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ज्योतिर्गमय

क्रोध जलाता है

क्रोध अहंकार द्वारा उत्पन्न एक उपद्रवी मनोरोग है। यह हमेशा नुकसानदायक ही सिद्ध होता है। क्रोध का उद्देश्य सामने वाले को अपने रोष, विरोध या पराक्रम का परिचय देकर डराना होता है। भाव यह रहता है कि दबाव देकर उसे वह करने के लिए विवश किया जाए, जो चाहा गया है। किंतु देखा गया है कि यह उद्देश्य कदाचित ही कभी पूरा होता है। क्रोध के समय जिस पर अपना रौद्र रूप प्रकट किया जाता है या जिन असंस्कृत शब्दों का उपयोग किया जाता है, उससे सामने वाले के स्वाभिमान को चोट पहुंचती है। इससे सामने वाला क्षुब्ध होता है और प्रतिशोध लेने, नीचा दिखाने की बात सोचने लगता है।
क्रोध किस कारण किया गया, इसे कोई नहीं देखता। आक्रोश का उन्माद एक प्रकार का आक्रमण है, जिसके कारण पक्ष सही होने पर, कारण का औचित्य रहने पर भी क्रोधी को अपराधी की पंक्ति में खड़ा होना पड़ता है। न्याय पाने का अवसर चला जाता है। स्वभाव और व्यक्तित्व अनगढ़ होने लगे तो समझना चाहिए कि प्रामाणिकता चली गई। ऐसे लोग न दूसरे की सहानुभूति पाते हंै और न सहयोग का लाभ ले पाते हैं। शरीर जलता रहता है, मन उबलता रहता है, सो अलग। प्रतिकूलता को सहन न कर सकना, मतभेद को स्वीकार न करना, जो चाहा गया है वही हो, इस तरह का स्वभाव बना लेने पर क्रोध आने लगता है। क्रोधी को न केवल प्रतिशोध का प्रहार सहना पड़ता है, वरन उत्तेजना के उबाल में ढेरों रक्त जलाना पड़ता है। क्रोध किसी भी कारण से आया हो, उसकी परिणति हानिकारक ही होती है। इससे जितना बचा जा सके, उतना ही अच्छा है।

Updated : 5 Nov 2014 12:00 AM GMT
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