Home > Archived > ज्योतिर्गमय

ज्योतिर्गमय

प्रेम का अनुभव

जिस प्रकार स्वस्थ रहना, सुखी रहना और आनंदित रहना मनुष्य का अपना धर्म है उसी प्रकार प्रेम करना, प्रेम का अनुभव करना और अपने जीवन को प्रेममय बनाना भी मनुष्य का धर्म है। जैसे अप्रेम एक बीमारी है उसी प्रकार अपने स्वभाव धर्म से गिर जाना भी बीमारी का लक्षण है। गहनता से देखें तो इस दुनिया में प्रेम के सिवाय और कुछ है ही नहीं। जब नदी सागर से प्रेम करती हो, भंवरे फूल से प्रेम करते हों, चांद, सूरज, ग्रह, नक्षत्र हम सभी से प्रेम करते हुए हमें जीवनदान देते हैं तो ऐसा मान लेना चाहिए कि प्रकृति में प्रेम के सिवाय और कुछ नहीं है। ईष्र्या, द्वेष, घृणा, हिंसा, क्रोध और लोभ को दुर्गुण माना गया है, जिन पर जीवन में अमल करने पर मनुष्य की स्वाभाविक आकृति विकृत हो जाती है। इसलिए जब कभी हम अ-प्रेम की बात सोचते हैं तो उसमें हमारा अपना स्वरूप नष्ट हो जाता है। हमारा अपना स्वरूप है, प्रेम और शालीनता।
विज्ञान में चेतन मन का महत्व माना गया है, लेकिन प्रेम अचेतन मन को स्वीकार करता है। प्रेम कभी भी टेढ़े-मेढ़े रास्ते से नहीं चलता। प्रेम है तो है। इसलिए प्रेम की परिभाषा नहीं होती। जिस दिन मनुष्य सरल बन जाएगा उसे प्रेम करना आ जाएगा। सच कहें तो मनुष्य स्वयं ही सरल बनकर जीना चाहता है। विकृतिपूर्ण जीवन किसी को भी पसंद नहीं है, लेकिन हमारे चारों ओर जो भी परिस्थितियां बनती हैं उनसे हम प्रभावित होते हैं अप्रेम और घृणा की भाषा बोलने लगते हैं। इसमें केवल हमारा दोष है। दूसरे सभी लोग कहते हैं, सबसे प्यार करो। यह कोई नहीं कहता कि पहले स्वयं से प्यार करना सीखो, पहले स्वयं पर प्रयोग करो, तुम्हें प्रेम करना आ जाएगा। अभी तुम प्रेम करने की विधि भूल चुके हो और कहीं-न-कहीं तुम स्वयं को भूल चुके हो। इसलिए पहले स्वयं से प्यार करो, तुम्हारा यही प्रेम बहकर चारों ओर फैल जाएगा। इसे बहने दो। जो लोग प्रेम के महत्व से परिचित हैं वे अपने जीवन में निराशा के हर दौर से उबर जाते हैं। उनके लिए विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी उम्मीद की किरण सदैव विद्यमान रहती है, क्योंकि उनके मन-मस्तिष्क में सकारात्मकता का जो भाव रहता है वह उन्हें कभी पराजित नहीं होने देता। 

Updated : 22 Nov 2013 12:00 AM GMT
Next Story
Top