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ज्योतिर्गमय

होश पूर्वक जीने से ही बुद्धत्व का द्वार खुलता है


सजग, सतर्क और सचेत नहीं, जागृत रहो। सपने तुम्हें सच लगें या नींद तुम्हें सुला दे तो तुम फिर कैसे कायम करोगे स्वयं का अस्तित्व। नशा तुम्हें हिला दे तो फिर तुम्हारी कोई ताकत नहीं। विचार तुम्हें कट्टर बना दें या भावनाएं तुम्हें भावुक कर दें तो तुम फिर तुम नहीं इसीलिए जरूरी है संबोधि पथ पर चलना। इसे ही कहते हैं रोशनी के मार्ग पर चलना।
संबोधि शब्द बौद्ध धर्म का है। इसे बुद्धत्व भी कहा जा सकता है। देखा जाए तो यह मोक्ष या मुक्ति की शुरूआत है। होशपूर्वक जीने से ही प्रकाश बढ़ता है और फिर हम प्रकाश रहकर सब कुछ जान और समझ सकते हैं। हम यांत्रिक ढंग से जीते हैं। सोए-सोए जीते हैं, मूर्छा में जीते हैं। विचार भी हमारी बेहोशी का एक हिस्सा हैं।
आंखें झपकती हैं, पता ही नहीं चलता। अंगूठा क्यों हिलाते हैं, इसका भी भान नहीं रहता इसीलिए तो हमारे जीवन में इतना विषाद और संताप है। इस संताप और विषाद को मिटाने के हम जो उपाय करते हैं वे हमें अधिक विषाद में ले जाते हैं क्योंकि वे आत्मविस्मृति के उपाय हैं।
भगवान कृष्ण, महावीर और बुद्ध की वाणी का सार यह है कि चलो तो होशपूर्वक, बैठो तो होशपूर्वक, उठो तो होशपूर्वक, भोजन करो तो होशपूर्वक। जो भी तुम कर रहे हो जीवन की छोटी से छोटी क्रिया उसको भी होशपूर्वक करते चले जाओ। क्रिया में बाधा नहीं पड़ेगी, क्रिया में कुशलता बढ़ेगी और होश भी साथ-साथ विकसित होता चला जाएगा। एक दिन तुम पाओगे सारा जीवन होश का एक दीप-स्तंभ बन गया, तुम्हारे भीतर सब होशपूर्वक हो गया।
होशपूर्वक जीते रहने से ही संबोधि का द्वार खुलता है। यह क्रिया ही सही मायने में स्वयं को पा लेने का माध्यम है, दूसरा और कोई माध्यम नहीं है। सभी ध्यान विधियां इस जागरण को जगाने के उपाय मात्र हैं।


Updated : 22 Jan 2014 12:00 AM GMT
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