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ज्योतिर्गमय

गृहस्थ भी कर सकते हैं आध्यात्मिक साधना


बहुत से लोग सोचते हैं कि आध्यात्मिक साधना केवल संन्यासी लोग करेंगे, यह बात बिल्कुल गलत है। अध्यात्म मनुष्य को सहज और समरस बनाने का मार्ग है। यह हमें ईश्वर से जोड़ता है। इसके लिए तो कोई भी साधना कर सकता है।
संन्यासी का एक ही कर्तव्य रहता है। लेकिन गृहस्थ के कर्तव्य दोहरे हो जाते हैं, उसे अपने परिवार का भी पालन करना होता है। स्त्री, पुत्र और परिजनों की देखभाल करनी होती है। उन्हें त्याग कर न संन्यासी ही बना जा सकता है और न अध्यात्म की साधना ही की जा सकती है। चुनौती छोड़ कर भागने वाला कायर बन सकता है, लेकिन भला आध्यात्मिक कैसे हो सकता है।
गृहस्थ का दूसरा कर्तव्य यह है कि उसे दूसरों के कल्याण के लिए भी कुछ करना होता है। इस दूसरे कर्तव्य को खूब संभाल कर संतुलित एंगल से करना होता है। मान लो, कोई व्यक्ति महीने में दो हजार रुपये कमाता है। यदि उसमें से वह एक हजार नौ सौ रुपये दान कर दे, तो उसके परिवार की बड़ी दुर्दशा हो जाएगी। हर बात का अभाव होगा और पत्नी से भयंकर लड़ाई होगी।
पत्नी को घर-संसार संभालना पड़ता है, रसोई बनानी पड़ती है, तो वह क्रोधित होगी। इसलिए आध्यात्मिक व्यक्ति को यह सोच कर चलना होगा कि ऐसा कोई काम न हो, जिससे पत्नी को यातना से गुजरना पड़े। यह देखकर चलना होगा कि छोटे परिवार की भी देखभाल हो सके और वृहद परिवार के लिए भी थोड़ा-बहुत जो करणीय है, वह कर सकें। दोनों ओर संतुलन बनाकर चलना पड़ेगा।
शिवजी की एक कथा है। एक दिन शिवजी दोपहर को आकर पार्वती से बोले, भोजन दो। पार्वती ने कहा कि तुम भोजन तो मांग रहे हो, किन्तु घर-गृहस्थी की भी कुछ खबर रखते हो? तुम तो बाहर एक श्मशान से दूसरे श्मशान में घूमते रहते हो। पर घर का दायित्व मेरा है। उसे तो मुझे पूरा करना ही पड़ता है। तुम जानते ही नहीं हो कि आज चूल्हा नहीं जला, हांडी नहीं चढ़ी। आज भोजन नहीं बना, क्योंकि घर में कुछ था ही नहीं न चावल न दाल। इसलिए तुम्हें भोजन नहीं मिल सकेगा।
तब शिव ने कहा, क्या घर में थोड़ा सा अनाज भी नहीं है? पार्वती ने कहा, थोड़ा सा था, जिसे गणेश के चूहे ने जलपान के रूप में खा लिया। तुम तो कुछ देखते नहीं, इसलिए जानते भी नहीं। इसलिए घर में अनाज नहीं है तो इस विषय में पत्नी को दोष देना ठीक नहीं। कारण यह है कि घर के मालिक ने दो हजार में से एक हजार नौ सौ दान कर दिया। इसलिए गृहस्थ को आध्यात्मिक बनना है, तो उसे अपने छोटे और बड़े संसार दोनों में एक संतुलन रखना होगा और उसको संभाल कर चलाना पड़ेगा। यह संतुलन गृही का कर्तव्य है, संन्यासी का नहीं। संन्यासी के पास तो जो कुछ भी आता है, उसे वह बड़ी आसानी से वृहत संसार के लिए दान कर देगा। वह अपना समय भी दान कर सकता है।
संन्यासी की कोई स्थायी संपदा नहीं होती, सब कुछ दान कर देना ही संन्यासी का कर्तव्य है। तो गृहस्थ और संन्यासी के जीवन के ऐसे ही नियम हैं। इसके पहले मैंने कहा था- मनुष्य को सभी अवस्थाओं में, सभी उम्रों में अध्यात्म की साधना करनी होगी। इसी प्रकार से सब लोग अपने कर्तव्य करते जाओ। देखना, यह जो अति साधारण पृथ्वी है, यह जो धूलि की धरणी है, इसी में तुम लोग तथा कथित स्वर्ग को उतार कर ला सकोगे। अन्य किसी स्वर्ग की खोज में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आज से यथार्थ भाव से अपने आध्यात्मिक मानसिक तथा सामाजिक कर्तव्य का पालन करते रहो। 

Updated : 4 Jan 2014 12:00 AM GMT
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