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मनमुखी नहीं, गुरुमुखी बनें

गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय। बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताय।।

मनमुखी नहीं, गुरुमुखी बनें
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गुरु बिन भवनिधि तरइ न कोई। जो बिरंचि संकर सम होई।।

कहकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने जीवन में गुरू के महत्व को दर्शाया है। गुरु शब्द का अर्थ ही है- अज्ञानरूपी अंधकार को हटाने वाला। अज्ञान ही समस्त समस्याओं का मूल है। ज्ञान होते ही व्यक्ति इनसे मुक्त हो जाता है। इसलिए गुरू मुक्ति का पथ बताने वाला होता है। परमात्मा से मिलाने का काम गुरू ही करता है इसलिए कबीर ने कहा-

गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय।

बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताय।।

इस भवसागर से पार ले जाने वाला गुरू ही होता है। इहलोक और परलोक दोनों को ठीक कराने का काम वही करता है। जीवन जीने की सही दृष्टि देने का काम वही करता है जिसने लौकिक जीवन में सफलता प्राप्त की होती है। गुरू ब्रह्मा की भांति उत्पत्ति, विष्णु की भांति पालन तथा शंकर की तरह संहार करता है। इसलिए कहा गया है-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: गुरु: साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम: ॥

गुरु पूर्णिमा का यह महापर्व भारतीय संस्कृति के प्रमुख त्यौहारों में से एक है। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस दिन गुरु के पूजन का विधान है। गुरू के समक्ष समर्पण का विधान है।

गुरू शरीर नहीं तत्व है। इसलिए जब कोई गुरू के चरण धोकर पूजा करके नैवेद्य अर्पित करता है तो गुरू अपने स्मरण हेतु निम्नांकित श्लोक का पाठ करता है-

ईश्वरो गुरु आत्मेति मूर्ति भेद विभागिने।

व्योम वत व्याप्त देहाय दक्षिणा मूर्तये नम:।

आदि शंकराचार्य ने इस परंपरा का प्रारंभ किया। गुरू को स्मरण रहे कि देह बुद्धि से जिस अहंकार को 'मैंÓ माना जाता है वह गुरु नहीं। वास्तव में गुरु व ईश्वर एक ही है अत: वह व्योमव्यापी आदि गुरु दक्षिणामूर्ति को स्मरण

कर उसके प्रतिनिधि के रूप में प्रणाम को स्वीकार करता है और उसी गुरू तत्व की ओर से आशीर्वाद प्रदान करता है। गुरूकुलों में विद्यारंभ और समावर्तन दोनों संस्कार इसी दिन अर्थात गुरूपूर्णिमा को ही होते थे। इसी दिन ज्ञान पिपासु छात्र अपनी जिज्ञासा व उसके लिए त्याग की तत्परता के प्रतीक के रूप में हाथों में समिधा लिए गुरू के आश्रम में आते थे। इसका प्रतीकात्मक अर्थ था स्वयं को ज्ञान यज्ञ में आहुत करने की तत्परता। जिसके अंदर इस प्रकार ज्ञानाग्नि में प्रवेश करने की अर्थात सभी स्तरों पर तप करने की तत्परता हो वही गुरु की छत्रछाया में रहने का अधिकारी होता था। इसी को छात्र कहा जाता था। गुरूकुल में रहकर जब अपने अंदर की विशिष्टता को पूर्णता से प्रकट करने का सैद्धान्तिक व व्यवहारिक ज्ञान छात्र पा लेता था तब गुरू उसे समाज में योगदान करने में

सक्षम मानकर गृहस्थ दीक्षा प्रदान करने के लिए दीक्षांत करते थे। उसकी परीक्षा होती थी। जब यह समारोह में सिद्ध हो जाता था कि छात्र जीवन की समझ मिल गई है तब उसे सुगंधित द्रव्य, तेल, उबटन आदि का प्रयोग करके स्नान की अनुमति मिलती थी। स्नान के कारण उसे स्नातक अर्थात ज्ञान से नहाया हुआ कहा जाता था। ज्ञान को ही सबसे बड़ी और पवित्र शक्ति माना जाता था। वेद व्यास ने कलांतर में इसी ज्ञान को पुराणों के रूप में व्यवस्थित किया। इसी ज्ञान की महत्ता को मान देने के लिए इस व्यासपूर्णिमा नाम दिया गया।

आज समस्त शिक्षक व्यास की भांति गुरु के रूप में ज्ञान की इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। इसलिए उनके पूजन का विधान यथावत रखा गया है।

पाश्चात्य प्रभाव से शिक्षा से यह पद्धिति और गुरू-शिष्य संबंध धीरे-धीरे चाहिए और दूसरों को देखने के लिए नेत्र चाहिए। यदि मन रूपी दर्पण मैला हो तो स्वरूप नहीं दिखाई देता और नेत्र दोषपूर्ण हो तो दूसरे का रूप स्पष्ट दिखाई नहीं देता। गुरु हमारे इसी दोष को दूर करने का काम करता है। इसीलिए जीवन में गुरू की इतनी महत्ता है। संसार में प्रत्येक व्यक्ति को सफलता चाहिए। कोई भी असफल नहीं होना चाहता। परंतु सफलता का सूत्र इसमें छिपा है कि हम मनमुखी हैं कि गुरूमुखी। जो मन के सेवक बनकर मनमानी करते रहते हैं वे हमेशा असफल रहते हैं क्योंकि मन संसार का सबसे बुरा स्वामी है जो अच्छा करने की आज्ञा कभी देता ही नहीं है। वह हमें नीचे की ओर पतन की ओर ले जाने का काम ही करता हे। अत: मनमुखी व्यक्ति सदैव असफल ही रहता है। इस मन का श्रेष्ठ गुण यह है कि मन संसार का सबसे अच्छा सेवक है। इसे जिस काम में लगा देते हैं उसे पूरा करके देता है। पर कठिनाई यह है कि मन को सेवक कौन बना सकता है? जो गुरूमुखी होता है। जिसके जीवन में गुरू आ जाता है वह मन का स्वामी बन जाता है और प्रत्येक क्षेत्र में सफल होता है। यह संघर्ष प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रतिदिन चलता है। ध्यान से देखना चाहिए हम मनमुखी है तो असफल और गुरूमुखी हैं तो सफल।

इसलिए बचपन से ही बच्चों के मन में गुरू के प्रति अत्यंत सम्मान का भाव जागृत करना चाहिए। उनका महत्व वैज्ञानिक रूप से बताना चाहिए। तभी बच्चों के मन में गुरु अथवा शिक्षक के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होगी और वह मनमुखी से गुरूमुखी होकर सफलता प्राप्त करेगा।

Updated : 5 July 2020 9:20 AM GMT
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