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ज्योतिर्गमय

वेद और भगवान का अंतरसंबंध


परमेश्वर परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और उन्हीं के कारण सारे कर्म प्रेरित होते हैं। जीव अपने विगत जीवन की सारी बातें भूल जाता है लेकिन उसे परमेश्वर के निर्देशानुसार कार्य करना होता है, जो उसके सारे कर्मो के साक्षी हैं। अत: वह अपने विगत कर्मों के अनुसार कार्य करना प्रारम्भ करता है। इसके लिए आवश्यक ज्ञान तथा स्मृति उसे प्रदान की जाती है। भगवान न केवल सर्वव्यापी हैं अपितु अंतर्यामी भी हैं। वह विभिन्न कर्मफल प्रदान करने वाले हैं। वह न केवल निराकार ब्रह्म अंतर्यामी परमात्मा के रूप में पूजनीय हैं अपितु वेदों के अवतार के रूप में भी पूजनीय हैं। वे लोगों को सही दिशा बताते हैं जिससे वे समुचित ढंग से अपना जीवन ढाल सकें और भगवान के धाम को वापस जा सकें। भगवान इतने पूर्ण हैं कि बद्धजीवों के उद्धार हेतु उसके अन्न के प्रदाता एवं पाचक हैं। उसके कार्य कलापों के साक्षी हैं तथा वेदों के रूप में ज्ञान के प्रदाता हैं। जीव ज्यों ही शरीर को छोड़ता है, इसे भूल जाता है लेकिन परमात्मा द्वारा प्रेरित होने पर फिर से काम करने लगता है। यद्यपि जीव भूल जाता है लेकिन भगवान उसे बुद्धि प्रदान करते हैं। जिससे वह अपने पूर्वजन्म के अपूर्ण कार्य फिर से करने लगता है. अतएव जीव अपने हृदय में स्थित परमेश्वर के आदेशानुसार इस जगत में दु:ख या सुख का केवल भोग ही नहीं करता है, अपितु उनसे वेद समझने का अवसर भी प्राप्त करता है।
यदि कोई ठीक से वैदिक ज्ञान पाना चाहे तो कृष्ण उसे आवश्यक बुद्धि प्रदान करते हैं। वेदों का उद्देश्य कृष्ण को समझना है। वेद हमें निर्देश देते हैं जिससे कृष्ण को जाना जा सकता है और उसकी अनुभूति की जा सकती है। भगवान ही चरम लक्ष्य हैं. वैदिक साहित्य के ज्ञान से भगवान के साथ अपने संबंध को समझा जा सकता है। विभिन्न विधियों को संपन्न करके उन तक पहुंचा जा सकता है।


Updated : 1 Oct 2012 12:00 AM GMT
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