स्वदेश विशेष: भारतीय संविधान के 'सेक्युलरिज्म' और 'सोशलिज्म' पर आज तक क्यों हो रही है बहस

भारतीय संविधान के सेक्युलरिज्म और सोशलिज्म पर आज तक क्यों हो रही है बहस
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भारतीय संविधान के 'सेक्युलरिज्म' और 'सोशलिज्म' पर बहस

नई दिल्ली। भारतीय संविधान के दो शब्द जिन पर सबसे अधिक बहस हुई है वह शब्द 'सेक्युलरिज्म' और 'सोशलिज्म' है। इन दोनों को संविधान में शामिल किया जाए या न किया जाए इसे लेकर नेहरू और आंबेडकर ने भी लंबी चर्चा की। ये दो शब्द उस समय संविधान में जोड़े गए जब पूर्व पीएम इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया। आपातकाल के समय किए गए कई संशोधन और निर्णय पलट दिए गए लेकिन इन दो शब्दों को संविधान से हटाया नहीं जा सका। अक्सर भारत में कई बुद्धिजीवी इन दो शब्दों को भारतीय संविधान में बनाए रखने और हटाने पर बहस करते हैं। आइए जानते हैं आखिर क्यों 'सेक्युलरिज्म' और 'सोशलिज्म' पर आज तक भारत में बहस हो रही है।

दरअसल, आरएसएस सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवाद' शब्द पर बड़ा बयान दिया। उन्होंने कहा, "आपातकाल के दौरान संविधान में दो शब्द 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' जोड़े गए थे जो मूल प्रस्तावना का हिस्सा नहीं थे। बाद में इन शब्दों को हटाया नहीं गया। इन्हें रहना चाहिए या नहीं, इस पर बहस होनी चाहिए। ये दोनों शब्द डॉ. अंबेडकर के संविधान में नहीं थे। आपातकाल के दौरान देश में न तो संसद थी, न ही अधिकार, न ही न्यायपालिका और फिर भी ये दो शब्द जोड़े गए।

कांग्रेस ने आरएसएस की आलोचना :

आरएसएस द्वारा जब 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्द पर बहस की मांग की गई तो कांग्रेस ने इसकी आलोचना की। इसके बाद यह जानना जरुरी हो जाता है कि, आखिर देश की आजादी के समय ही संविधान में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवाद' जैसे शब्द क्यों नहीं जोड़े गए?

जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार प्रस्तावना :

'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना के भाग हैं। प्रस्तावना किसी दस्तावेज के परिचय के रूप में काम करती है और इसमें उसके मूल सिद्धांत और लक्ष्य शामिल होते हैं। जब भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया जा रहा था तो प्रस्तावना के पीछे के आदर्शों को सबसे पहले उद्देश्य प्रस्ताव में रखा गया था। जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार की गई प्रस्तावना को साल 1947 में संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था। ये वे आदर्श थे जो संविधान के प्रारूपण के दौरान हुई कई बहसों से उभरे थे।

जब संविधान सभा ने प्रस्तावना को अपनाया तो वह कुछ इस तरह थी :

"हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने तथा उसके सभी नागरिकों को निम्नलिखित सुनिश्चित करने का दृढ़ संकल्प लेते हैं:

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय;

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता;

स्थिति और अवसर की समानता;

और उन सभी के बीच व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ावा देना;

इस छब्बीस नवम्बर, 1949 को अपनी संविधान सभा में, इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”

प्रस्तावना में कई विषयों को जोड़ने और हटाने पर बहस हुई। संविधान सभा में बहस के दौरान केटी शाह और ब्रजेश्वर प्रसाद जैसे सदस्यों ने प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्दों को जोड़ने की मांग उठाई।

लोग तय करेंगे राज्य की नीति :

डॉ. बीआर अंबेडकर ने संविधान सभा में तर्क दिया कि, "राज्य की नीति क्या होनी चाहिए, समाज को उसके सामाजिक और आर्थिक पक्ष में कैसे संगठित किया जाना चाहिए, ये ऐसे मामले हैं जिन्हें समय और परिस्थितियों के अनुसार लोगों द्वारा स्वयं तय किया जाना चाहिए। इसे संविधान में ही नहीं रखा जा सकता क्योंकि इससे लोकतंत्र पूरी तरह से नष्ट हो जाएगा।"

पंडित नेहरू भी डॉ. आंबेडकर के मत का समर्थन करते थे। संविधान सभा में आंबेडकर और नेहरू द्वारा दिए गए जवाब के बाद लंबे समय तक ये विषय ठंडे बस्ते में रहा। संविधान सभा द्वारा दोनों शब्दों को प्रस्तावना में शामिल नहीं किया गया।

इंदिरा गांधी ने संविधान में किया संशोधन :

साल 1976 में आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' शब्द शामिल किए गए थे। 42वें संशोधन के कई प्रावधान विवादित रहे जिसमें 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' सबसे अव्वल पर है।

समाजवाद को क्यों किया इंदिरा गांधी ने संविधान में शामिल :

जब देश में आपातकाल लगा तो जनता का सबसे बड़ा मुद्दा गरीबी और बेरोजगारी थी। गरीबी उन्मूलन का वादा करके कांग्रेस सत्ता में आई थी। बढ़ती महंगाई के चलते देश में कांग्रेस सरकार के खिलाफ प्रदर्शन भी हो चुके थे। माना जाता है कि, आपातकाल लगाने के बाद इंदिरा गांधी ने समाजवाद के प्रति प्रतिबद्धता पर जोर देने और उनकी गरीब समर्थक छवि को चमकाने के लिए प्रस्तावना में ये शब्द जोड़े।

प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" शब्द को शामिल करने की बात की जाए तो इसका उद्देश्य भारत के विविध धार्मिक समुदायों के बीच एकता को बढ़ावा देना था। इसका मतलब था कि, राज्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है, तटस्थ रहता है, और किसी एक धर्म को राज्य धर्म के रूप में पसंद नहीं करता है। भारतीय राज्य मानवीय रिश्तों से संबंधित है, न कि व्यक्तियों और ईश्वर के बीच के रिश्ते से, जो व्यक्तिगत पसंद का मामला है।

धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द को हटाए जाने की दलीलें देने वाले बुद्धिजीवी अक्सर यह तर्क देते हैं कि, सेक्युलरिज्म विदेशी कांसेप्ट है जबकि समाजवाद USSR और चीन का मॉडल। भारतीय परिपेक्ष में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद किसी भी तरह फिट नहीं होते।

प्रस्तावना संशोधन को 44 साल बाद 2020 में चुनौती :

समय - समय पर यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के मामले में केंद्र और संसद को दी गई उपरोक्त व्यापक शक्तियों को रद्द कर दिया, और 43वें और 44वें संशोधन ने कई संशोधनों को उलट दिया। हालांकि, प्रस्तावना में किया गया संशोधन बना रहा। इसे 44 साल बाद 2020 में चुनौती दी गई।

जुलाई 2020 में डॉ. बलराम सिंह नाम के एक सुप्रीम कोर्ट के वकील ने संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल किए जाने को चुनौती देते हुए एक याचिका दायर की। बाद में पूर्व कानून मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने भी इसी तरह की चुनौतियों के साथ याचिकाएं दायर कीं। उन्होंने तर्क दिया कि, ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को संविधान के निर्माताओं द्वारा जानबूझकर संविधान से बाहर रखा गया था और ‘समाजवादी’ शब्द ने आर्थिक नीतियां बनाते समय केंद्र के हाथ बांध दिए थे।

न्यायालय ने कहा कि जब संविधान का मसौदा तैयार किया जा रहा था, तो धर्मनिरपेक्ष शब्द का अर्थ "अस्पष्ट माना गया क्योंकि कुछ विद्वानों ने धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या धर्म के विपरीत की थी। समय के साथ भारत ने धर्मनिरपेक्षता की अपनी व्याख्या विकसित की है, जिसमें राज्य न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और न ही किसी धर्म के पालन और अभ्यास को दंडित करता है। प्रस्तावना में बताए गए आदर्श - भाईचारा, समानता, व्यक्तिगत गरिमा और स्वतंत्रता आदि - "इस धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को दर्शाते हैं।"

इसी तरह, न्यायालय ने माना कि, 'समाजवाद' शब्द भी भारत में एक अनूठा अर्थ रखने के लिए विकसित हुआ है। इसने माना कि समाजवाद "आर्थिक और सामाजिक न्याय के सिद्धांत को संदर्भित करता है, जिसमें राज्य यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी नागरिक आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण वंचित न हो" और निजी क्षेत्र पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता नहीं है जो "पिछले कुछ वर्षों में फला-फूला, विस्तारित और विकसित हुआ है, जिसने विभिन्न तरीकों से हाशिए पर पड़े और वंचित वर्गों के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।"

अदालत ने यह भी पाया कि, "प्रस्तावना में परिवर्तन ने निर्वाचित सरकारों द्वारा अपनाए गए कानूनों या नीतियों को प्रतिबंधित या बाधित नहीं किया है। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि 42 वें संशोधन को इसके लागू होने के लगभग 44 साल बाद चुनौती देने का कोई औचित्य नहीं बनता।

अदालत की ओर से यह मामला भले की खत्म कर दिया गया हो लेकिन समय - समय पर इन दो शब्दों को लेकर देश भर में बहस होती रही है। साल 2024 में यह मुद्दा तब उठा था जब तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठाए थे। उन्होंने कहा था कि, " यह एक यूरोपीय अवधारणा है…भारतीय अवधारणा नहीं। यूरोप में चर्च और राजा के बीच संघर्ष को समाप्त करने के लिए धर्मनिरपेक्षता अस्तित्व में आई थी। भारत में धर्मनिरपेक्षता अनावश्यक थी।"

आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर साल 2025 में यह मुद्दा एक बार फिर उठा है। इस विषय को लेकर भारत में मौजूद दो धड़ों के बीच संभवतः बहस आने वाले सालों में भी जारी रहेगी।

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