स्वदेश विशेष: सच्चाई के दर्पण में इतिहास और उभरते विवाद

प्रो पल्लवी शर्मा गोयल, लेखिका। हिन्दी साहित्य के ख्यातनाम लेखक रामधारी सिंह दिनकर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “संस्कृति के चार अध्याय” के प्रकरण पाँच “प्राचीन भारत और बाह्य विश्व” में पंडित जयचंद्र विद्यालंकार को उल्लेखित करते हुए लिखते हैं, “भारत में चिंतन, खोज, अनुसंधान, और बौद्धिक उन्नति की प्रक्रिया , प्रायः ईसा की छटवी शताब्दी तक चलती रही। इसके बाद उसका अवरोध हो गया।”
दिनकर आगे लिखते हैं, “वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत, और कालिदास के बाद उतने उजागर नाम शंकर, रामानुज, वल्लभाचार्य, रामानंद, कबीर, सूरदास और तुलसी के ही मिलते हैं.. मगर यह केवल भारत का ही हाल नहीं था, इस काल में भारत से बाहर भी कहीं कोई बड़ा चिंतन नहीं हुआ।
असल में छटवी शताब्दी तक भारत में जो कुछ सोचा जा चुका था वही ज्ञान विश्व भर की पूँजी हुआ और इस काल में भारत का चिंतन जिन जिन देशों में पहुँचा, उन उन देशों में जिंदगी की एक नई लहर दौड़ गई .. अरबों ने भारत से जो कुछ लिया यूरोप के ‘रेनेसा’ अथवा पुनर्जागरण के पीछे उस ज्ञान का भी हाथ था।”
नैशनल काउन्सल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एण्ड ट्रैनिंग सेंटर (NCERT) की कक्षा आठ की सत्र 2025-26 की जिस पुस्तक को लेकर विमर्श उठा है, वह पुस्तक भारत में यूरोपियन देशों के ओपनिवेशिक साम्राज्य के बारे में वर्णित उन तथ्यों को लेकर है जिनमें यह बताया गया है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत की अकूत धन संपदा को सोख (drained) लिया।
वास्तविकता में अमेरिकी इतिहासकार विल दुरांत (Will Durant) द्वारा उपयोग किया गया phrase “स्टोलन वेल्थ फ्रॉम इंडिया” कोई काल्पनिक तथ्य नहीं, वरन एक ऐतिहासिक सच्चाई है। ब्रिटेन में हो रही ओद्योगिक क्रांति को जब सम्पूर्ण विश्व ने कौतूहल से देखा तब उसके फलने फूलने में उस East India Company का भी हाथ था जो शुरुआत में तो “ट्रैड नॉट टेरिटोरी” के उद्घोष के साथ आई, पर कालांतर में इस “सोने की चिड़िया” कहलाये जाने वाले देश के साथ “ट्रैड विथ टेरिटोरी” के कथन का निर्ममता पूर्वक पालन करने लगी।
डोमिनिक लेपियर (फ्रांसीसी लेखक) और लेरी कॉलिन्स (अमेरिकी पत्रकार) की लिखी पुस्तक “फ्रीडम एट मिड्नाइट” में उस घटना का विस्तार से वर्णन किया गया है कि जब 24 अगस्त 1600 में 500 टन का जहाज ‘हेक्टर’ सूरत के बंदरगाह पर उतरा और जब उस जहाज के कप्तान ने भारत की भूमि पर कदम रखा तब उसका सामना कबूतर के अंडे के बराबर आकार के रत्न, अकूत धन संपदा और विभिन्न प्रकार के मसालो की खुशबुओं से हुआ ।
अपनी आगरा यात्रा के दौरान जब विलियम हेक्टर जहांगीर के राज्य में पहुंचे तो तो उनका सामना विश्व के सबसे अमीर साम्राज्य से हुआ जिसके सामने क्वीन एलिजाबेथ का साम्राज्य एक छोटी सी प्रांतीय बस्ती के जैसा था। भारत वर्ष अंग्रेजों के लिए कितना महत्वपूर्ण था, यह एक ब्रिटिश राजदूत सर डेनिस राइट, जो वर्ष 1963 से 1971 के बीच ईरान के राजदूत रहे, द्वारा लिखी गई पुस्तक The English Amongst the Persians: During the Qajar period1787-1921” से भी स्पष्ट होता है।
अपनी किताब के प्रस्तावना में राइट लिखते हैं, “अग्रेज़ों के सम्पूर्ण विश्व पर आधिपत्य के दौरान अंग्रेजों ने ईरान पर अपनी दृष्टि बहुत मजूबती से गड़ायी रखी क्योंकि उन्हें डर था कि अगर तब के सोवियत-यूनियन (वर्तमान के रूस) ने ईरान पर कब्जा कर लिया तो अंगरेजों का “ज्वेल इन द क्राउन- इंडिया” उनके हाथ से निकल सकता है।
इसके साथ ब्रिटेन के प्रधानमंत्री “विंस्टन चरचिल द्वारा फरवरी 1931 में “हाउस ऑफ कॉमन्स” में दिए गए उनके भाषण का एक अंश भी इस संदर्भ में देखने योग्य है “ भारत का हमारे हाथ से निकलना हमारे लिए “फाइनल” और “फैटल” होगा और यह अवश्यमभावी है कि इसके बाद विश्व में ब्रिटेन की ताकत सीमित अथवा कम हो जाएगी”। उपरोक्त वर्णित सभी तथ्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि आर्थिक, सामरिक, एवं ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण दस्तावेज के तौर पर भारत ब्रिटेन के लिए अपरिहार्य था।
स्वतंत्रा प्राप्ति के पश्चात इतिहासकारों ने उपरोक्त तथ्यों को बौद्धिक विमर्श के नाम पर विदेशी क्रूरता को न्यायोचित ठहराते हुए उसे भारतीय नौनिहालों की पाठशालाओं से कुटिलता पूर्वक हटा दिया और आज जब उस भारतीय इतिहास के काले पन्ने को भावी पीढ़ी के समक्ष रखा जा रहा है तब उस पर दर्ज की जा रहीं आपतियाँ अंगरेजी कवि रुडयार्ड किपलिंग द्वरा लिखी गई कविता “द व्हाइट मेंस बर्डन” का अनुपालन करतीं प्रतीत होतीं हैं जहां “व्हाइट मेंस” द्वारा “captives, sullen people, half devil and half child, uncivilised” लोगों को civilised बनाने को कहा गया ।
रुडयार्ड किपलिंग का यह कथन कि ‘भाग्य की अविश्वसनीय रचना के कारण भारत पर राज्य करने की जिम्मेदारी ब्रिटिश साम्राज्य के कंधों पर आ गई है,” यह बताने के लिए पर्याप्त है कि, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लिखे गए इतिहास के पन्नों में विशिष्ट रूप से बाईं ओर झुकी हुई सोच इसी धारणा से प्रभावित रही।
यह एक ऐसा विमर्श था जो भारतीयता पर हीन महसूस करता था और अपनी गौरवमयी सनातन परंपरा को घोर उपेक्षा के भाव से निरूपित करता था। एक ऐसी सोच जो फ़्रंकफ़र्ट स्कूल ऑफ क्रिटिकल थ्योरी के उन सिद्धांतों को प्रतिध्वनित करती थी जो एक समाज के सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं, एवं संस्थाओं को जड़ से चुनौती देती थी, उनका मौलिक रूप से उल्लंघन करती थी, कट्टर तरीके से विद्रोह अथवा विघटन को प्रोत्साहित करती थी और जिसका उदाहरण भारत ने शाहीन बाग में, कोरोना वैक्सीन के उपयोग में, सर्जिकल स्ट्राइक और अन्य ऐसे ही कई विमर्शों का कट्टरता से सिर्फ विरोध के लिए विरोध करने में देखा।
एक ब्रिटिश ऑफिसियल जॉन सुलीवन का कथन, “अंग्रेज फले फूले, और एक स्पन्ज की तरह उन्होंने गंगा किनारे से अमूल्य धन संपदा को सोखा और थेम्स नदी के किनारों पर निचोड़ दिया”, भारत के तिरुअनंतपुरम से सांसद शशि थरूर के उस कथन की पुरजोर पुष्टि करता है, “वर्ष 1700 में भारत का संसार की अर्थव्यवस्था में 23 प्रतिशत का योगदान था जो कि सम्पूर्ण यूरोप की अर्थव्यवस्था के बराबर थी परंतु 1947 में अंग्रेजों के भारत छोड़ते समय यह 3% से कुछ ज्यादा ही शेष रही।”
उपरोक्त सभी तथ्य वर्तमान में एनसीईआरटी की किताबों में लाए गए बिंदुओं की तथ्यात्मक पुष्टि करते हैं एवं आलोचनाओं को तथ्यों की रोशनी में देखने पर जोर देते हैं। विदेशी मूल्यों को गंभीरता से लेने वालों को अमेरिकन साहित्य की प्रभावशाली साहित्यिक पुरोधा माया एंजिलों के इस कथन पर ध्यान देने की जरूरत है, “इतिहास, अपने अत्यंत दुखद दर्द के बावजूद, जिया नहीं जा सकता, पर यदि उसे साहस के साथ देखा जाए तो उसे दोबारा जीने की आवश्यकता नहीं होती।”
प्रो पल्लवी शर्मा गोयल
लेखिका: शासकीय महाविद्यालय शिवपुरी में अंग्रेजी साहित्य की प्राध्यापक हैं।
