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ज्योतिर्गमय

मृत्यु क्या है

श्रीमद्भगवदगीता में दूसरे अध्याय के 22 वें श्लोक में मृत्यु का वर्णन करते हुए कहा गया है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि
अन्यानि संयाति नवानि देही॥
अर्थात् जैसे मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों को त्यागकर अन्य नये कपड़े पहन लेता है, वैसे ही यह शरीरी आत्मा भी जीर्ण शरीरों को छोड़कर अन्य नये शरीरों में प्रवेश कर जाती है।
इस श्लोक के अनुसार मृत्यु का अर्थ हुआ एक शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण कर लेना। तात्पर्य यह कि मृत्यु के साथ मनुष्य का सब कुछ समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि मृत्यु एक नये जीवन में पर्दापण करने का सोपान है। वह दो जीवनों के बीच की अवस्था है, जिसमें से गुजरते हुए जीव नवीन शक्ति और उत्साह प्राप्त करता है। इसका अर्थ यह नहीं कि किसी का वध कर दिया जाय और यह दलील दी जाय कि मारा गया व्यक्ति मृत्यु के द्वारा नवीन उत्साह प्राप्त करेगा। यह तर्क की तौहीनी होगी। यहां तात्पर्य मात्र इतना है कि मनुष्य की स्वाभाविक मृत्यु एक गाढ़ी नींद के समान है, जिसमें से गुजरकर वह तरोताजा अनुभव करता है।
गीता में मृत्यु की प्रक्रिया का संकेत देते हुए कहा गया है कि जीव का इस पंचभौतिक शरीर से निकल जाना ही मृत्यु है। जीव के तीन शरीर माने गये हैं- 1. स्थूल शरीर जो दिखाई देता है 2. सूक्ष्म शरीर जो तन्मात्राओं से, प्राण तथा मन, बुद्धि और सूक्ष्म शक्तियों से बना है, और 3. कारण शरीर, जो संचित वासनात्मक संस्कारों का कोश है। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर एक साथ बने रहते हैं, और दोनों मिलकर मनोयंत्र कहलाते हैं। स्थूल शरीर को देहयंत्र भी कहा जाता है। इन शरीरों के भीतर आत्मा ओत-प्रोत होकर विद्यमान है, जो हमारे भीतर का चैतन्य तत्व है। देहयंत्र और मनोयंत्र दोनों ही जड़, अचेतन है, पर दोनों के जड़त्व में एक अंतर है। देहयंत्र स्थूल जड़ कहलाता है और मनोयंत्र सूक्ष्म जड़ कहलाता है। यह अंतर इसलिए है कि देहयंत्र आत्मचैतन्य को प्रतिफलित नहीं कर पाता, जबकि मनोयंत्र सूक्ष्म जड़ कहलाता है। यह अंतर इसलिए है कि देहयंत्र आत्मचैतन्य को प्रतिफलित नहीं कर पाता, जबकि मनोयंत्र इस आत्मचैतन्य को प्रतिफलित करता है और इस प्रकार अचेतन होता हुआ भी चैतन्यवान सा प्रतीत होता है। जब हम आत्मचैतन्य को मनोयंत्र के साथ युक्त करके देखते हैं, तो उसे जीव कहते हैं। अब विचार करें कि मृत्यु क्या है? जब जीव यानि मनोयंत्र देहयंत्र को छोड़कर निकल जाता है, तो उसे मृत्यु कहते हैं। शरीर निर्जीव होकर पड़ा रहता है। तो क्या आत्मा शरीर को छोड़कर निकल गया? नहीं, आत्मा तो सर्वव्यापी है, अत: वह मुर्दे में भी विद्यमान है। तब यह जीव क्या है, जिसके शरीर को छोड़कर निकल जाने से शरीर मुर्दा बन जाता है। यह जीव है मनोयंत्र, जो आत्मा के चैतन्य को प्रतिफलित कर चेतन मालूम पडता है।
आत्मा का धर्म है चैतन्य और प्राणवत्ता, जैसे अग्नि का धर्म है ताप। पर आत्मा का यह धर्म मनोयंत्र के माध्यम से ही प्रकट होता है। जैसे विद्युत का एक धर्म है प्रकाश, पर यह धर्म तभी प्रकट होता है, जब उसे बल्ब आदि का माध्यम प्राप्त होता है। जहां भी और जिसमें भी इन मनोयंत्र की क्रिया होती है, वहां और उसमें आत्मा के चैतन्य का प्रतिबिम्ब पडऩे के कारण हम उसे जीवन या प्राणयुक्त या चेतन कहकर पुकारते हैं और जहां मन की क्रिया नहीं है, उसमें आत्मा का चैतन्य भी प्रकट नहीं होता, इसलिए हम उसे निर्जीव या प्राणहीन या जड़ कहकर संबोधित करते हैं।
इसके द्वारा अब मृत्यु की प्रक्रिया को समझा जा सकता है। यह शरीर तब तक जीवित रहता है, जब तक उसे भीतर यह मन, यह अन्त:करण, यह सूक्ष्म शरीर या यों कहें, यह मनोयंत्र विद्यमान है, क्योंकि उसी के माध्यम से शरीर में आत्म-चैतन्य की अभिव्यक्ति होती है। जब यह मनोयंत्र इस स्थूल देह से अपनी क्रिया समेटकर बाहर निकल जाता है, तब इसके अभाव में आत्मचैतन्य का प्रतिबिम्बित होना बंद हो जाता है, यानी आत्मा का चैतन्य धर्म अपने को प्रकट करने वाले यंत्र के अभाव में पुन: प्रच्छन्न या आवृत हो जाता है। जैसे बल्ब के भीतर फिलामेंट तन्तु के टूटने पर, विद्युत के रहते हुए भी उसका प्रकाश धर्म छिप जाता है, वैसे ही। ऐसी दशा में आत्मा के होते हुए भी यह देह निर्जीव, प्राणहीन या जड़ कहकर घोषित होता है और यही मृत्यु की अवस्था है।

Updated : 26 Dec 2013 12:00 AM GMT
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