अंतिम भाग / पितृपक्ष विशेष : जीवन को रसमय किया भरत मुनि ने
महिमा तारे
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आज श्राद्ध पक्ष पर विशेष श्रंखला का यह अंतिम तर्पण है, अंतिम पुष्प है। भारतीय मनीषा ज्ञान, विज्ञान ,अध्यात्म में तो समृद्ध है ही वह कला क्षेत्र में भी उतनी ही समृद्ध है यह भरत मुनि को पढऩे के बाद ध्यान में आता है। नाट्य कला के जितने भी विद्वान हुए है चाहे वह पूर्व के हों या पश्चिम के भरत मुनि के नाट्य शास्त्र को आधार मानते हैं। हम कह सकते हैं जीवन को रसमय बनाने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। जिन्होंने नीरसता को दूर करने और उसमें मनोरंजन लाने के लिए नाट्य शास्त्र की रचना की। नाट्य शास्त्र संगीत, नाटक और अभिनय का विश्व कोश है। नाट्य संबंधी नियमों की संहिता का नाम ही नाट्यशास्त्र है।
इस नाट्य शास्त्र में 6000 श्लोक हैं। इसे दो भागों में बांटा गया है। पहले भाग में &7 अध्याय हैं और दूसरे भाग में &6 अध्याय रखे गए हैं। इन अध्यायों में नाटक की उत्पत्ति नृत्य, भाव, अभिनय, 64 हस्त मुद्राओं, मंच प्रवेश आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। नाट्य शास्त्र में मंच पर जाने वाले कलाकार के श्रृंगार के लिए भी विस्तृत दिशा निर्देश दिए गए हैं। मंच पर अभिनय करने वाला राजा हो, रानी हो, नौकर हो किस तरह के गहने, हथियार, कपड़े पहनेगा। भरतमुनि के अनुसार नाटक की सफलता इन सबके सम्यक सहयोग पर निर्भर करती है। भरत मुनि द्वारा प्रथम नाटक का अभिनय 'देवासुर संग्रामÓ था, जो देवों की विजय के बाद इंद्र की सभा में रचा गया था।
भरत मुनि ने रस सिद्धांत भी दिया। किसी काव्य, साहित्य को पढ़ते वक्त या किसी दृश्य को देखते हुए जो अदृश्य अनुभूति होती है। उसे उन्होंने रस कहा। भरतमुनि के अनुसार नाटक का मुख्य उद्देश्य रस निष्पत्ति हैं। उन्होंने मनुष्य के मन में स्थित 8 भावों और उससे संबंधित 8 रसों की विस्तृत विवेचना की है। साथ ही 8 रसों के रंग और उससे संबंधित देवताओं की चर्चा भी अपने रस सिद्धांत में की है। जैसे रौद्र रस का देवता शिव और रंग लाल बताया गया है। साथ ही && मानवीय सूक्ष्म भावों का भी वर्णन रस सिद्धांत में किया गया है। इस नाट्य शास्त्र में उन्होंने दर्शकों की प्रतिक्रिया के लिए भी कुछ दिशा निर्देश दिए हैं। उनका मानना है कि किसी भी मनोरंजनात्मक कला के लिए दर्शकों की प्रतिक्रिया अति आवश्यक हैं। इसमें उन्होंने दर्शकों के लिए जोर से हंसना, ताली बजाकर कलाकारों का हौसला बढ़ाना मान्य किया है। साथ ही दर्शक दीर्घा मंच से कितनी दूर होगी, इसका भी वर्णन किया गया है।
ब्रह्मा द्वारा चार वेदों की रचना की गई, पर यह चारों वेद महिलाएं और निम्न श्रेणी के लोग नहीं पढ़ सकते थे। यह भारतीय संस्कृति में कहीं कहा नहीं गया है, पर यह मान्यता भी अनावश्यक स्थापित करने का दुष्चक्र चला और कहा गया इसलिए ब्रह्मा ने पांचवा वेद नाट्य वेद की रचना की। जिसे महिलाएं पढ़ सकती थी। इस नाट्य वेद को उन्होंने इंद्र को दिया इंद्र ने इसके प्रचार-प्रसार के लिए भरतमुनि को दिया। भरत मुनि के सौ शिष्यों द्वारा संपूर्ण विश्व में नाट्य शास्त्र का प्रचार प्रसार किया गया।
भरत मुनि का समय ईसा से 200 वर्ष पूर्व बताया गया है। भारतीय ज्ञान परम्परा की समृद्धि का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। खासकर उनको यह काल ध्यान से देखना चाहिए, जो हमें यह कहते हैं कि नाट्य की परिकल्पना पश्चिम से आई है।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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