का कारण जानना चाहता है। वह सूर्य प्रज्जवलन के ईंधन की मात्रा जानना चाहता है। बिना ईंधन आग नहीं। जब तक ईंधन है तब तक प्रज्जवलन। प्रश्न उठते हैं कि सूर्य का ईंधन कब खत्म होगा? जिस दिन खत्म होगा, उस दिन क्या दिन शेष बचेगा? तब क्या अंधकार ही अंधकार होगा। यह एक उदाहरण है। माता जिज्ञासा से जन्मे ज्ञान की देह में माता का प्रभाव रहता है। सृष्टि अनंत है तो जिज्ञासाएं भी अनन्त ही हैं। ज्ञान अपनी परिपूर्णता में आनंद हो जाता है। वह अधूरेपन में भी आनंद देता है लेकिन आधा अधूरा ही। आनंद की मात्रा ज्ञान की मात्रा पर निर्भर है। जितना ज्ञान उतना आनंद। उपनिषद् के ऋषि से शिष्य का यह प्रश्न उचित ही है ऐसा क्या है? जिसे जान लेने के बाद सब कुछ जान लिया जाता है। संपूर्ण ज्ञान भारतीय मनीषा की प्राचीन जिज्ञासा है। माना जाता है कि यहां अनेक मनीषियों को संपूर्णता का बोध था। इस चुनौती देने का कोई अर्थ नहीं। इसलिए कि संपूर्णता का बोध भाषा या अन्य उपायों से हस्तांतरित नहीं हो सकता।
संपूर्णता का आख्यान नहीं हो सकता। उपनिषदें में उसे अनिर्वचनीय और अव्याख्येय बताया गया है। तुलसीदास ने भी ज्ञान मार्ग को ‘तलवार की धार’ बताया है। तुलसी ने उसे कबहु कठिन, समझब कठिन कहा है। ज्ञान यात्रा वास्तव में कठिन है। प्रथम तो ज्ञान प्राप्ति ही कठिन साधना है। जानना ही बहुत कठिन है लेकिन उससे भी कठिन है जाने हुए को बताना। तुलसीदास ने कहा है तदपि कहे बिनु रहा न जाई। भारत में प्राचीन काल से ही संपूर्णता के आख्यान के प्रयास जारी हैं। वैदिक वांग्मय के ऋषि, बुद्ध, महाबीर या विवेकानंद संपूर्णता का संदेश ज्ञान देते रहे हैं। यह अलग बात है कि समझने की हमारी पात्रता क्या है? हम न समझें तो भी कोई विशेष बात नहीं। हमारे अज्ञानबोध का जाग जाना भी पर्याप्त है। न जानने का ज्ञान जानने के लिए प्रेरित करता है। जिज्ञासा को पंख लगते हैं। प्रश्नाकुलता बढ़ती है। हम बेचैन होते हैं और ज्ञान विज्ञान में गतिशील हो जाते हैं।
ज्ञान विज्ञान भारतीय चिन्तन के सुपरिचित शब्द हैं। दोनो का सम्यक बोध व्यक्ति को दुखरहित करता है। गीता दर्शन ग्रंथ है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को तमाम जानकारियां दीं। फिर (अ0 6.8) कहा ज्ञान विज्ञान से तृप्त व्यक्ति-योगी स्वयं में दृढ़ हो जाता है। ऐसे लोग कंकड़ पत्थर व स्वर्ण को एक जैसा देखते हैं। यहां ज्ञान संसार बोध है और विज्ञान सृष्टि संचालक चेतना की जानकारी। सातवें अध्याय (श्लोक 2) में कहते हैं, ज्ञाने ते अहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याभ्यशेषत: - मैं तुमसे विज्ञान सहित पूर्ण ज्ञान कहूंगा। विज्ञान महत्वपूर्ण है। विज्ञान के अभाव में ज्ञान अधूरा है और ज्ञान के अभाव में विज्ञान। विज्ञान और दर्शन का उद्देश्य प्रकृति और मनुष्य का ज्ञान प्राप्त करना माना जाता है। लेकिन भारतीय दर्शन का उद्देश्य सीमित नहीं है। यहां दर्शन का उद्देश्य दुख समाप्ति है। दुख का कारण अज्ञान है, अधूरा ज्ञान भी है। ज्ञान विज्ञान का बोध सत्य की प्राप्ति कराता है और सत्य आनंद का पर्याय है। सारे दुख दिक्काल के भीतर हैं। सत्य पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता। सत्य को काल, दिक्, मन और परिस्थिति प्रभाव से मुक्त बताया गया है। सत्य ब्रह्म है। ब्रह्म को उपलब्ध व्यक्ति ब्रह्म ही हो जाता है।
अस्तित्व इन्द्रिय बोध से हीन नहीं। हम मनुष्य देखने, सुनने, संूघने, स्वाद लेने व छूने की सूचनाओं से समझ बनाते हैं। सूचनाएं अस्तित्व से आती हैं। हम अस्तित्व का भाग हैं। इस तरह अस्तित्व भी तमाम सूचनाएं ग्रहण करता है। प्राचीन भारतीय चिन्तन में इसकी जानकारी है। इसलिए वैदिक ज्ञान अंधविश्वासी नहीं है। इस चिन्तन की दो आंखे हैं - विज्ञान और दर्शन। उपनिषद् प्राचीन भारतीय दर्शन के प्रतिनिधि हैं। यहां ‘विज्ञान’ को भी ब्रह्म कहा गया है। तैत्तिरीय उपनिषद् की सुंदर कथा में वरूण के पुत्र भृगु ने पिता से ब्रह्म तत्व की जिज्ञासा की। वरूण ने भौतिकवादी उत्तर दिया, अन्न, प्राण, आंख, कान, मन और वाणी ब्रह्म प्राप्ति के द्वार हैं। इन सबमें ब्रह्म की सत्ता है। सभी प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैं, जिसके सहयोग से जीवित रहते हैं और जिसमें विलीन हो जाते हैं, उसको जानने की इच्छा करो। यहां सारी बातें प्रत्यक्ष हैं। भृगु ने तप किया और अन्न को ब्रह्म जाना। प्राणी अन्न से पैदा होते हैं, अन्न से जीते हैं और अन्त में अन्नपूर्णा पृथ्वी में समा जाते हैं। पिता इस अनुभव से पूरा संतुष्ट नहीं थे। यह स्थूल का अनुभव था। उसने फिर तप किया और प्राण को ब्रह्म जाना। प्राण से ही प्राणी हैं, जन्म लेते हैं उसी में जीते हैं, उसी में लौट जाते हैं। पिता फिर भी संतुष्ट नहीं थे। उसने फिर तप किया, मन को ब्रह्म जाना। मन भी सारी शर्ते पूरी करता है। लेकिन पिता असंतुष्ट थे। तब उसने लौटकर विज्ञान को ब्रह्म कहा विज्ञानं ब्रह्ममेति व्यजानात्।
भारतीय चिंतन का ब्रह्म संपूर्णता का मूल तत्व और विस्तार है। यह सतत् विस्तारमान संपूर्णता है। ‘विज्ञान’ इस संपूर्णता का बोध तत्व है। भृगु ने पिता को बताया विज्ञान से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं। विज्ञान में ही जीते है - जातानि जीवन्ति। अन्तत: इसी विज्ञान में समा जाते हैं। पिता ने सोचा कि अब यह स्थूल और सूक्ष्म दोनो जड़ तत्वों से उठकर चेतन तक पहुंच गया है। इसलिए अभी इसे और परिश्रम की आवश्यकता है। यहां विज्ञान को चेतन बताया गया है। सामान्यतया हम विज्ञान को संसार के अध्ययन का उपकरण जानते हैं। विज्ञान ज्ञान का ही विस्तार है लेकिन भारतीय दर्शन में विज्ञान को उच्चतर महत्व मिला है। यहां परमसत्ता को विज्ञानधन कहा गया है। लेकिन विज्ञान अंतिम लब्धि नहीं है। यह उपनिषद् में अंतिम से ठीक पहले की स्थिति है। विज्ञान संधि है - जड़ और चेतन की। भृगु ने फिर तप किया और इस दफा परिणाम आ गए। उसने पिता को बताया, आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात् - आनंद को ब्रह्म जाना है। आनंद से ही सभी प्राणी जन्म लेते हैं और आनंद से जीते हैं, अंतत: आनंद में ही प्रवेश कर जाते हैं। उपनिषद्कार अपनी ओर से कहते हैं जो यह सब जानते हैं, वे अन्नवान होते हैं। उनका यश फैलता है। वे सबकुछ प्राप्त करते हैं। यहां आनंद का तत्व भी अंधविश्वास नहीं है और न ही अन्न, प्राण, मन आदि ही। यहां विज्ञानी को आनंद की प्रतिभूति है।
कर्मकाण्ड और पूजा पाठ दर्शन भाग नहीं हैं। तमाम कर्मकाण्ड अंधविश्वासी भी हैं। लेकिन इन्हीं के आधार पर प्राचीन दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जुड़ी जिज्ञासा को खारिज नहीं किया जा सकता। आधुनिक वैज्ञानिक सृष्टि रहस्यों पर कठोर श्रम कर रहे हैं। महाविस्फोट का बिग बैंग सिद्धांत चर्चित है। वैज्ञानिकों के अनुसार लाखों वर्ष पहले सृष्टि की संपूर्ण ऊर्जा व पदार्थ एक बिन्दु के भीतर थे। क्या था वह धनीभूत बिन्दु या अण्ड। कार्ल सागन ने उसे ‘कास्मिक एग’ कहा है। कास्मिक एग ब्रह्म अंड है। ऐतरेय उपनिषद् ऋग्वेद की अनुषंगी है। यहां तपे हुए अण्ड के विस्फोट की चर्चा है, विस्फोट से अग्नि व वाणी निकली। फिर विस्फोट हुआ तो वायु प्रकट हुए। फिर प्रकाश पुंज, तारे, सूर्य और दिशाएं आदि। ऋग्वेद (10.121) में ‘हिरण्यगर्भ’ की चर्चा है सबसे पहले हिरण्यगर्भ था - हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे। इसी ने पृथ्वी आकाश सहित सभी को आधार व अस्तित्व दिया है। क्या यह हिरण्यगर्भ आधुनिक वैज्ञानिकों का ‘कास्मिक एग’ है? भारतीय दर्शन की अपनी काव्यात्मक अनुभूति और अभिव्यक्ति है, विज्ञान की अपनी। दोनों आंखें हैं भारतीय परंपरा और चिंतन की। दोनों परस्पर पूरक हैं।

Updated : 13 Nov 2016 12:00 AM GMT
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