Home > Archived > ज्योतिर्गमय

ज्योतिर्गमय

सामाजिक न्याय

सामाजिक न्याय का सिद्धान्त ऐसा अकाट्य तथ्य है कि इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। एक वर्ग के साथ अन्याय होगा तो दूसरा वर्ग कभी भी शान्तिपूर्ण जीवन यापन न कर सकेगा। लोहे की छड़ को एक सिरे पर गरम किया जाए तो उसकी गरमी धीरे-धीरे दूसरे सिरे तक भी पहुंच जाएगी। सारी मनुष्य जाति एक लोहे की छड़ की तरह है. उसको किसी भी स्थान पर गरम-ठंडा किया जाए, दूसरे भागों पर उसका प्रभाव अनिवार्य रूप से पड़ेगा।
सामाजिक न्याय सबको समान रूप से मिले, प्रत्येक मनुष्य मानवोचित अधिकारों का उपयोग दूसरों की ही भांति कर सके, ऐसी स्थिति पैदा किये बिना हमारा समाज शोषणमुक्त नहीं हो सकता। अध्यात्मवाद की शिक्षा सनातन काल से यही रही है। यहां परिग्रह को सदा से पाप माना जाता रहा है. सामान्य जनता के स्तर से बहुत अधिक सुख साधन प्राप्त करना या धन-सम्पत्ति जमा करना सदा से पाप कहा गया है और यही निर्देश किया गया है कि सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से दान करो। अर्थात अगणित बुराइयों को जन्म देने वाली संग्रह वृत्ति को न पनपने दो।
सामाजिक न्याय का तकाजा यह है कि हर व्यक्ति उत्पादन तो भरपूर करे पर उस उपार्जन के लाभ में दूसरों को भी सम्मिलित रखे। सब लोग मिल-जुलकर खायें-जियें और जीने दें। दु:ख और सुख को सब लोग मिल-बांटकर भोगें। यदि सभी लोग इन्हें आपस में मिल-बांट लें, तो समान रूप से प्रसन्न होंगे। जिस प्रकार आर्थिक समता का सिद्धान्त सनातन और शात है, उसी प्रकार सामाजिक समता का मानवीय अधिकारों की समता का आदर्श भी अपरिहार्य है। इसको चुनौती नहीं दे सकते. किसी जाति, वंश या कुल में जन्म लेने के कारण किसी मनुष्य के अधिकार कम नहीं हो सकते और न ऊंचे माने जा सकते हैं. छोटे-बड़े या नीच-ऊंच की कसौटी गुण, कर्म, स्वभाव ही हो सकते हैं।
सबके हित में अपना हित सन्निहित होने की बात जब कही जाती है तो लोग तर्क देते हैं कि व्यक्तिगत हित में भी सबका हित साधन होना चाहिए। यहां सुख और हित का अंतर समझना होगा। सुख केवल मान्यता और अभ्यास के अनुसार अनुभव होता है, जबकि हित शात सिद्धांतों से जुड़ा होता है. हम देर तक सोते रहने में, कुछ भी खाते रहने में सुख का अनुभव तो कर सकते हैं, किंतु हित तो जल्दी उठने, परिश्रमी एवं संयमी बनने से ही सधेगा।

Updated : 7 Jun 2013 12:00 AM GMT
Next Story
Top