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रसायनयुक्त मांस स्वास्थ्य के लिए हानिकारक

मेनका गांधी

रसायनयुक्त मांस स्वास्थ्य के लिए हानिकारक
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मांस का दुनिया भर में बड़े पैमाने पर उपभोग किया जाता है, जिसके लिए हर साल बिलियनों पशु मारे जाते हैं। भारत मांस और कई अन्य पशु उत्पादों का एक बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता दोनों है। वास्तव में, 2015-16 में उत्पादित 7 मिलियन टन मांस के साथ, भारत दुनिया में 5वें स्थान पर था। इस सरकार के कार्यकाल के दौरान मांस निर्यात 25 प्रतिशत तक बढ़ गया है, इसलिए हम संभवत: चौथे स्थान पर हैं। दूध के संबंध में, हम 2015-16 में विश्व के दूध का 18.5 प्रतिशत उत्पादन करके दुनिया में पहले स्थान पर हैं। चूंकि हम काफी अधिक मांस का उत्पादन कर रहे हैं, इसलिए भारत पनीर, दही, सॉसेज, नगेट इत्यादि जैसे पशुओं से संबंधित उत्पादों के लिए वैश्विक केंद्र बन गया है। जहां सरकारें इसे एक बड़ी आर्थिक सफलता मानती हैं, इसका पर्यावरण और जन स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। इसी बीच पशु उत्पादों के बड़े पैमाने पर उत्पादन से जन स्वास्थ्य जोखिम इतना बढ़ा है कि हम शायद ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाली मौतों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अकाल, चक्रवात, तूफान, सुनामी, पानी की कमी को तो शायद राहत के रूप में देखा जाएगा।

जब मांस और दूध की खपत बहुत कम थी तो यह एक कुटीर उद्योग था। गांव के चरवाहे पशुओं के छोटे समूहों को रखा करते थे, उन्हें चराई वाले क्षेत्रों और जंगल में ले जाते और फिर उन्हें स्थानीय रूप से मार डाला करते थे। अब, आज के पैमाने पर, कई टन मांस और दूध स्पष्ट रूप से उन पशुओं से आता है जिनका प्रजनन औद्योगिक स्तर पर किया गया है। किसी की कल्पना अनुसार ये प्रजननकर्ता परंपरागत किसान या लघु पैमाने के उद्यम नहीं हैं। ये बड़े कारपोरेशन हैं जिन्होंने हमारे देश के लगभग हर हिस्से में दुकान स्थापित की है। अधिक से अधिक स्थानीय उत्पादकों को या तो खरीदा जा रहा है या वे पशु उत्पादन की पश्चिमी औद्योगिक पद्धति को अपना रहे हैं। हमारे अधिकांश मांस निर्यातक मध्य पूर्व या चीन के निगमों के साथ भागीदारी में हैं या तो खुलेआम अथवा गुप्त रूप से।

मांस का उत्पादन हर वर्ष बढ़ रहा है। भारत में, 1999-2001 में अकेले गौमांस का निर्यात 0.31 मिलियन टन से बढ़ कर वर्ष 2016 में 1.56 मिलियन टन हो गया है। यह आंकड़ा और तेजी से बढ़ने की उम्मीद है जिसमें भारत दुनिया में तीसरे सबसे बड़े गौमांस निर्यातक की स्थिति से पहले स्थान पर आ गया है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2015-16 और 2016-17 के बीच भारत में सूअर के मांस का उत्पादन भी 21 प्रतिशत बढ़ा है। चूंकि मवेशी पालन उद्योग हर साल बढ़ता है, सबसे अधिक संभव लाभ निकालने की तकनीकें भी अधिक परिष्कृत हो रही हैं। यह प्रणाली अधिक पशु, तेजी से विकास और छोटे मांस से बाजार समय के आधारभूत प्रारूप का पालन करती है। जानवरों की बड़ी संख्या का एक स्थान पर प्रजनन किया जाता है जहां उन्हें मांस के लिए मारे जाने से पूर्व अनाज खिलाने और वृद्धि बढ़ाने वाली वस्तुएं दी जाती हैं।

1950 के दशक में, मवेशियों में हार्मोन का उपयोग संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन में लोकप्रिय होने लगा और डीईएस (डायएथिलस्टिलबोस्ट्रॉल) और हेक्सोस्ट्रॉल पशुओं को दिया जाने लगा। मांस व्यापारियों को महसूस हुआ कि इन हार्मोनों के परिणामस्वरूप उनके वजन में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, फीड रूपांतरण दक्षता (एफसीई) में सुधार हुआ - जिसका अर्थ है कि वे उन्हें कम खिला कर भी वही वजन प्राप्त कर सकते हैं और इसलिए इन्हें खिलाया जाना बहुत तेजी से आम हो गया। भारत ने इस हार्मोन से भरे हुए मांस को इसका सेवन करने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर प्रभाव को देखे बिना इन व्यवहारों को अपना लिया।

मवेशी उद्योग द्वारा उपयोग किया जाने वाला एक और लोकप्रिय हार्मोन जेरानोल है, जो सिंथेटिक नॉन-स्टिरियॉइडल एस्ट्रोजेन है। इसे संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में मवेशियों में एक वृद्धि प्रमोटर के रूप में उपयोग के लिए अनुमोदित किया गया है, लेकिन यह यूरोपीय संघ में प्रतिबंधित है। जेरानोल पहले से मौजूद स्तन कैंसर में कैंसर सेल प्रसार को बढ़ाने के लिए जाना जाता है। जेरानोल-प्रत्यारोपित मवेशियों से आने वाले मांस की खपत स्तन कैंसर के लिए जोखिम कारक माना जाता है।

डायएथिलस्टिलबेस्ट्रॉल (डीईएस) एक कृत्रिम नॉन-स्टिरियॉइडल एस्ट्रोजेन है जो अभी भी मवेशियों में विकास प्रमोटर के रूप में उपयोग किया जाता है। तथापि, विभिन्न रिपोर्टों से पता चलता है कि इसमें म्यूटेजेनिक, कैंसर करने वाले और टेराटोजेनिक गुण हैं। एक टेराटोजेन ऐसा एजेंट है जो भ्रूण के विकास को बाधित कर सकता है। टेराटोजेन बच्चे में जन्म दोष पैदा कर सकता है या गर्भावस्था को भी रोक सकता है। इसे 1979 में संयुक्त राज्य अमेरिका में और यूरोपीय संघ में 1981 में खाद्य उत्पादक पशुओं के लिए विकास स्टीमुलेंट के रूप में प्रतिबंधित किया गया था। इसका इस्तेमाल भारत में किया जा रहा है।

ट्रेनबोलोन एसीटेट (टीबीए) भोजन के लिए पाले जाने वाले पशुओं के वजन और एफसीई को बढ़ाने के लिए उपयोग किया जाने वाला एक और सिंथेटिक स्टीरीयॉइड होता है। इसे या तो अकेले या एस्ट्रोजेन और अन्य रसायनों के संयोजन में दिया जाता है। इससे बंध्यीकृत मवेशियों में एफसीई में 25 प्रतिशत से अधिक का सुधार देखा गया था। कुछ टीबीए 17 बीटा-ट्रेनबोलोन में परिवर्तित हो जाते हैं, जिन्हें प्रोस्टेट कैंसर सेल प्रसार को बढ़ाते हुए दिखाया गया है।

आप इस पर विश्वास नहीं करना चाहेंगे - और अधिकांश मांस खाने वाले इसे छोड़ने के बजाय मरना पसंद करेंगे लेकिन यह हमारे देश और दुनिया में अधिकांश मांस उत्पादन की सच्चाई है। मांस निगमों की प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं। सबसे पहले पैसा आता है। पशु कारखानों में लाभ प्रतिफल बढ़ाने के लिए कई बेहतर और सुरक्षित विकल्प हैं। पशुओं को अच्छी तरह से खिलाना और उन्हें स्वस्थ रखने से स्वाभाविक रूप से उनके वजन में सुधार होगा। हालांकि, इससे मुनाफा कम होता है और यह हार्मोन की तरह त्वरित और सस्ते परिणाम नहीं दिखाएगा। अगर कंपनियां बेहतर तरीकों को अपनाना नहीं चाहती हैं, तो यह सुनिश्चित करना हमारा काम है कि उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता है। उद्योग आपकी मांग के अनुसार चलता है, इसलिए यदि लोग हार्मोन उपचारित मांस खाने के लिए अपनी अनिच्छा दिखाते हैं, तो उत्पादकों को इस व्यवहार को रोकने के लिए मजबूर होना होगा। यूरोपीय संघ में यही हुआ, और अगर भारत में लोग जागरूक और पर्याप्त रूप से सक्रिय हो जाएं तो यह भारत में भी हो सकता है।

(लेखिका केन्द्रीय मंत्री व पर्यावरण विद् हैं)

Updated : 26 Sep 2018 1:47 PM GMT
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मेनका गांधी

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