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राजनीति की तरह फिल्मों में भी हावी है भाई-भतीजावाद: रमेश चंद्र गौड़

राजनीति की तरह फिल्मों में भी हावी है भाई-भतीजावाद: रमेश चंद्र गौड़
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विगत दो दशकों से भी ज्यादा वक्त से प्रो. रमेश चंद्र गौड़ संस्कृति मंत्रालय से जुड़े हैं। रंगमंच का मक्का कहे जाने वाले 'राष्ट्रीय नाट्य विद्यालयÓ यानी 'एनएसडीÓ चीफ के रूप में भी सेवाएं दी, जहां उन्होंने कई बदलाव और सुधार किए। भारत सरकार ने इस वक्त उन्हें इंदिरा गांधी नेशनल केंद्र में कला निधि डिवीजन की हेड की जिम्मेवारी सौंपी है जिसे बखूबी निभा रहे हैं। प्रो. गौड़ ने बदलती रंगमंची की दुनिया को बहुत नजदीक से देखा है। इसी मुद्दे को लेकर डॉ. रमेश ठाकुर ने उनके साथ विस्तृत बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश।

प्रश्न: बदलते सिनेमा के भविष्य को आप किस रूप में देखते हैं?

देखिए, समय के साथ-साथ हर चीज खुद को रिफॉर्म करती है। इस लिहाज से सिनेमा-थिएटर ने भी खुद को बदला। सिनेमा को हम सामाजिक अच्छाइयों और बुराइयों का दर्पण मानते हैं। मुझे लगता है दोनों विधाएं बदलते युग के साथ-साथ आधुनिक हुई हैं। गुजरे जमाने का सिनेमाई पर्दा सफेद होता है, फिर रंगीन हुआ। दृश्य बदले, तो दर्शकों का मिजाज भी चेंज हुआ? सिनेमा के बदलाव के पीछे दर्शकों की पसंद ने भी अग्रणी भूमिका निभाई है। फिल्म मेकर हों, या थिएटर आर्टिस्ट, दोनों वैसा ही करते हैं जो पब्लिक की डिमांड होती है। यहां मैं इतना जरूर कहूंगा कि सिनेमा और रंगमंच में काफी भिन्नता है। रंगमंच का आज भी कोई मुकाबला नहीं कर सकता।

प्रश्न: क्या आपको नहीं लगता रंगमंच को और बढ़ावा देने की जरूरत है?

मनोरंजन की ये ऐसी विधा है जिसकी प्रासंगिकता कभी कम नहीं होगी, बल्कि बढ़ती ही जाएगी। अगर गौर करें, तो 'वैल्यू एडिशन जैसा मैटेरियलÓ आज भी रंगमंच की दुनिया ही दर्शकों को परोसती है। रंगमंच मनोरंजन का बहुत ही मजबूत पिलर है जिसकी उपयोगिता को दर्शक जानते हैं समझते हैं। फिल्मों और ओटीटी प्लेटफार्म पर जब शर्मिंदगी वाले सीन दर्शाए जाते हैं, तो दर्शक अपने बच्चों को रंगमंच के संबंध में बताते हैं। रंगमंच आज भी स्कूलों, कॉलेजों, गांव-खेडो में अपनी धाक जमाए हुए है। एनएसडी में रहते मैंने रंगमंच को गांव-गांव तक पहुंचाने का सफल प्रयास किया। 'ताजमहल का टेंडरÓ जैसे नाटक की गूंज आज भी हैं। काफी समय तक देश में कुछ चुनिंदा शहरों में एकाध ही 'रंगमंच महोत्सवÓ आयोजित होते थे, लेकिन मैंने एनएसडी के जरिए देशभर में एकसाथ 15 महोत्सव आयोजित करवाए। एनएसडी में कई रिक्तियां ऐसी थी, जो वर्षों से नहीं भरी गईं, सबसे पहले उन्हें भरवाया।

प्रश्न: कहते हैं कि मजा हुआ कलाकार थिएटर से ही निकलता है। पर, मायानगरी में पहुंचकर उनको भी तमाम तरह की चुनौतियों से जूझना पड़ता है?

देखिए, मैं हमेशा से इस बात का पक्षधर रहा हूं कि कुछ ऐसा हो कि जब फिल्मों की कास्टिंग की जाए, तब बाकायदा कलाकारों की खोज हो, स्क्रिप्ट के हिसाब से कलाकारों का चुनाव हो, ऑडिशन अच्छे से हो? पर अब ऐसा कम ही होता है। क्योंकि जहां तक मुझे लगता है, राजनीति की तरह फिल्मों में भी भाई-भतीजावाद हावी हो गया है। निर्देशक, प्रोड्यूसर व फाइनेंसरों के बच्चे ही अब फिल्मों में रखे जाते हैं। जब ऐसा होता तो उस कलाकार का हक मार दिया जाता है, जो वास्तव में हकदार होता है। ऐसा करने से फिल्मों की क्वालिटी भी डाउन होती है। उदाहरण हमारे सामने हैं, गुजरे वक्त के तमाम बेहतरीन कलाकारों की अगली पीढ़ी मौजूदा वक्त में फेल हो गई। हालांकि उन्हें जबरदस्ती लांच करने की कोशिशें भी हुई, लेकिन नहीं चले। एनएसडी से निकले अनगिनत कलाकार ऐसे हैं जिनका कोई गॉडफादर नहीं रहा। बावजूद अपने हुनर के बूते बुलंदियां हासिल की। थिएटर कलाकार अपने सीन में जान फूंक देता है।

प्रश्न: थिएटर कलाकारों के सामने मौजूदा समय में चुनौतियों की भरमार है, कैसे दूर हों ये समस्याएं?

समस्याएं हैं तभी तो थिएटर आर्टिस्ट फिल्मों का रुख कर जाते हैं। जहां, तक मैं समझता हूं, इन कलाकारों के सामने अव्वल समस्याएं तो आजीविका की होती है। उनके सामने काम का अभाव होता है। ऐसे में अगर उन्हें फिल्मों से एकाध भी असाइनमेंट मिल जाते हैं, तो वहां पैसा भी अच्छा मिलता है। एक बार जब कोई थिएटर आर्टिस्ट फिल्मों में चले जाते हैं, फिर जल्दी पीछे मुड़कर नहीं देखते। दरअसल, उन्हें थिएटर के अनुभव का वहां बड़ा फायदा मिलता है। क्योंकि थिएटर आर्टिस्ट कहीं भी, कभी भी मात नहीं खा सकते। वो एक्टिंग की विभिन्न विधाओं में फिट हो जाते हैं। एनएसडी ने न सिर्फ हिंदुस्तानी सिनेमा को, बल्कि दुनिया को बहुत कुछ दिया है। ये एक्टिंग का मक्का है, जिसने बेहतरीन से बेहतरीन कलाकार दिए हैं।

प्रश्न: आप मानते हैं आधुनिक सिनेमा पूरी तरह से व्यवसायिक होता जा रहा है?

ये सच्चाई है, मानने की कोई बात ही नहीं? फिल्मकारों का मकसद अब फिल्मों के जरिए सामाजिक संदेश देना नहीं होता, बल्कि बिजनेस अर्जित पर ज्यादा होता है। एक फिल्म जब 100 करोड़ रूपए में बनकर तैयार होती है, तो फिल्म मेकर की कोशिश होती है, 200-300 करोड़ कमाने की। सिनेमाई पर्दा अब दर्शकों को अपनी ओर खींचने के लिए मास पर इंपैक्ट डालने के लिए ग्लैमरस को बेहताशा परोसने लगे हैं। लेकिन इससे युवा वर्ग तो आकर्षित हो जाते हैं, पर बुद्धिजीवी वर्ग नहीं? इसलिए रंगमंच को आज भी लोग वैसे ही पसंद करते हैं, जैसे गुजरे वक्त में करते थे। मौजूदा फिल्मों में अनुशासन कतई नहीं होता।

प्रश्न: ओटीटी ने भी खेल बिगाड़ा हुआ है?

ओटीटी प्लेटफार्म ठीक है वैसे? पर उनका कंटेंट बेलगाम है। सरकार की तय गाइडलाइन के बिल्कुल विपरीत होता है। कोरोना काल में या लॉकडाउन के वक्त ये ओटीटी बहुत सफल हुआ था। लेकिन उसकी पहुंच सभी तक ओवरऑल नहीं है। हालांकि ओटीटी ने दर्शकों को काफी हद तक सिनेमा घरों में पहुंचने से रोका है। ओटीटी दर्शकों को उनके घरों में ही जरूरत के मनोरंजन के साधन उपलब्ध करवा रहा है। युवा वर्ग इसकी ओर बहुत आकर्षित हुआ है। ओटीटी लंबे रेस का घोड़ा नहीं दिखाई देता। ठीक समय के साथ नई-नई तकनीकें ईजाद होती हैं। उनका टेस्ट लेना चाहिए और स्वागत भी करना चाहिए। बाकी दर्शकों के स्वाद के ऊपर निर्भर करता है कि उन्हें क्या देखना पसंद है और क्या नहीं?

Updated : 11 Nov 2023 6:57 PM GMT
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City Desk

Web Journalist www.swadeshnews.in


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