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ग्वालियर किला: कुछ अनकही गाथाओं का गवाह

ग्वालियर किला: कुछ अनकही गाथाओं  का गवाह
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ग्वालियर। पर्यटन की दृष्टि से ग्वालियर प्रदेश में बेहद महत्वपूर्ण हैं, इस शहर में अनेको ऐतिहासिक इमारते और धरोहरे हैं जो इसकी गवाही देती हैं। इस शहर की स्थापना का श्रेय राजा सूर्यसेन पाल को जाता हैं। सूर्यसेन ने छठी शताब्दी में यहाँ एक भव्य किले का निर्माण कराया था। देश की तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों में यह किला उस समय के किलो में बहुत ही महतवपूर्ण था। अपनी मजबूती और निर्माण की कला शैली के कारण इसे किसी भी राजा के लिये इस पर विजय प्राप्त करना आसान नहीं इसी कारन इसे अभेद्द किले के रूप में भी जाना जाता हैं।

525 ई. में हुआ निर्माण

इतिहासकारो के अनुसार इस किले का निर्माण साल 525 ईस्वी में सूर्यसेन ने करवाया था। वह ग्वालियर से 12 किलोमीटर दूर सिंहोनिया गांव का एक स्थानीय सरदार था। सूर्यसेन ने यह शहर ग्वालिपा नाम के साधू के नाम पर बसाया था। कहा जाता हैं की सूर्यसेन को कुष्ठ रोग हो गया था। कई स्थानों पर इलाज के बाद भी उसे लाभ नहीं मिलने पर वह कुष्ठ के ईलाज के लिए साधू के पास पहुंचा, साधू ने उन्हें एक तालाब का पवित्र जल पिलाया जिसके बाद सूर्यसेन का कुष्ठ रोग ठीक हो गया।

साधु ने दी थी पाल की उपाधि

साधू ने आशीर्वाद स्वरुप सूर्यसेन को पाल की उपाधि दी थी। उपाधि देने के बाद साधु ने सूर्यसेन से कहा था की जब तक वह और वंशज इस उपाधि को अपने नाम के साथ लगाएंगे तब तक ग्वालियर का राज्य एवं किले पर उनके परिवार का शासन रहेगा । इस घटना के बाद सूरज सेन ने पाल उपाधि के साथ ग्वालियर शासन करने लगा। उसके बाद इसी उपाधि के साथ उसके 83 उत्तराधिकारियों ने इस किले पर शासन किया। उसके वंश में 84 वे वंशज द्वारा उपाधि त्यागने के बाद वह राजपूतो से युद्ध हार गया एवं किले पर राजपतों का शासन हो गया। किले की स्थापना के बाद करीब 989 सालों तक इसपर पाल वंश ने राज किया।

गुलाम वंश ने किया किले पर अधिकार

पाल वंश के बाद इस किले पर लम्बे समय तक प्रतिहार वंश ने शासन किया। प्रतिहार वंश के बाद 1023 ईस्वी में मोहम्मद गजनी ने इस किले पर आक्रमण किया लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। 1196 ईस्वी में लंबे घेराबंदी के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन 1211 ईस्वी में राजपूतो के अचानक आक्रमण से हुए युद्ध में हारने की वजह से ऐबक के स्वामित्व से निकल कर राजपूतो के कब्जे में पहुँच गया। 20 साल बाद 1231 ईस्वी में ऐबक के दामाद गुलाम वंश के वास्तविक संस्थापक इल्तुतमिश ने इस किले पर दुबारा इस पर विजय हासिल कर अपने अधीन कर लिया।

तोमर वंश की स्थापना

साल 1231 से 1398 तक यह किला दिल्ली सल्तनत के स्वामित्व में रहा। इसके बाद तोमर वंश के महाराज देववरम सिंह तोमर ने सुल्तानों को पराजित कर ग्वालियर में तोमर राज्य की स्थापना की जिसके बाद 1398 से 1505 ई. तकतक इस किले पर तोमर वंश का राज रहा। तोमर वंश के सबसे प्रसिद्ध राजा मानसिंह ने अपनी पत्नी मृगनयनी के लिए किले पर गुजरी महल का निर्माण करवाया था। इसके साथ ही महल आदि कई निर्माण तोमर वंश ने किले पर कराये।मानसिंह ने 1505 में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोधी की अधीनता स्वीकार ली।

मुगलो का कब्जा

इब्राहिम लोधी की मौत के बाद मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर ने ग्वालियर पर हमला कर यहाँ के तत्कालीन राजा को हरा कर इस किले को कब्जे में लिए ले लिया। कुछ सालो बाद ही मुग़ल बादशाह बाबर के बेटे हुमायूं को हराकर इस किले को सूरी वंश के अधीन किया।1540 में सूरी के बेटे इस्लाम शाह ने ग्वालियर को अपनी राजधानी बनाया। इसके बाद किले पर कुछ समय तक आदिल शाह सूरी ने ग्वालियर किले पर राज करने के बाद

शेरशाह की मौत के बाद । इस्लाम शाह की मौत के बाद ग्वालियर का किला किले की जिम्मेदारी राजा हेम चंद्र विक्रमादित्य को सौंप खुद चुनार चले गए. हेमू ने इसके बाद कई विद्रोहों का दमन करते हुए कुल 1553-56 के बीच 22 लड़ाईयां जीतीं। 1556 में हेमू ने ही पानीपत की दूसरी लड़ाई में आगरा और दिल्ली में अकबर को हराकर हिंदू राज की स्थापना की। इसके बाद हेमू ने अपनी राजधानी बदलकर वापस दिल्ली कर दी और पुराने किले से राज करने लगा।

1558 में बाबर के पोते अकबर ने हेमू को हराकर किले को दोबारा अपने अधिपत्य में ले लिया। अकबर ने अपने राजनैतिक कैदियों के लिए इस किले को कारागार में बदल दिया। अकबर ने अपने चचेरे भाई कामरान को यही बंदी बना कर रखा था जिसे बाद में फिर मौत की सज़ा दी गयी थी। औरंगज़ेब ने अपने भाई मुराद,सुलेमान और शिको को भी इसी किले में मौत की सज़ा दी थी। ये सारी हत्याएँ मन मंदिर महल में की गयी थी।

औरंगज़ेब की मृत्यु की के बाद इस किले का नियंत्रण गोहद के राणाओं पर चला गया । मराठा साम्राज्य के महाराज महादजी राव शिंदे ने गोहद राजा राणा छतर सिंग के हरा कर इस किले पर कब्ज़ा कर लिया। लेकिन इसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने छीन लिया. फिर 1780 में इसका नियंत्रण गौंड राणा छत्तर सिंह के पास गया जिन्होंने मराठों से इसे छीना। इसके बाद 1784 में महादजी सिंधिया ने इसे वापस हासिल किया। इस किले पर अंग्रेजों और सिंधिया के बीच नियंत्रण 1804 से 1844 तक बदलता रहा। हालांकि जनवरी 1844 में महाराजपुर की लड़ाई के बाद यह किला आखिर में सिंधिया राजवंश के कब्जे में आ गया।

किले में देखने योग्य :

मान मंदिर महल,गुजरी महल, शाहजहाँ महल, औरंगजेब महल। किले में दो द्वार हैं एक उत्तर-पूर्व में और दूसरा दक्षिण-पश्चिम में हैं। इसके अलावा आप यहां तेली का मंदिर, 10वीं सदी में बना सहस्त्रबाहु मंदिर, भीम सिंह की छतरी और सिंधिया स्कूल देख सकते हैं एवं गुरुद्वारा देख सकते हैं।


Updated : 21 Jan 2020 9:51 AM GMT
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स्वदेश डेस्क

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