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मोदी के मन की बात, 108 का रहस्‍य और भारतीय ज्ञान परंपरा

मन की बात का 108 वां एपीसोड और भारतीय ज्ञान परंपरा

मोदी के मन की बात, 108 का रहस्‍य और भारतीय ज्ञान परंपरा
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स्वदेश वेबडेस्क। भारतीय ज्ञान की सनातन परंपरा में कुछ भी यूं ही नहीं है! कुछ भी होने के पीछे कोई गहन अर्थ विद्यमान है। जब गहराई से विचार करते हैं तब उसके जितने अर्थ प्रकाशित होते हैं, वे निश्‍चित ही हम सभी को चमत्‍कृत कर देते हैं। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात का 108 वां एपीसोड था। अपनी बातचीत की शुरूआत पीएम मोदी 108 के महत्‍व को भारतीयता के संदर्भ में समझाते हुए कुछ यूं करते हैं, '' आज तो, हमारी साझा यात्रा का ये 108वाँ एपिसोड है। हमारे यहाँ 108 अंक का महत्व, उसकी पवित्रता, एक गहन अध्ययन का विषय है। माला में 108 मनके, 108 बार जप, 108 दिव्य क्षेत्र, मंदिरों में 108 सीढ़ियाँ, 108 घंटियाँ, 108 का ये अंक असीम आस्था से जुड़ा हुआ है। इसलिए ‘मन की बात’ का 108वाँ एपिसोड मेरे लिए और खास हो गया है।''

वस्‍तुत: प्रधानमंत्री मोदी यहां 108 के महत्‍व को संक्षिप्‍तता के साथ रेखांकित करते हुए इसके विस्‍तार की गुंजाइश सुधी पाठकों एवं दर्शकों पर छोड़ देते हैं जो उनके इस कार्यक्रम को सुन, देख और पढ़ रहे हैं कि वे स्‍व प्रेरणा से जाने कि उदात्‍त भारतीय ज्ञान परम्‍परा में आखिर 108 अंक को इतना अधिक महत्‍व क्‍यों दिया गया है। वैसे आप अपने प्राचीन ज्ञान का जितना अधिक अध्‍ययन करते हैं, उसमें जितने गहरे उतरते हैं, आपको उतना ही अधिक इस परंपरा से जुड़े होने पर गर्व का अनुभव होता है। शायद ही विश्‍व का कोई कोना हो और कोई देश एवं समाज व्‍यवस्‍था जिसमें कि इतना गहन चिंतन न सिर्फ मनुष्‍य के स्‍तर पर सामाजिक व्‍यवस्‍था के लिए बल्‍कि संपूर्ण पर्यावरण (सृष्टि-समष्‍टी) के लिए किया गया आपको मिल सकता है, जितना ही सभी के हित को ध्‍यान में रखकर भारतीय चिंतन दृष्‍टिगत है। 108 अंक का जब प्रधानमंत्री मोदी सहज जिक्र करते हैं तो स्‍वभाविक है, देश के न जाने मुझ जैसे कितने जन होंगे, जिनके मन में यह सहज ही जिज्ञासा पैदा हुई होगी कि क्‍यों न इसकी गहराई में उतरकर जाना जाए कि आखिर क्‍या है 108 का रहस्‍य और महत्‍व ।

देखा जाए तो वेदों की आंख ज्योतिष है। वेदों की संख्‍या चार है - ऋग्‍वेद, यजुर्वेद, अर्थर्वेद, सामवेद। जीवन की चार अवस्‍थाएं या आश्रम भी हैं, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास, इसी प्रकार प्रायः मनुष्य के लिये वेदों में चार पुरुषार्थ बताए गए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसलिए इन्हें 'पुरुषार्थचतुष्टय' भी कहते हैं और श्रीकृष्‍ण गीता में अर्जुन से चार वर्णों का जिक्र करते दिखते हैं -

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ।। गीता 4.13

अर्थात् - गुण व कर्म के आधार पर मैंने ही इस सृष्टि को चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ) की रचना की है । इस प्रकार तुम मुझे इस सृष्टि का कर्ता ( रचनाकार ) होने पर भी अकर्ता ही समझो ।

इसके बाद फिर श्री कृष्ण ने विस्तार से कुछ इस प्रकार कहा-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥ - गीता 18.41

अर्थात् - हे परन्तप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं। यानी जिसका जैसा कर्म और स्वभाव है, उसी के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित होगा। यानी राजा का बेटा तभी राजा होगा जब उसमें राजा के समान कर्म और स्वभाव होंगे। श्री राम इसलिए राजा नहीं बने कि वो सबसे बड़े थे। राजा इसलिए बने क्योंकि वे श्रेष्ठ गुणधारक थे, जोकि एक राजा में होने चाहिए, लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था की दृष्टि से देखें तो वह प्रजा एवं मंत्री मंडल सभी को अपने राजा के रूप में स्वीकार थे। इतिहास में श्रीराम, चंद्रगुप्‍त मौर्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय जैसे राजा बनने के अनेक उदाहरण हैं।

वैसे वेद में एक मंत्र भी वर्ण व्‍यवस्‍था को लेकर है - ऋग्वेद की उक्‍त ऋचा में चारों वर्णों की बात की गई है।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः ॥
(ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12)ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः ।

यदि शब्दों में जाएं तो इस ऋचा का अर्थ हुआ- सृष्टि के मूल उस परम ब्रह्म के मुख से ब्राह्ण, बाहु से क्षत्रिय, उसकी जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र वर्ण उत्‍पन्‍न हुआ । वस्‍तुत: आगे इसी ऋचा से साम्य रखने वाला श्‍लोक मनुस्मृति में दिखता है-

लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपादतः ।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥ (मनुस्मृति, अध्याय 1, श्लोक 31) लोकानां तु विवृद्धि-अर्थम् मुख-बाहू-ऊरू-पादतः ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्-अवर्तयत् ।

इसका भी यही अर्थ हुआ कि समाज की वृद्धि के उद्देश्य से उस (ब्रह्म ने) मुख, भुजाओं, जंघाओं और पैरों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र निर्मित किए । हालांकि समय बीतने के साथ कलान्‍तर में मनुस्‍मृति में कई 'प्रक्षेप' जोड़ दिए गए, जिसके कि अभी सही तथ्‍य सामने आना बाकी है, फिर भी जो अभी मिलती है, उसमें भी बहुत कुछ भाषायी आधार पर सिद्ध होता है कि पुराना भी मौजूद है, यहां उसी आधार पर यह उल्‍लेखित किया गया है।

वास्‍तव में यहां जो लोग वेदों को और मनु को इस मुद्दे (वर्ण व्‍यवस्‍था) पर अपशब्‍द बोलते हैं, उन्‍हें यह समझना चाहिए कि चारों वेद अपनी समस्‍त बातें सांकेतिक रूप से कहते हुए दिखते हैं। मनु स्‍मृति की मिली प्राचीनतम पांडुलिपियों पर शोध होना अभी शेष है। ऐसे में वे समझें कि सनातन हिन्‍दू धर्म की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक यह भी है कि यहां पर जिन शूद्रों को ब्रह्म के पैर से उत्‍पन्‍न बनाया गया है, उन्‍हीं पैरों को प्रणाम करने का शीर्ष विधान सम्‍मान एवं आदर देने के लिए निर्देशित किया गया है। ईसाईयत की तरह गाल चूमने या इस्‍लाम की तरह गले मिलने और हाथ चूमने का कोई विधान सनातन हिन्‍दू धर्म में नहीं मिलता। वस्‍तुत: इस व्‍याख्‍या से ही समझ सकते हैं कि अप्रत्‍यक्ष रूप से समाज जीवन में सेवा करनेवालों को ब्रह्म ने अपनी वर्ण व्‍यवस्‍था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍यों से भी उच्‍च स्‍थान प्रदान किया है। तभी तो चरण छूकर आशीर्वाद लेने की आज्ञा सर्वत्र दी जाती है। जिसमें कि शरीर के तीनों अंग सबसे पहले सिर, भुजाएं और पैट एवं नीचे का भाग झूककर पैरों को प्रणाम करता है ।

यहां इस व्‍याख्‍या को कुछ और अधिक विस्‍तार देते हैं; देखा जाए तो समाज सेवा में रत रहनेवालों को ब्रह्म यहां सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण मानता है । यदि ऐसा नहीं हुआ रहता तो फिर कैसे यास्‍क नाम के ऋषि जिनके बारे में यह किंवदंती आम है कि वे शूद्र से ब्राह्मण बन गए थे। इन ऋषि के बारे में इतना ही कहना पर्याप्‍त होगा कि यदि यास्क ने अपना महत्वपूर्ण ग्रंथ निरुक्त न लिखा होता अथवा ऋषि‍ यास्क का निरुक्त ग्रन्थ अपने से पहले लिखे करीब बारह निरुक्त ग्रंथों की तरह लुप्त हो चुका होता, तो देश के भाषाई विकास के महत्वपूर्ण पड़ावों से हमारा परिचय कभी नहीं हो पाता। एक महिला जबाला के पुत्र सत्यकाम जाबाल की भी यही कहानी है जिनके पिता का पता नहीं, वह गुरु परंपरा में आश्रम में रहकर अध्‍ययन करता है और छांदोग्य उपनिषद् में उनकी कहानी हमारे सामने एक प्रेरणा के रूप में आती है। यानी प्राचीन भारत की ज्ञान परंपरा का अध्‍ययन करने से यह भी सिद्ध होता है कि गुरुकुल में ही वर्ण तय होता था और उसे तय करने का अधिकार श्रेष्‍ठ आचार्यों और गुरुओं को ही था। अध्‍ययन के स्‍तर पर चारों वर्ण एक साथ शिक्षा ग्रहरण करते थे।

वैसे भी आज के अधुनिक समय में भी चार वर्ण ही सर्वत्र दिखाई देते हैं। जो ज्ञान देने का कार्य कर रहे, वे सभी ब्राह्मण, जो देश सेवा और समाज में अनुशासन का पालन कराएं वह सैनिक या पुलिस अथवा इसी के समकक्ष कार्य करनेवाली जितनी भी श्रेणियां हैं, सभी क्षत्रिय। व्‍यापार-व्‍यवसाय में लगे सभी जन वैश्‍य और नौकरी-चाकरी एवं अन्‍य सेवा के कार्य में रत रहनेवाले सभी लोग शूद्र के रूप में दुनिया भर में सर्वत्र दिखाई देते हैं। यहां रुकते है; बात हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात के 108 वें एपीसोड की कर रहे थे, अब उसे आगे बढ़ाते हैं। हम ज्‍योतिष को लेकर आगे वेदों से होते हुए वर्ण व्‍यवस्‍था तक पहुंचे तो ज्‍योतिष में इस अंक के महत्‍व को पहले समझते हैं ।

वस्‍तुत: भारतीय ज्योतिष की काल गणना राशि और ग्रह-नक्षत्र आधारित है। राशियों की कुल संख्या 12 है, इनमें नौ ग्रह विचरण करते हैं। 12 अंक को नौ से गुणा करने पर 108 अंक प्राप्त होता है। इसी तरह, नक्षत्रों की संख्या 27 है। इनकी चार दिशाएं हैं। इनका भी गुणा करने पर योग 108 ही आता है। अब इसके ब्रह्माण्‍ड को समझते हैं। भारतीय आध्‍यात्‍म की मान्‍यता है कि एक अंक ब्रह्म यानी ईश्वर का प्रतीक है। आठ प्रकृति का द्योतक है, जिसमें पांच तत्व और तीन गुण - सत्व, रज और तम शामिल हैं। शून्य पूर्णता या निर्विकार होने के अर्थ में अपना अस्‍तित्‍व प्रदर्शित करता है । जब इन सभी को संयुक्‍त करें तो जो अर्थ प्रकाशित होता है वह है, ''प्रकृति के विभिन्न पहलुओं से निराकार होकर जो ईश्वर में रम जाए उसे 108 कहा जाता है।'' इसीलिए भी संत परंपरा में इसका गहरा प्रभाव है । संतों के नामोल्‍लेख के पहले श्री श्री 108 की उपाधि के रूप में यहां सहज ही इस अंक को देखा जा सकता है।

ब्रह्म या ईश्वर की ध्वनि ओम है और इस ओम की 108 गणितीय अभिव्यंजना है। इसलिए किसी मंत्र का जप कम से कम 108 बार करने के लिए या यज्ञ में 108 बार आहुती देने के लिए कहा जाता है। इसके लिए माला के मनके भी 108 रखे गए हैं। पुराणों में भगवान शिव के 108 गुणों की व्याख्या मिलती है। भगवान शंकर के अलौकिक तांडव नृत्य में 108 मुद्राएं हैं, यही भारतीय नृत्य शास्‍त्र की प्रमुख मुद्राएं भी हैं और शिवागों की संख्या भी 108 ही है। यास्‍क, शंकर, पाणिनि समेत अब तक जितने भी आचार्य हुए हैं वह भी इस अंक के महत्‍व को जानते रहे। तभी तो विश्‍व की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत की वर्णमाला में कुल 54 अक्षर पुल्लिंग और 54 अक्षर स्त्रीलिंग के मिलते हैं। इनका योग भी 108 ही है। इन्हें शिव और शक्ति के रूप में भी परिभाषित किया गया है।

वैष्णव धर्म में भगवान विष्णु के 108 दिव्य स्थानों को बताया गया है, जिसे दिव्यदेशम कहा गया। शक्तिपीठ की संख्या भी 108 स्‍वीकृत है। प्राकृतिक चिकित्‍सा और आयुर्वेद में 108 के योग का महत्‍व सर्वविदित है। मनुष्य के शरीर में 108 एक्यूप्रेशर पॉइंट बताए गए हैं । उपनिषदों की कुल संख्या 108 निर्धारित की जा चुकी है। इसी तरह से सूर्य से पृथ्वी की दूरी सूर्य के व्यास का लगभग 108 गुना है। इसी तरह से चंद्रमा से पृथ्वी की दूरी भी चंद्रमा के व्यास का लगभग 108 गुना है।

अत: कह सकते हैं कि इस ब्रह्माण्‍ड में कहीं भी कोई घटना घटती है, वह इसी 108 के फेर में कहीं घट रही होती है। इसलिए भी इस 108 का महत्‍व कई गुना बढ़ा हुआ है । अब तो भारत में आपातकाल में एंबुलेंस को बुलाने के लिए टोल फ्री नंबर भी 108 ही है। कुल मिलाकर 108 का रहस्‍य भारतीय ज्ञान परंपरा में आपको आपके होने के अर्थ में आपके अपने अस्‍तित्‍व से कहीं न कहीं परिचित कराता है। ऐसे में हम भी इस 108 के महत्‍व को समझें और अपनी प्राचीन ज्ञान परंपरा को शत् शत् प्रणाम करें कि आज का आधुनिक विज्ञान इस अंक के रहस्‍य को अभी समझने का प्रयास ही कर रहा है, वहां हमारे पूर्वजों ने इसका संपूर्ण अनुसंधान कर हम सभी के सामने वह सत्‍य साक्षात कर दिया है, जिसे विज्ञान के साथ हम सभी का समवेत रूप में मानना अभी भी शेष है।

Updated : 1 Jan 2024 3:26 PM GMT
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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

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