रामनगरी में संतों की हुंकार: “अयोध्या व्यापार नहीं, आध्यात्मिक केंद्र रहे” - स्वामी जितेन्द्रानंद सरस्वती

अयोध्या। श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के अध्यक्ष पूज्य महंत नृत्य गोपाल दास महाराज के जन्मोत्सव पर हुए संत सम्मेलन में वैदिक स्वर गूंजे और धर्म चेतना का घोष हुआ। अखिल भारतीय संत समिति एवं गंगा महासभा के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी जितेन्द्रानंद सरस्वती ने मंच से वैचारिक क्रांति का शंखनाद करते हुए कहा, 'यह कालखंड संस्कृति और सभ्यता के संघर्ष का है। श्री राम मंदिर केवल आस्था का नहीं, अपितु भारत की आत्मा का पुनर्जागरण है।'
स्वामी जितेंद्रानंद का कथन साधारण नहीं, एक गूढ़ चेतावनी है, 'अयोध्या को केवल व्यापार का केंद्र नहीं, धर्म का धाम बने रहना है।' उन्होंने कहा कि राम की यह पावन भूमि अब मंदिर-आधारित अर्थनीति की प्रेरक बन गई है, जहां 25 किलोमीटर के दायरे में एक इंच भूमि भी खाली नहीं बची है, लेकिन इस भूमि का असली स्वामी धर्म है, धन नहीं। उन्होंने संतों से आग्रह किया कि वे अयोध्या की आत्मा की रक्षा करें, जिससे यह तपोभूमि बाजार की चकाचौंध में अपने मूल स्वरूप को न खो दे।
स्वामी जितेन्द्रानंद सरस्वती ने ऐतिहासिक संदर्भों का स्मरण कराते हुए कहा, 'राम जन्मभूमि का आंदोलन मातृभूमि के लिए नहीं, आत्मा के पुनरुत्थान के लिए था। यह उस समाज की पुकार थी जो हजारों वर्षों तक पीड़ा सहता रहा, जिनके मंदिर तोड़े गए, जिनकी संस्कृति को कुचला गया।'
उन्होंने स्पष्ट किया कि राम जन्मभूमि आंदोलन अकेला नहीं था। उसके साथ काशी और मथुरा की मुक्ति का संकल्प भी जुड़ा था। उन्होंने घोषणा की, 'श्रीराम की यह गूंज तब तक शांत नहीं होगी जब तक काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर से बंधन न हट जाएं। और इस युग परिवर्तन के मार्गदर्शक, पूज्य महंत नृत्य गोपाल दास महाराज ही रहेंगे।'
स्वामी जी ने उन बुद्धिजीवियों को भी करारा उत्तर दिया जो राम मंदिर को केवल रोटी के चश्मे से देखते हैं जो कहते थे कि मंदिर से रोटी नहीं मिलती, उनसे कहना चाहता हूं कि यदि पाकिस्तान में मंदिर न तोड़े गए होते, तो आज वहां भी राम भक्तों को 800 रुपये किलो आटे के लिए नहीं रोना पड़ता। जैसे अयोध्या की मणिराम छावनी में बिना जाति-धर्म पूछे भंडारा चलता है, वैसे ही कराची के संकटमोचन मंदिर में भी अन्नक्षेत्र चलता। मंदिर धर्म देता है, धर्म ही आत्मनिर्भरता की पहली सीढ़ी है।
संत सम्मेलन ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि अब अयोध्या न केवल देवालयों की नगरी है, बल्कि राष्ट्र के पुनर्निर्माण का आध्यात्मिक शंखनाद स्थल भी बन चुकी है। यह जन्मभूमि अब केवल एक स्मारक नहीं, बल्कि सनातन चेतना की जीवित मशाल है।