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कोविशील्ड बहाना है भारत में दवा बेचने आना है……

एंटीडोट्स औऱ 2 लाख करोड़ का दवा कारोबार

कोविशील्ड बहाना है भारत में दवा बेचने आना है……
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वेबडेस्क। लोकसभा चुनावों के दौरान इंडी गठबंधन के लगभग सभी बड़े नेता अपने भाषणों में कोविशील्ड वैक्सीन का मुद्दा उठा रहे हैं।अखिलेश यादव तो हर सभा मे कह रहे है उन्होंने वैक्सीन नही लगवाई क्योंकि वह गड़बड़ थी।सोशल मीडिया पर ऐसे संदेशों की बाढ़ आई हुई है जो भारत की स्वदेशी कोरोना वैक्सीन की गुणवत्ता और इसके साइड इफ़ेक्ट को लेकर मोदी सरकार को लांछित कर रहे हैं।असल में कोविशील्ड को लेकर यह एक वैश्विक राजनीतिक प्रोपेगैंडा है जिसमें भारत की विपक्षी राजनीतिक पार्टियां, इंटरनेशनल फार्मा लॉबी,औऱ भारत विरोधी विदेशी सरकारें एवं कुछ बड़े देशी-विदेशी एनजीओ शामिल हैं।

इस बात को समझना होगा कि कोरोना के सभी वैश्विक अनुमानों को भारत ने झूठा साबित कर दिया था।वैक्सीन के मामले में भी भारत ने फाइजर,मॉडर्न,स्पुतनिक जैसे बड़ी कम्पनियों के दबाब को दरकिनार कर स्वदेशी वैक्सीन का निर्माण यूके के एस्ट्रोजेनिक के साथ किया और 400 करोड़ डोज भारत सहित पूरी दुनिया को लगाने का काम किया।महत्वपूर्ण बात यही है कि फाइजर जैसी कम्पनियों के मंसूबे भारत मे परवान नही चढ़ पाए क्योंकि मोदी सरकार ने स्वदेशी वैक्सीन को प्राथमिकता दी।इन कम्पनियों को लगता था कि 140 करोड़ भारतीयों के बाजार में मनचाही कीमत पर वैक्सीन बेचकर अरबों का मुनाफा कमाया जाएगा।लेकिन मोदी सरकार ने ऐसा नही होने दिया।

अब इन्ही कम्पनियों के दबाब समूह पूर्वाग्रही रिसर्च के नाम पर भारतीय वैक्सीन के साइड इफेक्ट्स को लेकर एक भय का वातावरण भारत मे खड़ा कर रहे है ताकि "एंटीडोट्स"के नाम पर 140 करोड़ खुराक भारत में बेची जा सके।इसके लिए लोकसभा चुनाव से बेहतर वातावरण निर्माण का कोई अवसर नही हो सकता था और जिस सीरम इंस्टीट्यूट ने इसे बनाया था उसने भाजपा को 50 करोड़ का चंदा भी दिया है इसलिए भी राजनीतिक दलों के लिए इस मुद्दे का राजनीतिकरण करने का बढ़िया मौका मिल गया है।

देश को समझना होगा कि कुछ बड़ी दवा कंपनी पहले वातावरण बनायेगी कि भारत की वैक्सीन से लोगों को हार्ट अटैक या दूसरी बीमारी हो रही है ,फिर इसके लिए एंटीडोट्स यानी एक तरह का टीका ईजाद किया जाएगा।लासेन्ट जैसे जर्नल में इसकी प्रमाणिकता के रिसर्च पेपर छापे जायेंगे।अंततः भारत की सरकार को देशव्यापी टीकाकरण के लिए दवा खरीदने को बाध्य किया जाएगा।कोविशिल्ड को लेकर यह दुष्प्रचार इसी वैश्विक षड्यंत्र का हिस्सा है,जिसे दुर्भाग्य से विपक्षी दल भी सच्चाई जानते हुए भी हवा दे रहे हैं।

कोविशील्ड के बहाने सरकार की घेराबंदी

एलोपैथी में शायद ही कोई ऐसी दवाई होगी, जिसके साइड इफैक्ट न हों। ये साइड इफैक्ट दवाई के ऊपर लिखे भी रहते हैं। फिर भी डॉक्टर उन्हें लेने की सलाह देते हैं, बीमारी के समाधान के लिए हम उन्हें लेते भी हैं। उदाहरण के लिए डायबिटीज आज एक सामान्य बीमारी है। डॉक्टर इसके इलाज के लिए मेटफॉर्मिन लेने की सलाह देते हैं। इस मेटफॉर्मिन के गंभीर दुष्प्रभाव हो सकते हैं। जिनमें लैक्टिक एसिडोसिस शामिल है। इस जोखिम के बारे में मेटफॉर्मिन में एक बॉक्स्ड चेतावनी है – जिसे ब्लैक बॉक्स चेतावनी भी कहा जाता है। बॉक्स में बंद चेतावनी एफडीए द्वारा जारी की जाने वाली सबसे गंभीर चेतावनी है। लेकिन यह दुष्प्रभाव दुर्लभ है, इसलिए यह दवाई ली जाती है। इसी प्रकार अनेक दर्द निवारक व रक्त पतला करने वाली दवाएं हैं, जिनके संभावित दुष्प्रभाव काफी गम्भीर हैं। इन दुष्प्रभावों में हल्की खुजली और दाने से लेकर जीवन-घातक एनाफिलेक्टिक प्रतिक्रिया तक शामिल हैं। फिर भी ये ली जाती हैं।ऐसे में कोविशील्ड पर प्रश्नचिन्ह किसी षड्यंत्र का ही हिस्सा लगता है। कोविशील्ड वैक्सीन बनाने वाली कंपनी एस्ट्राजेनेका ने यूके के कोर्ट में दिए गए बयान में माना है कि इस वैक्सीन से शरीर के किसी हिस्से में खून जमाने वाला ‘रेयर साइड इफेक्ट’ हो सकता है। रेयर मतलब ? एक लाख में कोई एक।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2020 में 28,579 लोगों की हृदयाघात से मौत हुई। 2021 में यह संख्या 28,413 थी, लेकिन 2022 में यह आंकड़ा बढ़कर 32,457 हो गया। यानि वर्ष 2021 की तुलना में 4044 अधिक लोग हृदयाघात के शिकार हुए। अब कोरोना महामारी का दौर याद करिए, जब दूसरी लहर में महामारी अपने चरम पर थी, प्रतिदिन हजारों लोग मर रहे थे। जीवन बचाने के लिए 1 अरब 70 करोड़ डोज भारत में लगाई गईं। कोरोना महामारी पहली बार फैली थी, कोविशील्ड भी नई नई थी। सरकार की इसके दुष्प्रभावों पर पूरी नजर थी। इसीलिए टीकाकरण के बाद टीका लगवाने वालों को आधे घंटे बिठाया जाता था और जाने के बाद फॉलो अप भी किया जाता था, यदि किसी को कोई परेशानी हुई तो एप पर इसकी जानकारी डाली गई। एप के अनुसार साइड इफैक्ट्स (हृदयाघात, थक्का जमना आदि) के 0.007 प्रतिशत मामले सामने आए, जो कि महामारी से मरने वालों की तुलना में नगण्य हैं।

लेकिन फिर भी जब हृदयाघात के मामले बढ़े, तब भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) ने देशभर में एक सर्वे किया। जिसकी रिपोर्ट आइसीएमआर के जर्नल में प्रकाशित हुई। सर्वे में यह बात सामने आई कि कोरोना से ठीक होने वाले लोगों को एक वर्ष तक हैवी वर्कआउट अचानक से नहीं करना चाहिए (ट्रेडमिल पर दौड़ना, देर तक नाचना, भारी वजन उठाना आदि)। ऐसे लोगों को हृदयाघात का खतरा अधिक है। साथ ही यह बात भी सामने आई कि कोरोना वैक्सीन से इसका कोई लेना देना नहीं है। इस सर्वे में एसएनएमएमसीएच धनबाद के चार चिकित्सक डा. ऋषभ कुमार राणा, डा.यूके ओझा, डा. रवि रंजन झा, डा. रवि भूषण शामिल थे। सर्वे के लिए देश भर से 18 से 45 वर्ष के लोगों के तीन हजार से अधिक सैंपल लिए गए।सर्वे में शामिल डा. ऋषभ राणा ने कहा कि भारत में कोरोना टीकाकरण ने लोगों की जान बचाई है। टीकाकरण के बाद भी कोविड की लहर आई, लेकिन टीकाकरण ने इसे गंभीर नहीं होने दिया।

ऐसे में अब यदि प्रोपेगेंडा की बात करें तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत में चुनाव चल रहे हैं। और ये चुनाव राजनीतिक पार्टियों के बीच नहीं बल्कि उनके पीछे खड़ी शक्तियों के बीच लड़े जा रहे हैं। विदेशी, मजहबी और वामपंथी शक्तियां एक जुट हैं। वे अपने तरकश का कोई भी तीर बाकी नहीं रखना चाहतीं। अडानी, अम्बानी पर सरकार को घेरने के बाद बाबा रामदेव, एवरेस्ट व एमडीएच मसाले और अब कोविशील्ड के बहाने भारतीय कम्पनियां इनके निशाने पर हैं। लोगों के स्वास्थ्य के बहाने सरकार को घेरने के प्रयास हो रहे हैं। उल्लेखनीय है एस्ट्राज़ेनेका से लाइसेंस के बाद कोविशील्ड को भारत में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा बनाया गया है।

कांग्रेस के नेता चाहते थे फाइजर के टीके लगें--

इस मामले को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना चाहिए जब इलेक्ट्रॉनिक्स व टेक्नोलॉजी राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने कांग्रेस नेताओं पर विदेशी दवा कंपनी की पैरवी का आरोप भी लगाया था। उनका कहना था कि राहुल गांधी, पी. चिदंबरम व जयराम रमेश कोविड काल में विदेशी टीके के लिए सरकार पर दबाव बनाया था । ध्यान देना होगा कि कोरोना महामारी के पहले दौर में फाइजर ने अपना टीका भारत को बेचने का प्रस्ताव दिया था। कंपनी ने 2021 में एमआरएनए आधारित टीका विकसित करने की घोषणा की थी। इस दौरान कंपनी ने केंद्र सरकार से क्षतिपूर्ति शर्त से छूट देने की मांग की थी। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने इस मांग को मानने से इन्कार कर दिया था।

सिर्फ लाभ कमाने के चक्कर में थी कंपनी

क्षतिपूर्ति शर्त के तहत यदि किसी दवा या टीके का विपरीत प्रभाव होता है, तो उत्पादक कंपनी को जवाबदेही लेनी होती है। फाइजर टीके से लाभ तो कमाना चाहती थी, लेकिन जवाबदेही नहीं लेना चाहती थी।कांग्रेस नेता चिदंबरम ने 27 दिसंबर 2021 को ट्वीट किया, भारत में सिर्फ तीन टीके हैं-कोविशील्ड, कोवाक्सिन व स्पूतनिक। मोदी सरकार के संरक्षणवादी नीति के कारण फाइजर, मॉडर्ना के टीके भारत से बाहर हैं।इस ट्वीट के सहारे मोदी सरकार पर विदेशी कम्पनियों के लिए दबाब बनाया था।

-क्या कहते है एक्सपर्ट्स-

फाइजर की वैक्सीन भारत के परिवेश में सूट नहीं करती"

एम्स के पूर्व निदेशक डॉ एम सी मिश्रा ने उस समय स्पष्ट रूप से कहा था कि फाइजर की वैक्सीन भारत के लिए अच्छी नहीं है. उनके मुताबिक इसका कोल्ड चेन मेंटेंस और दाम दोनों भारत के लिहाज से ठीक नहीं थे। एम सी मिश्रा आज भी कहते है कि 'कार मर्सिडीज भी है ऑडी भी है रोल्स रॉयस भी, मारुति भी और बाकी छोटी कार भी है. तो अगर में बड़ी गाड़ी नहीं खरीद सकता तो छोटी गाड़ी लेगा।कुछ ऐसा ही मानना था एम्स के कम्युनिटी मेडिसिन के डॉ पुनीत मिश्रा का "फाइजर एमआरएनए वैक्सीन थी जिसके बारे में ज्यादा जानकारी उस समय उपलब्ध नहीं थी। इस विदेशी वैक्सीन को -70 डिग्री में रखने की जरूरत होती थी। भारत के दूरदराज इलाकों में जिस तरह की सुविधा थी उसे सरकार ने समझने के बाद ही स्वदेशी टीकों को अपनाया था।

ड्रैगन से मोहभंग, भारतीय फार्मा सेक्टर दिखा रहे दम

इस पूरे विवाद की जड़ में हमें चीन के एंगल को भी नही भूलना चाहिए क्योंकि कोरोना मूलतः चीनी वायरस ही था ।ताजा विवाद की जड़ में चीनी लॉबी का हाथ भी संभव है जो भारत के स्वदेशी फार्मा सेक्टर से चिड़ा बैठा है।चीन की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था का हाल अब खुलकर सामने आ गया है। कभी दुनिया की फैक्ट्री कहलाने वाला चीन अब अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने की कोशिशों में जुटा है। चीन की घट रही जीडीपी उसकी मुश्किलों को बढ़ा रही है। वर्ल्ड ऑफ स्टेटिस्टिक्स ने चीन के अनुमानित जीडीपी ग्रोथ को घटाकर 5 फीसदी कर दिया है। अब चीन का फार्मा सेक्टर भी मुश्किलों में घिरता दिख रहा है। बड़ी दवा कंपनियों का चीन से मोह भंग हो रहा है। खासकर अमेरिका के साथ चीन को दुश्मनी भारी पड़ने लगी है।

चीन से मोह भंग

दवा बनाने वाली कंपनियों का चीन से मोह भंग हो रहा है। फार्मा कंपनियां चीन पर अपनी निर्भरता को कम करने की कोशिश कर रही है। ड्रगमेकर्स चीनी कॉन्ट्रैक्टर्स पर अपनी निर्भरता को घटाने की कोशिश कर रहे हैं। आपको बता दें कि फार्मा कंपनियों के लिए चीनी कॉन्ट्रैक्टर क्लीनिकल ट्रायल्स और प्रारंभिक चरण के निर्माण में इस्तेमाल होने वाली दवाओं का उत्पादन करते हैं। अब फार्मा कंपनियां चीनी कॉन्ट्रैक्टर पर अपनी निर्भरता को कम करने लगी हैं। कम लागत और तेज रफ्तार के कारण चीन फार्मास्युटिकल रिसर्च और मैन्युफैक्चरिंग के लिए दवा कंपनियों का पसंदीदा जगह हुआ करता था, लेकिन चीन के सख्त रवैये और अमेरिका के साथ बढ़ते ट्रेड वॉर के बाद से फार्मा कंपनियां चीन से दूरी बढ़ाने लगी है।

भारत के लिए मौका

चीन से बढ़ती दूरी भारत के लिए अवसर से कम नहीं है। बायोटेक कंपनियां क्लिनिकल ट्रायल, रिसर्च और आउटसोर्स के लिए भारतीय मैन्युफैक्टरिंग कंपनियों के साथ काम करने पर विचार कर रही है। बायोटेक कंपनियां चीन से दूरी बनाने लगी है। डायबिटीज और मोटापे के उपचार के लिए दवा बनाने वाली फार्मा कंपनी ग्लाइसेंड थेरेप्यूटिक्स के फाउंडर आषीन निमगांवकर की माने तो ऐसे कई फैक्टर्स हैं, जिसने चीन को बायोटेक कंपनियों के लिए कम आकर्षक बना दिया है। कंपनियां चीन ते बजाए भारतीय कंपनियों के साथ काम करने में रुचि दिखा रही है। चीनी कंपनियों के मुकाबले भारतीय कंपनियों को प्राथमिकता दी जा रही है। भारतीय कॉन्ट्रैक्ट डेवलपमेंट एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑर्गेनाइजेशन को प्राथमिकता मिल रही है। भारत के चार प्रमुख सीडीएमओ सिनजीन, एराजेन लाइफ साइंसेज, पीरामल फार्मा सॉल्यूशंस, साई लाइफ साइंसेज के मुताबिक उन्हें बायोटेक कंपनियों खासकर पश्चिमी फार्मा कंपनियों की ओर से अधिक इंटरेस्ट देखने को मिल रहा है।

भारत को दुनिया की फार्मेसी क्यों कहा जाता है?

भारत का दुनिया भर में सबसे सस्ती कीमत पर जीवनरक्षक दवाओं का नवाचार और वितरण करने में एक लंबा और विशिष्ट इतिहास रहा है।कोविड महामारी के दौरान भी भारत ने महत्वपूर्ण दवाओं को दुनिया के कई हिस्सों में वितरित किया।अफ्रीका के गरीब देशों में भारतीय दवा कंपनियों द्वारा निभाई जाने वाली जीवन रक्षक भूमिका फार्मास्युटिकल क्षेत्र में भारत की वैश्विक सफलता की कहानियों में से एक है। साल 2001 में अफ्रीका एक बड़े स्वास्थ्य संकट का सामना कर रहा था। उप-सहारा अफ्रीका में 22.5 मिलियन एचआईवी पॉजिटिव लोग थे। पश्चिमी दवा कंपनियों द्वारा प्रदत्त पेटेंट दवाओं की कीमत प्रति वर्ष प्रति मरीज 10,000 डॉलर थी, जो औसत मरीज की पहुंच से बहुत दूर थी।

साल 2003 में भारतीय दवा कंपनी सिप्ला ने वही दवा 400 डॉलर प्रति वर्ष प्रति मरीज की कीमत पर उपल्ब्ध करानी शुरू की। सिप्ला की बदौलत साल 2003 से साल 2008 तक अफ्रीका में एचआईवी पॉजिटिव लोगों की संख्या 18 गुना कम हो गई थी। सिप्ला के बाद कई अन्य भारतीय जेनेरिक दवा कंपनियों ने अफ्रीका में हजारों लोगों की जान बचाई। बता दें कि भारत में जेनेरिक ड्रग्स बनाने पर कोई भी पाबंदी नहीं है।

एक अनुमान के अनुसार, अफ्रीका हर साल लाखों एड्स रोगियों के इलाज पर लगभग 2 बिलियन डॉलर खर्च करता है। यूएनएड्स के कार्यकारी निदेशक मिशेल सिदीबे के अनुसार कहा, "अगर भारत नहीं होता, तो हम इस मर्ज का उपचार 2 बिलियन डॉलर में नहीं कर सकते थे।" एक अनुमान के अनुसार इसके उपचार की लागत तकरीबन 150 बिलियन डॉलर के करीब होती।

इसके अलावा भारतीय कंपनियां अफ्रीका में मलेरिया और टी.बी. की दवाओं की सबसे बड़ी आपूर्तिकर्ता भी हैं और अमेरिका और यूरोपीय देशों के मुकाबले सस्ती दवाईयां प्रदान करती हैं। भारत ने 2015 में अफ्रीका में लगभग 4 बिलियन डॉलर के फार्मास्युटिकल उत्पादों का निर्यात किया। अफ्रीकी जेनरिक दवा बाजार प्रति वर्ष 25-30 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है और यह काफी हद तक आयात पर निर्भर है।

इतना ही नहीं, साल 2012 तक दुनिया के133 देशों में भारतीय दवाइयां पहुंचने लगी थीं जो बाकी देशों के मुकाबले सस्ती थीं और गुणवत्ता में भी कोई कमी नहीं थी। अत: भारत को "दुनिया की फार्मेसी" कहा जाने लगा।

रसायन और उर्वरक मंत्री डी. वी. सदानंद गौड़ा के अनुसार, "भारत के फार्मा क्षेत्र की क्षमता बहुत अधिक है। बढ़ती जनसंख्या, समृद्धि और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता इस क्षेत्र में आगे निवेश करने के लिए एक बहुत अच्छा प्रोत्साहन प्रदान करती है। यदि इन अवसरों को ठीक से भुनाया जाए, तो भारतीय फार्मा उद्योग का बाजार साल 2025 तक 100 बिलियन डॉलर से अधिक तक पहुंच सकता है, जबकि मेडिकल डिवाइसेस उद्योग 2025 तक 50 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है।"

  • 1- सक्रिय दवा सामग्री / थोक ड्रग्स जो दवाइयों के निर्माण के लिए आवश्यक हैं वो ज्यादातर उभरते और विकसित देशों से आयात किए जाते हैं। वैश्विक बाजार की बात की जाए तो एपीआई बाजार में भारत की हिस्सेदारी लगभग 8 प्रतिशत है। एपीआई विकास और विनिर्माण या रणनीतिक सोर्सिंग साझेदारी भारत के फार्मास्यूटिकल उद्योग की सफलता के लिए आवश्यक है।
  • 2- जेनेरिक दवाओं का निर्यात साल 2018-19 में 14.4 बिलियन डॉलर रहा। भारत घरेलू और वैश्विक बाजारों के लिए विभिन्न महत्वपूर्ण, उच्च गुणवत्ता और कम लागत वाली दवाओं के निर्माण में एक भौतिक भूमिका निभाता है। यह कई टीकों (एआरवी सहित) के लिए वैश्विक मांग की 50-60 प्रतिशत की आपूर्ति करता है। पिछले 5 वर्षों में, स्वीकृत कुल नई दवा अनुप्रयोगों का 35-38 प्रतिशत भारतीय साइटों द्वारा किया गया है।
  • 3- वैश्विक वैक्सीन उत्पादन में भारत का 60 प्रतिशत योगदान है, जिसमें डब्ल्यूएचओ की 40-70 प्रतिशत डिफ्थीरिया, टेटनस और पर्टुसिस (डीपीटी) और बैसिलस कैलमेट-गुएरिन (बीसीजी) टीके की मांग है, और डब्ल्यूएचओ 90 प्रतिशत खसरा के टीके की मांग करता हैं।
  • 4- यूएसए के बाहर भारत में यूएस-एफडीए आज्ञाकारी फार्मा प्लांट (एपीआई सहित 262 से अधिक) की सबसे बड़ी संख्या है। हमारे पास लगभग 1400 डब्ल्यू एच ओ- स्वीकृत फार्मा प्लांट्स हैं, 253 यूरोपियन डायरेक्टरेट ऑफ क्वालिटी मेडिसिन के आधुनिक तकनीक वाले आधुनिक प्लांट हैं।
  • 5100 से अधिक भारतीय बायोफार्मास्युटिकल कंपनियां हैं जो बायोसिमिलर्स के निर्माण और विपणन में लगी हैं। बायोसिमिलर उत्पादों के लिए एक अवसर पैदा करते हुए, कई जैविक दवाओं को बंद पेटेंट के लिए जाने की उम्मीद है।

फार्मास्युटिकल क्षेत्र से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

  • 1- भारत मूल्य के मामले में विश्व स्तर पर 14 वें और आकार के मामले में तीसरे स्थान पर है। इसके पीछे की वजह अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भारतीय दवा उत्पादों की बढ़ती मांग और उनकी कम लागत है।
  • 2- भारत की उत्पादन लागत अमेरिका की तुलना में लगभग 33 प्रतिशत कम है और श्रम लागत पश्चिमी देशों की तुलना में 50-55% कम है।
  • 3- चीन के बाद भारत दुनिया में फार्मा और बायोटेक पेशेवरों का दूसरा सबसे बड़ा प्रदाता है। अन्य प्रमुख देशों में अमेरिका और ब्राजील शामिल हैं।
  • 4- आपको जानकर हैरानी होगी की दुनियाभर में इस्तेमाल की जाने वाली हर दूसरी वैक्सीन भारत में बनाई जाती है।
  • 5- पिछले 50 वर्षों से, भारतीय फार्मास्युटिकल न केवल अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करने में सफल रहा है, बल्कि वैश्विक फार्मास्युटिकल के परिदृश्य में एक अग्रणी स्थान हासिल करने में भी सफल रहा है। सन् 1969 में फार्मास्युटिकल का भारतीय बाजार में 5 प्रतिशत हिस्सा था और वैश्विक बाजार में 95 प्रतिशत हिस्सा था। वहीं साल 2020 की बात की जाए तो फार्मास्युटिकल का भारतीय बाजार में 85 प्रतिशत हिस्सा और वैश्विक बाजार में 15 प्रतिशत हिस्सा था।
  • 6- भारतीय फार्मास्युटिकल उद्योग 2030 तक दुनिया का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बनने की इच्छा रखता है और इसका लक्ष्य 11-12 प्रतिशत के चक्रवृद्धि वार्षिक विकास दर में 41 बिलियन के वर्तमान राजस्व से साल 2030 तक 120 -130 बिलियन तक राजस्व को बढ़ाना है।

कोविड महामारी का भारतीय अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों पर एक सांकेतिक प्रभाव पड़ा है। लॉकडाउन के दौरान प्रतिबंधित कनेक्टिविटी के कारण, आपूर्ति-श्रृंखला, आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान और हस्तांतरण, लोगों की आवाजाही और विभिन्न वस्तुओं के वितरण सभी प्रभावित हुए हैं।

इसके बावजूद भारत ने कई विकसित और विकासशील देशों जैसे यूएस, यूके, अफ्रीका, रूस, नेपाल, बांग्लादेश आदि को दवाइयां निर्यात की । भारत में कई फार्मास्युटिकल कंपनियों ने कोविड का मुकाबला करने के लिए इन राष्ट्रों को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन जैसी आवश्यक दवाओं की आपूर्ति बढ़ाने की संभावना जताई है।

महामारी के बाद सुलभ चिकित्सा की मांग बढ़ने की संभावना है क्योंकि जलवायु परिवर्तन और अन्य पर्यावरणीय मुद्दे स्वास्थ्य चिंताओं को ट्रिगर करते हैं, और दुनिया के बड़े हिस्से में एक बढ़ती आबादी को सक्रिय चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता होती है। भारत में दुनिया भर में औषधीय सहायता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की संभावना है, विशेष रूप से जहां सस्ती स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकता है। पहले से ही दुनिया के सबसे बड़े दवा बनाने वाले देशों में से एक है, भारत स्वास्थ्य सेवा निर्माण और वितरण को और बेहतर बनाने के लिए नीतिगत प्रोत्साहन पर जोर दे रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दृष्टिकोण न केवल एक स्वस्थ भारत बल्कि एक स्वस्थ दुनिया की परिकल्पना करता है और भारत को एक वैश्विक देखभालकर्ता के रूप में देखता है।

Updated : 5 May 2024 5:08 PM GMT
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