Home > Archived > ज्योतिर्गमय

ज्योतिर्गमय

धर्म के आयाम



धर्म की नींव विश्वास पर टिकी होती है, तर्क पर नहीं। धर्म संबंधी बातों में तर्क नहीं करना चाहिए। यह तो बड़े-बड़े बुद्धिमानों के बुद्धितत्व का निचोड़ है। धर्म मानव-जीवन की वह आचार-संहिता है, जो हमें कर्तव्य-पालन की शिक्षा देता है या व्यष्टि जीवन को समष्टि में विलीन करने का आदेश देता है। धर्म वैसा ही है, जैसा आकाश। धर्म जिंदगी जीने का वह तरीका है जिसे सभी जन सभी समाज, सभी मतावलंबी सर्वोत्कृष्ट स्वीकार करते हैं। धर्म को सभी मत-मतांतर सुख की प्राप्ति का बुनियादी कारण मानते हैं। धर्म के लिए सभी संप्रदाय वाले उपदेश देते हैं कि विश्व की सर्वोत्कृष्ट वस्तु को छोड़कर धर्म का आचरण करिए। सभी ज्ञानी, महात्मा, और संत, चाहे वे किन्हीं धर्म-ग्रंथों को स्वीकार करने वाले हों, यही शिक्षा देते हैं कि धर्म से सुंदर कुछ भी इस संसार में नहीं है। कुछ लोगों का मत है कि धर्म धारण कर लेने से मनुष्य देवता बन जाता है। गीता, वेद व उपनिषद अनंत काल से हमें धर्मोपदेश देते आ रहे हैं। धर्म का सिद्धांत है-अपने को पूर्ण स्वाधीन रखना। जीवन में जो कुछ भी सार है, वही धर्म है। धर्म मात्र आत्मा-परमात्मा का संबंध स्थापित करने वाला ही नहींहै, बल्कि हमारे सभी कार्य, व्यवहार, करुणा, क्रोध, स्नेह, दया, त्याग, तप आदि का बोधक भी है। इसी के सहारे सभी मानव व्यापार-व्यवहार होते हैं और समस्त मानव वृत्तिायां अपना कार्य करती हैं। मात्र यही एक ऐसा मार्ग है, जहां समरसता आ जाती है। सभी एक सूत्र में बंध जाते हैं। धर्म का सबसे बड़ा साधन आत्ममर्यादा है।
आत्म मर्यादा का सोपान आत्मगौरव है और आत्मगौरव का आधार सदाचार है। आत्ममर्यादा एक ऐसा धन है, जो संपदा व विपदा दोनों में सदैव समान रहता है। इस ऐश्वर्य से जो समृद्ध हैं वे अभ्युदय की मोह-मदिरा से मतवाले नहीं होते। माता सीताजी इसका आदर्श स्वरूप हैं, जिनका हिमालय-सा अचल हृदय और समुद्र सदृश गंभीर मन वनवास का कष्ट सहते हुए भी आत्म मर्यादा से विमुख न हुआ। लंकापति के अनेक प्रलोभन उन्हें मर्यादा से डिगा न सके। दमयंती, सावित्री आदि नारियां आत्ममर्यादा के पालन से ही आज सर्वश्रेष्ठ बनी हुई हैं। पुरुषों में राम, युधिष्ठर और भीष्म इसी मर्यादा-पालन के कारण सर्वमान्य हुए।

Updated : 31 Dec 2014 12:00 AM GMT
Next Story
Top