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सा वार्ता या विभूतय

डाॅ. मनमोहन वैद्य, सहसरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

सा वार्ता या विभूतय
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भारतीय और पाश्चात्य जीवनदृष्टि में कुछ मूलभूत अंतर हैं। ठीक उसी तरह समाचार के प्रति दोनों की दृष्टि भी भिन्न है। भारतीय समाचार संस्थान भारतीय दृष्टि के निकष पर कितने खरे उतरते हैं, एक आत्मनिरीक्षण...

भारतीय एवं पाश्चात्य अवधरणा' विषय पर लिखने के लिए मुझे कहा गया है। वर्तमान मीडिया में झूठी खबर ;फेक न्यूज, एजेंडा पत्राकारिता, स्पर्धत्मक समाचार संकलन के नाम पर गिद्ध मनोवृत्ति और मीडिया ट्रायल जैसी बातें भी जुड़ी हुई दिखती हैं। ऐसा लगता है जैसे इनमें से अधिकतर, समाचार की भारतीय दृष्टि के अभाव में या पाश्चात्य दृष्टि के प्रभाव के कारण हैं। इनसे छुटकारा पाना समाचार जगत के सामने एक चुनौती है। समाचार की पाश्चात्य दृष्टि के बारे में मैं अध्कि नहीं जानता हूँ। पर जीवन की भारतीय और अभारतीय दृष्टि ही समाचार तथा मीडिया की दृष्टि को अलग-अलग रूप देती होगी। दोनों जीवन दृष्टि में मूलभूत अंतर है जो सुप्रसिद्ध अमरीकी परमाणु वैज्ञानिक फ्रिरत्योपफ काप्रा ने इन शब्दों में कहा है। वे कहते हैं- वह अवधरणा जो अभी धुंधली पड़ती दिख रही है, पिछली कुछ शतब्दियों से हमारी संस्कृति पर उसी का प्रभाव है। इस दौरान इसी ने हमारे पश्चिमी समाज को आकार दिया और साथ ही शेष विश्व को उल्लेऽनीय रूप से प्रभावित किया है। इस पूरे परिप्रेक्ष्य पर कई विचार और मूल्य आरोपित हैं। इन्हीं से एक वह है जो सृष्टि को एक ऐसी यांत्रिक व्यवस्था के रूप में देखता है जो कई साधरण टुकड़ों से मिलकर बना है। वह मानव शरीर को भी एक मशीन के रूप में देऽता है, समाज में जीवन को अस्तित्व के लिए एक प्रतिस्पर्धमूलक संघर्ष के रूप में देखता है। वह असीमित भौतिक, आर्थिक एवं प्रौद्योगिकीय विकास में विश्वास करता है। अंतिम और बेहद महत्वपूर्ण बात यह विश्वास कि एक ऐसा समाज जहाँ स्त्राी हर जगह पुरुष के अधीन ही समझी जाती है, वह केवल प्रकृति के मूलभूत नियम को मानता है। इन सभी मान्यताओं को हाल की घटनाओं ने चुनौतियाँ दी हैं। और इसीलिए वस्तुतः इन सभी में एक क्रांतिकारी संशोध्न घटित हो रहा है।

नई अवधरणा को एक समग्र विश्वदृष्टि की संज्ञा दी जा सकती है, यह दुनिया को पुर्जों के असंपृत्तफ संकलन के बजाय एक अविभाज्य समष्टि के रूप में देखता है। यदि 'पारस्थैतिक' शब्द का प्रयोग प्रचलित अर्थ से अध्कि व्यापक तथा गहरे अर्थ में किया जा सके तो इसे एक पारस्थैतिक दृष्टि भी कहा जा सकता है। गहरी पारस्थैतिक चेतना संपूर्ण अस्तित्व की ही मौलिक पारस्परिक निर्भरता के साथ इस सत्य को भी स्वीकार करती है कि व्यत्तिफयों एवं समाजों के रूप में हम सभी प्रकृति की चक्रीय प्रक्रिया के अंतर्गत ही अंतःस्थापित ;और अंततः निर्भर भीद्ध हैं। अंततः, गहरी पारस्थैतिक चेतना आध्यात्मिक या धर्मिक चेतना ही है। मानव चेतना की अवधारणा को जब चेतना के ऐसे माध्यम के रूप में समझा गया जिसमें व्यत्तिफ सृष्टि के साथ एक समग्र के रूप में संब(ता या संपृत्तफता के बोध् को अनुभव करता है, तब यह बात और भी स्पष्ट हो गई कि पारस्थैतिक चेतना अपने गहनतम केंद्र में वस्तुतः आध्यात्मिक ही है। इसीलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि गहरी पारस्थैतिक चेतना पर आधरित यथार्थ की नई दृष्टि आध्यात्मिक परंपराओं से तथाकथित चिरंतन दर्शन के साथ सुसंगतिपूर्ण है।

फ्रिरत्योपफ कापरा ने जिन नई अवधरणाओं की बात की है वह प्रकारांतर से भारतीय जीवन दृष्टि ही है। समाचार की पाश्चात्य अवधरणा से तो सभी भली-भाँति परिचित हैं। इसलिए मैं भारतीय अवधरणा पर ही बात करूँगा। समाचार की भारतीय अवधरणा के मूल में भारतीय जीवन दृष्टि है। उसे और उसकी विशेषताओं को समझेंगे तो समाचार की भारतीय अवधरणा को समझना आसान होगा। भारतीय जीवनदृष्टि की विशेषता यह है कि उसका आधर आध्यात्मिकता है। इसीलिए वह एकात्म और सर्वांगीण है। तभी वह संपूर्ण सृष्टि को परस्पर जुड़ा हुआ और परस्परावलंबी देखती है। इस कारण भारत का माने भारतीय समाज का एक विशिष्ट व्यत्तिफत्व तैयार हुआ। इस व्यत्तिफत्व की चार प्रमुख विशेषताएँ हैं। पहली कि हम मानते हैं - एकं सत विप्राः बहुध वदंति - अर्थात् सत्य एक है, विद्वान् उसे अनेक नामों से पुकारते हैं, उसे जानने के विभिन्न मार्ग हो सकते हैं और वे सभी समान है। दूसरी कि एक ही चैतन्य अनेक विध् रूपों में अभिव्यत्तफ हुआ है।2 इसलिए ऊपरी दिऽने वाली विविध्ता के मूल में रही एकता को देऽने की, अनुभूत करने की दृष्टि भारत की है। तीसरी विशेषता, जिसका सम्बन्ध् इस विषय से है, वह है कि प्रत्येक व्यत्तिफ में दिव्यत्व विद्यमान है।

मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस दिव्यत्व को अनेकविध् मार्गों से प्रकट करते हुए मुत्तफ होना है। अब चाहे यह कार्य के द्वारा हो, या पूजा-अर्चना के द्वारा, या पिफर मानसिक नियंत्राण या ध्यान के द्वारा या पिफर इन चारों इनके अलावा किसी और माध्यम से। यह मोक्ष या मुत्तफ होना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य होने के कारण भारत में सभी क्रिया-कलापों का लक्ष्य मुत्तफ होने की दिशा में आगे बढ़ना ही है। इसलिए विद्या के लिए कहा है फ्सा विद्या या विमुत्तफयेय् या कला के बारे में कहा है कि फ्सा कला या विमुत्तफये,य् आदि। यह मुत्तफ होना माने क्या है? जिस चैतन्य का अंश मैं हूँ उस चराचर में व्याप्त चैतन्य से एकरूप हो जाने की क्रमशः सीढियाँ हैंआॅंऽ ें ऽोलो और फ्मैंय् को छोटा करने का प्रयत्न करो। फ्मैंय् छोटा होने से फ्हमय् का परिघ विस्तृत होता जाता है। मैं, मेरा कुटुंब, मेरा परिवार, मेरा आस-पड़ौस, समाज, ग्राम, जिला, राज्य, देश, संपूर्ण मानवता, मानवेतर सृष्टि, संपूर्ण चराचर के साथ वह तादात्म्य का अनुभव करने लगती है। मेरा अलग अस्तित्व होते हुए भी उसका अहसास समाप्त होता है। इसीलिए संत तुकाराम महाराज कहते हैं- फ्वृक्ष-वल्ली अम्हा सोयरे वनचरेय् ;वृक्ष-वेली, वनचर सभी मेरे सगे रिश्तेदार हैंद्ध।3 पिफर जो अपने लगते हैं उनके लिए संवेदना जागृत होकर कुछ ना कुछ करने का मन स्वाभाविक ही होता है। यह अपनेपन के भाव से ;जो अपने नहीं हैंद्ध उनके लिए करना, देना इसी को ध्र्म कहा है। यह 'ध्र्म' अंग्रेजी का 'रिलीजन' नहीं है। उसे ;रिलीजन कोद्ध हम उपासना, या मजहब कह सकते हैं। यह 'ध्र्म' किसी से भी भेद-भाव नहीं करता है। 'ध्र्म' वह है जो सबको जोड़ता है, सब को एकजुट करके बाँध्ता है, सबको साथ रऽता है, सबकी धरणा करता है। अपनेपन के भाव से समाज के लिए कुछ करना या समाज को देना इसी को ध्र्म कहा गया है। विवेकानंद शिष्या भगिनी निवेदिता ने कहा है - जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक केवल अपने ही पास न रऽकर समाज को देते हैं, उस समाज के पास एकत्रित ऐसी सामाजिक पूँजी के आधर पर समाज संपन्न-समृ( बनता है। और जब समाज संपन्न-समृद्ध बनता है तब समाज का हर व्यत्तिफ संपन्न और समृद्ध बनता है। परंतु जिस समाज में व्यत्तिफ अपने परिश्रम का पारिश्रमिक समाज को न देकर अपने ही पास रऽता है उस समाज में कुछ व्यत्तिफ तो संपन्न होते हैं पर समाज दरिद्र ही रहता है। अपना धन, श्रम या समय इसमें से कुछ भी या सभी देने से सामाजिक पूँजी समृ( होती है। इसीलिए कहा है कि ध्र्म करने से, ध्र्म का आचरण करने से, ध्र्म समृ( होता है और वह सबके योगक्षेम की व्यवस्था करता है। धर्म की रक्षा होने से धर्म सबकी रक्षा करता है। कारण धर्म किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रखता है, न ही करता है। फ्ध्र्माे रक्षति रक्षितः।य् भारत की एक और विशेषता है कि भारत में राज्य कभी सर्वाेपरि नहीं रहा। कल्याणकारी राज्य भारत की परंपरा कभी नहीं रही।

समाज के कुछ ही महत्व के विषय राज्य के अध्ीन होते थे, बाकी बहुतांश विषयों के लिए समाज की राज्य से स्वतंत्रा अपनी व्यवस्थाएँ होती थी। यही बात गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने 'स्वदेशी समाज' निबंध् में कही है। वे कहते हैं कि वह समाज जो अपनी आवश्यकताओं के लिए राज्य पर कम से कम अवलंबित होता है वह 'स्वदेशी समाज' है। इसलिए ध्र्म करने से समाज की पूँजी समृ( होती है। इस सामाजिक पूँजी के आधर पर समाज अपनी व्यवस्थाएँ राज्य से स्वतंत्रा रहकर चला सकता है। 'ध्र्म' के द्वारा प्राप्त पूँजी के आधर पर समाज की अध्कितर व्यवस्थाएँ चलती हैं। इस अर्थ से हमारा समाज ध्र्माध्ष्ठिित या ध्र्माधरित था, है। अभी सारी दुनिया कोरोना वायरस के संकट से जूझ रही है। पर भारत की कोरोना के विरु( लड़ाई, दुनिया के अनेक देशों की लड़ाई से अलग है, विशेष है। दुनिया के अध्कितर देशों में राजसत्ता सर्वाेपरि है। समाज की सारी व्यवस्थाएं राज्य पर आधरित होती हैं। इसीलिए उसे कल्याणकारी राज्य की संज्ञा प्राप्त है। ऐसी विपत्ति में राज्य व्यवस्था, प्रशासन तत्परता से सक्रिय भी होता है और लोग भी शासकीय व्यवस्था के सक्रिय होने की प्रतीक्षा करते हैं। भारत का चित्रा इससे अलग है। भारत की परंपरा में समाज का एक स्वतंत्रा अस्तित्व है, ताना-बाना है। उसकी अपनी कुछ व्यवस्थाएँ हैं। इन सबसे मिलकर 'हम' बने हैं। पहले 'हम' अंग्रेजों के गुलाम थे। 15 अगस्त 1947 को 'हम' स्वतंत्रा हुए। 26 जनवरी 1950 से 'हम' ने अपना यह संविधन स्वीकार किया। स्वतंत्राता के पहले, स्वतंत्रा होने वाले, संविधन का स्वीकार करने वाले इस 'हम' का सातत्य हमारी असली पहचान है। यहाँ आक्रमण हुए, राजा पराजित हुए, परकीय शासन रहा। पर यह 'हम' कभी पराजित नहीं हुआ। यह 'हम' यानी यहाँ का समाज यानी हमारा राष्ट्र है। यह पश्चिम के 'नेशन स्टेट' से भिन्न है, इसे समझना होगा। पूर्व राष्ट्रपति डाॅ. प्रणव मुऽर्जी जब संघ स्वयंसेवकों को संबोध्ति करने के लिए नागपुर पधरे तब अपने वत्तफव्य में उन्होंने यही बात अधेरेऽित की थी। उन्होंने कहा, फ्पश्चिम की राज्याधरित राष्ट्र की संकल्पना और भारतीय जीवन दृष्टि आधरित राष्ट्र की भारतीय संकल्पना भिन्न हैं।य् इसीलिए भारत में किसी भी मानवनिर्मित या प्राकृतिक आपदा के समय प्रशासन के साथ, समाज भी राहत और पुनस्र्थापन के कार्य में सक्रिय दिऽता है।

कोरोना वायरस के इस अभूतपूर्व संकट के समय प्रशासनिक व्यवस्था के प्रतिनिध् िसुरक्षाकर्मी, डाॅक्टर, नर्स, अन्य वैद्यकीय सहायक, सपफाई कर्मचारी आदि सभी ने जी-जान से अपना कर्तव्य निभाया। यह करते समय इस संक्रमणशील बीमारी के संक्रमण की संभावना को जानते हुए भी वे निष्ठापूर्वक अपना कार्य करते रहे। कई लोग संक्रमित भी हुए, कुछ की जानें भी इस मोर्चे पर गईं। इसलिए उन्हें 'कोरोना-यो(ा' का संबोध्न देना सार्थक ही है। पर, इन शासकीय और अधर््-शासकीय कर्मचारियों के साथ-साथ समाज का बहुत बड़ा वर्ग अपने प्राण संकट में डालकर भी संपूर्ण देश में, पहले दिन से आज तक सतत सक्रिय रहा है। वैसे यह उनके दायित्व का भाग नहीं है, ना ही उन्हें इसके बदले मे कुछ पाने ;तमजनतदेद्ध की अपेक्षा है, पिफर भी फ्अपने समाज की संकट के समय सहायता करना मेरा दायित्व है,य् इस सामाजिक दायित्वबोध् से, अपनत्व के भाव से प्रेरित हो कर वह कार्य करता आया है। यही 'वयं राष्ट्रांगभूता' का भाव है। बाढ़, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा के समय राहत कार्य और इस संक्रमणशील बीमारी के समय, स्वयं संक्रमित होने की सम्भावना को जानते हुए भी, सक्रिय होना इनमें अंतर है। समाज का यह सक्रिय सहभाग संपूर्ण देश में समान रहा है। यह जागृत, सक्रिय राष्ट्रशत्तिफ का परिचायक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 4 लाऽ 80 हजार स्वयंसेवकों ने अरुणाचल प्रदेश से लेकर कश्मीर और कन्याकुमारी तक 85701 स्थानों पर सेवा भारती के माध्यम से करोड़ों परिवारों को राशन के किट पहुँचाना, भोजन के करोड़ों पैकेट्स का जरूरतमंदों को वितरण करना, लाऽों मास्क का वितरण, 40 हजार से अध्कि यूनिट्स रत्तफदान, लाऽों प्रवासी मजदूरों की सहायता के साथ-साथ घुमंतू जनजाति, किन्नर, देह व्यापार करने वाले, धर्मिक स्थानों पर परिक्रमावासियों पर निर्भर बंदर आदि पशु-पक्षी, गौ वंश, इन सभी की सहायता की है। अनेक स्थानों पर संक्रमित बस्तियों में जाकर स्वयंसेवकों ने सहायता की है। किसी भी दल की सरकार हो, सभी राज्यों में जहाँ भी प्रशासन ने जो सहायता माँगी उसकी पूर्ति स्वयंसेवकों ने की है। जमाव नियोजन, स्थानांतर करने वाले श्रमिकों के नाम दर्ज करना ऐसे असंख्य कार्य प्रशासन के आ"वान पर जगह-जगह स्वयंसेवकों ने किए हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जनकल्याण को समर्पित ऐसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में केवल एक विशिष्ट विचारधरा का चश्मा चढ़ाकर पूर्णतः असत्य और निराधर कथनों पर आधरित एक नैरेटिव ऽड़ा करने के सतत प्रयास चलते दिऽते हैं। इसी संदर्भ में एक घटना का स्मरण होता है।

एक बार आंध््र के विजयवाड़ा में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रम में एक कम्युनिस्ट नेता की कम्युनिस्ट पुत्राी ने ऐसा वत्तफव्य दिया कि आर. एस. एस. नाथूराम गोडसे की जन्मशती मनाने वाला है। जिसका दक्षिण भारत में अध्कि प्रसार है, ऐसे एक अंग्रेजी अऽ़बार में यह समाचार तीन काॅलम में दिया गया। अब यह सामान्य नैतिकता है कि उस कम्युनिस्ट नेता को संघ के किसी भी कार्यक्रम की घोषणा करने का अध्किार नहीं है। और यदि उसने ऐसा कहा तो उस संवाददाता का यह पत्राकार-ध्र्म ;यदि वामपंथी 'ध्र्म' में विश्वास रऽते हैं!द्ध है कि वह संघ के किसी अध्किृत व्यत्तिफ द्वारा उसका सत्यापन करे। परंतु ऐसा हुआ नहीं। संघ के लोगों के प्रेस काउंसिल में उस वत्तफव्य को चुनौती देने पर उस पत्रिका को प्रेस काउंसिल के कहने पर संघ का वत्तफव्य प्रकाशित करना पड़ा। ऐसी घटनाओं के बावजूद समाज में एक नित्यसि(शत्तिफ ऽड़ी हो, जो किसी भी आपदा का सामना कर सके, इसके लिए संघ समाज में सतत कार्यरत है। केवल संघ ही नहीं, अनेक सामाजिक, धर्मिक संस्था, मठ, मंदिर गुरुद्वारा इन सभी ने स्थान-स्थान पर कोरोना से संघर्ष के इस सामाजिक यज्ञ में अपना सहभाग दिया है। यह, शासकीय व्यवस्था के अलावा, समाज की अपनी व्यवस्था है। ऐसा केवल भारत में हुआ हैद्य भारत के बाहर जिन इने-गिने देशों में कोरोना के समय समाज की सहायता के लिए सामाजिक सक्रियता दिऽी है वहाँ भी ऐसा करने वाले वहाँ जाकर बसे भारतीय ही हैं। यही भारत की विशेषता है, यही भारतीय जीवनदृष्टि है। यह सब 'वयं राष्ट्रांगभूता' कभाव-जागरण के कारण ही संभव है।

इस भाव जागरण के कारण ही विविध् भाषा बोलने वाला, अनेक जातियों के नाम से जाना जाने वाला, विविध् देवताओं की उपासना करने वाला संपूर्ण भारत में रहने वाला यह समाज यानी 'हम' एक हैं, प्राचीनकाल से एक हैं यह भाव जगता है। मैं इस विराट 'हम' का एक अंगभूत घटक हूँ, यह भाव ही स्वयं को संकट में डालकर भी, किसी प्रसि(ि या अन्य प्रतिपफल ;तमजनतदेद्ध की अपेक्षा बिना समाज के लिए सक्रिय होने की प्रेरणा देता है। किसी भी जाति का, भारत के किसी भी राज्य में रहने वाला, पढ़ा, अनपढ़, ध्नवान, ध्नहीन, ग्रामीण, शहरी, वनांचल में या नगरों में रहने वाला यह सारा समाज मेरा अपना है ऐसा भाव जगाना माने 'राष्ट्र' जागरण करना है। मैं, मेरा कुटुंब, परिवार, आस-पड़ौस, गाँव, जनपद, राज्य, देश, समूचा विश्व, संपूर्ण चराचर सृष्टि ये सभी मेरी चेतना के क्रमशः विस्तृत और विकसित होने वाले दायरे हैं। इनमें संघर्ष नहीं, ये परस्पर पूरक हैं, इनमें समन्वय साध् ने का मेरा प्रयास होना चाहिए। यही भारत का सनातन अध्यात्म-आधरित एकात्म और सर्वांगीण चिंतन रहा है। इसी चिंतन ने भारत को दुनिया में हजारों वर्षों से एक विशिष्ट पहचान दी है। इसी कारण 'हम' सब इसकी अलग-अलग इकाइयों से जुड़कर अपनत्व की परिध् िको विस्तारित करते रहते हैं। यही 'अपनत्व' ऐसे संकट काल के समय स्वाभाविक सक्रिय होने की प्रेरणा देता है। इसी के कारण जो समाज का ताना-बाना बुना जाता है, इससे समाज गढ़ा जाता है। किंतु कई बार यह देऽने में आता है कि समाज गढ़ने की इस भावना की समझ तथा संवेदना के अभाव के कारण, घटनाओं को, विभेदकारी दृष्टि से, समाचार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। एक बार एक प्रमुऽ अंग्रेजी समाचार पत्रा में यह समाचार आया कि हरियाणा के किसी गाँव में होली के कार्यक्रम में दलित समाज के व्यत्तिफयों को शामिल होने से मना कर दिया। मैंने हरियाणा के प्रांत प्रचार प्रमुऽ से तथ्य जानने के लिए कहा तब उन्होंने बताया कि संपूर्ण गाँव होली के कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ था। केवल 4-5 युवक जो दारू पीकर हुड़दंग मचा रहे थे, उन्हें मना किया गया। वे युवक अनुसूचित जाति के थे। पर उस जाति के अन्य सभी होली कार्यक्रम में सहभागी थे। जिन्हें मना किया था, वह इसलिए नहीं कि वे किसी विशिष्ट जाति के थे बल्कि इसलिए कि वे दारू पीकर हुड़दंग मचा रहे थे। पिफर गाँव के सरपंच द्वारा इसका स्पष्टीकरण जारी किया गया. मेरा यह कहना नहीं है कि जाति के आधर पर ऐसा भेदभाव कहीं होता ही नहीं होगा। दुर्दैव से कहीं ऐसा होता भी होगा। उसका विरोध् भी होना चाहिए। पर यहाँ ऐसा नहीं था। उस संवाददाता ने सत्यापन किया होता तो यह जातिगत दुर्भावना निर्माण करने वाला गलत समाचार नहीं जाता। ऐसी प्रस्तुति के कारण न केवल समाज गढ़ने की प्रक्रिया बाध्ति होती है, अपितु पत्राकारिता ध्र्म का भी "ास होता है। समाज गढ़ने का यह काम तात्कालिक नहीं होता है, ना ही वह अपने आप होता है। सचेतन और दीर्घकाल के सतत और सहज प्रयास के परिणामस्वरूप यह समाज गढ़ने का कार्य होता है। पीढ़ियाँ लग जाती हैं, तब यह संभव होता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ही ले लीजिए जिसका निर्माण ही इस संपूर्ण समाज में एकत्व का भाव जगाकर उसे एक सूत्रा में गूँथकर गढ़ने का है। आज जो संघ कार्य का व्यापक विस्तार, प्रभाव और संगठित शत्तिफ का अनुभव सब कर रहे हैं, उसमें संघ के कार्यकर्ताओं की पाँच पीढ़ियाँ ऽप गईं हैं। हजारों की संख्या में, एक ही कार्य को 'मिशन' मानकर, लोगों ने सारा जीवन गला डाला है। अनेकों युवकों के जीवन का 'कपूर' हो गया है, तब यह परिणाम दिऽता है। केवल संघ ही नहीं, असंख्य सामाजिक-धर्मिक संस्थाएँ, शिक्षक, व्यापारी या विभिन्न व्यवसाय करने वाले नागरिक, विशेषतः असंख्य गृहणियाँ इस 'राष्ट्र जागरण' में बहुत मौलिक योगदान सतत कर रहे हैं। संघ के कारण इसकी देशव्यापी संगठित शत्तिफ का दर्शन होता है केवल इतना ही अंतर है। केवल मीडिया ही नहीं, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यत्तिफ, संस्था तथा संगठन ने 'मैं भी इसी समाज का अभिन्न अंग हूँ' यह भाव सतत जागृत रऽते हुए अपने सारे क्रियाकलाप नियोजित करने चाहिए। जीवन में स्पर्ध अवश्य है। पर केवल स्पर्ध ही नहीं हैं। दीर्घकाल तक चलने वाला यह समाज, उसका ताना-बाना, राज्य से स्वतंत्रा उसका अस्तित्व, इसके लिए आवश्यक समन्वय-सहकार-सहयोग यह बना रहे इसकी परिध् िका ध्यान रऽते हुए, इस परिध् िमें रहकर अपना काम करने की सतर्कता, सजगता रऽनी चाहिए। स्पर्ध में, मेरे स्वार्थवश यह ताना-बाना, जिसे बनने में अनेक वर्ष और अनेक पीढ़ियाँ लगी हैं, वह उध्ड़ न जाए, इसका भी ध्यान रऽना आवश्यक है। इस समाज से मेरा कोई लेना-देना नहीं, मुझे तो मेरा मुनापफा-लाभ ही देऽना है, यह भारतीय दृष्टि नहीं है। मैं भी इस राष्ट्र का अंगभूत घटक हूँ, यह बात केंद्र में रऽकर ही अपने कार्य की योजना करनी चाहिए। मैं जब 1992 में अमरीका पहुँचा ही था तब की एक घटना मुझे याद है। उन दिनों एक वस्त्रा निर्माता ने अलग अलग रिवाॅल्वर के चित्रा के साथ ळन्छ शब्द लिऽे हुए टी-शर्ट तैयार किए जो अमेरिकन किशोरों के बीच बहुत लोकप्रिय हुए। उस व्यापारी ने भी ऽूब मुनापफा कमाया। बाद में जब अभिभावकों के ध्यान में आया कि इसके कारण किशोर हिंसा के लिए प्रवृत्त हो रहे हैं तो उन्होंने पहले उन टी-शट्र्स को बाजार से वापिस लेने के लिए आंदोलन चलाया। अंत में जब उस निर्माता के सभी उत्पादन का बहिष्कार करने की बात चली तब उसने इन ळन्छ टी-शट्र्स को मार्केट से वापिस लिया। जब पत्राकारों ने उस निर्माता से पूछा, फ्इन टी-शट्र्स से समाज के युवाओं के मन पर विपरीत परिणाम हो रहा था तो आपने उन्हें पहले ही वापिस क्यों नहीं लिया?य् तब उसने उत्तर दिया फ्लुक, आय एम हीअर इन द बिजनेस आॅपफ मेकिंग मनी, एंड नाॅट इन द बिजनेस आॅपफ माॅरेलिटीय्। यानी यह समाज मेरा अपना है या यह मेरे लिए केवल एक संसाध्न है, ऐसे दो दृष्टिकोण हो सकते हैं।4 लाॅकडाउन के कारण अर्थतंत्रा का पहिया भी रुक गया। अचानक आई इस आपदा की व्यापकता के कारण अनेक अकल्पनीय समस्याएँ और चुनौतियाँ भी सामने आईं। उन सारी समस्याओं से निपटने के आयोजन या प्रयास में कुछ कमियाँ भी सामने आईं। उनके परिणाम भी सामान्य, निरीह, बेबस लोगों को झेलने पड़े। यह दुःऽद है।

इन घटनाओं को लेकर सार्वजनिक जीवन में, मीडिया में बहस छिड़ना, उसकी चर्चा होना स्वाभाविक है। यह भी लोकतंत्रा का हिस्सा ही है। परंतु कुछ लोग, नेता, पत्राकार, लेऽक इस बहस के चलते समय फ्हम भी इस समाज के अंग हैं,य् यह भाव भूल जाते हैं। किसी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर चित्रित करने से समाज के आत्मविश्वास, असंख्य कर्मचारी, अध्किारी, सामाजिक संस्थाओं के कार्यकर्ताओं की लगन, उनके परिश्रम पर प्रश्नचिन्ह ऽड़े हो सकते हैं। जो गलत है, वह गलत ही है। उसकी जवाबदेही तय करते समय सारा कुछ गलत ही हो रहा है, ऐसी छवि न निर्माण हो, इसका ध्यान, 'वयं राष्ट्रांग भूता' होने के नाते हम सभी को रऽना होगा। संक्रमणशील बीमारी, भीड़ के कारण संक्रमण अध्कि पफैलने का डर और घर को जाने के लिए बूढ़ों-बच्चों-परिवार समेत निकल पड़े श्रमिक इनकी व्यवस्था करना आसान नहीं था। जो व्यवस्थाएँ इस हेतु बनाई गई थीं, कहीं वे अपर्याप्त थीं तो कहीं व्यवस्था में रहने का अभ्यास और ध्ैर्य न होने के कारण कई लोगों को बहुत कष्ट हुआ। उनके चित्रा देऽकर और उनके दर्द सुनकर दिल काँप उठता था। उस पर मीडिया में ऽूब बहस भी चली। सत्तापक्ष और विपक्ष ने एक दूसरे पर आरोप लगाए। परंतु इसी कालऽंड में शासकीय व्यवस्था और सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से 50 लाऽ से अध्कि श्रमिक बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारऽंड, उड़ीसा आदि प्रदेशों में अपने-अपने गाँव पहुँच चुके हैं, यह भी साथ-साथ बताना चाहिए था।;यह जानकारी 20 मई तक की है।द्ध मध्य प्रदेश में उत्तर प्रदेश और बिहार जाने के लिए महाराष्ट्र और गुजरात से आए 4 लाऽ पैदल जाने वाले श्रमिकों को स्वयंसेवकों ने प्रशासन की सहायता से उत्तर प्रदेश की सीमा तक वाहनों द्वारा छोड़ा। वहाँ से उत्तर प्रदेश प्रशासन ने स्वयंसेवकों की सहायता से उन्हें अपने-अपने गाँव या बिहार की सीमा तक पहुँचाने के लिए वाहन-व्यवस्था की। प्रत्येक की जाँच करना, भोजन व्यवस्था और शारीरिक दूरी बनाने के आग्रह के साथ 50 लाऽ श्रमिकों को अपने गाँव तक पहुँचाना, वहाँ भी उनके आइसोलेशन की व्यवस्था करना, यह सब हुआ है। यह भी मीडिया में, मीडिया की बहस में दिऽाना चाहिए। इसी तरह यदि कहीं हिंसा, अत्याचार, शोषण, अन्याय, धेऽाध्ड़ी जैसी घटनाएँ होती हैं तो उनका निषेध्, विरोध्, प्रतिकार होना ही चाहिए। उनकी जाँच करके दोषी पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। किंतु ऐसी घटनाओं का सामान्यीकरण करना, विषम अनुपात में उसे बड़ा दिऽाकर पूरे समाज की छवि पर आघात करना कहाँ तक उचित है? परंतु ऐसा होता हुआ दिऽता है। कारण - ऐसा करने वालों के मन में यह 'वयं राष्ट्रांगभूता' का भाव क्षीण या लुप्त होता दिऽता है। उन्हें यह समाज, इस समाज का एक विशिष्ट वर्ग, यहाँ की विषमता, यहाँ की दरिद्रता, शिक्षा का अभाव, गंदगी ये सब अपना एजेंडा साध्ने के लिए संसाध्न जैसे दिऽते हैं।

यह अपनत्व भाव के अभाव का परिणाम है। विचारधरा के आधर पर एक एजेंडे के साथ पत्राकारिता करना या पत्राकारिता ध्र्म की विस्मृति होने के कारण ऐसा होता प्रतीत होता है। एक विशिष्ट विचारधरा के लोग अपने विचार से असहमत या विरोध्ी विचार के लोगों के विरु( अपने राजकीय स्वार्थ को लेकर अनर्गल झूठ पफैलाकर समाज म विघटन और संघर्ष की स्थिति निर्माण करने के लिए 'मीडिया' का दुरुपयोग करते हुए दिऽते हैं। क्योंकि उनमें 'वयं राष्ट्रांगभूता' का अभाव होता है और ये गि( के समान ऐसे मौके की तलाश में मँडराते रहते हैं। संसद भवन पर हुए आतंकी हमले के समय ऐसे ही एक वरिष्ठ पत्राकार ने यह निर्लज्ज विधन किया था कि यह समाचार सुनते ही उसे अपने चैनल के लिए वह एक्स्क्लूसिव स्टोरी लगी और अन्य चैनल के लोग पहुँचने के पहले मैं इसे कवर करूँ यही विचार उसके मन में आया। देश के संसद भवन और सांसदों की सुरक्षा का जो होना हो, वह हो। यही वह गि(दृष्टि है। 26 नवंबर के मुंबई में हुए आतंकी हमले के समय देश के सुरक्षा बलों की सुरक्षा का थोड़ा भी विचार ना करते हुए केवल 'एक्स्क्लूसिव कवरेज' के नाम पर, मेरे कैमरे में दिऽ रहे हैं इसलिए सुरक्षा बलों की व्यूहात्मक हलचल, देश के आतंकवादी दुश्मनों के लिए सहज उपलब्ध् करने का विचारहीन कृत्य भी हमने देऽा है।

भारत के एअर इंडिया के विमान को भारत सरकार के क़ब्जे में आतंकवादियों को रिहा करने की माँग को लेकर हाइजैक करने की घटना का भारतीय मीडिया का कवरेज भी विचार करने लायक है। केवल उस विमान में हाइजैक हुए यात्रियों के परिजनों को रोते-बिलऽते दिऽाने के कारण सरकार और सुरक्षा बलों पर क्या मानसिक तनाव और दबाव आ रहा होगा, इसका विचार ही नहीं किया गया। मुझे स्मरण है, इसके विपरीत 2001 में कच्छ भूकंप के समय विनाश के चित्रा के साथ एक छाया-पत्राकार ने जिसका सब कुछ समाप्त ही हो गया है ऐसे एक बुजुर्ग के दृढ़ मनोबल का संदेश देकर सभी पाठकों को एक आशा की दिशा दी थी। एक ही क्षण में अपने घर को मलबे का ढेर बना देऽ एक कच्छी बुजुर्ग क्या सोचता है! मलबे के ढेर के चित्रा के साथ ऽड़े उस बुजुर्ग के चेहरे पर एक दृढ संकल्प दिऽता है और उस पत्राकार ने उस चित्रा को, फ्तेरी ताक़त देऽी कुदरत, अब तू मेरी ताक़त देऽ़य् शीर्षक दे कर एक अच्छा संदेश भी दिया। मैं मानता हूँ, ऐसा शीर्षक भी समाज गढ़ने की प्रक्रिया को एक सकारात्मक दिशा देने का प्रयास ही है। समाज को गढ़ने का कार्य समाज के छोटा बड़ा काम करने वाले सभी घटक 'वयं राष्ट्रांगभूता' के भाव से करेंगे, करते रहेंगे यह अपेक्षा है। फ्वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिताः।य् इसलिए, उसमें भी जो 'पुरोहित' है, समाज के हित की चिंता जिन लोगों को अध्कि करनी अपेक्षित है, उनमें पत्राकार और मीडियाकर्मी भी आते हैं। मीडिया के पास जानकारी पहले आती है और उनके द्वारा जन-संवाद के माध्यमों से समाज में दूर तक, गति से संवाद या समाचार पहुँचता है। इसलिए उन्हें इस विषय में विशेष सजग और जिम्मेदार रहना आवश्यक है, अपेक्षित है। इसीलिए समाचार का चयन, उसका सत्यापन और प्रस्तुति अत्यंत जिम्मेदारी के साथ करना चाहिए। ताकि सत्य परोसा जाए, सत्य ही परोसा जाए और वह करते समय समाज जागृत हो, जो गापिफल हो वह संभल जाए, गलत करने वाला परावृत्त हो, समाज का प्रयासपूर्वक गढ़ा हुआ ताना-बाना बिगड़े नहीं, उध्ड़ ना जाए यह भी देऽना है। क्योंकि यह मेरा समाज है, मैं समाज का अंग हूँ।

दुर्भाग्य से अपने ही देश के कुछ लोग समाज गढ़ने की इस बात की अनदेऽी कर, केवल एकतरपफा चित्रा प्रस्तुत करने का प्रयास करते दिऽते हैं। हमारी विविध्ता के मूल में जो एकता का सूत्रा है, जो हमारी अध्यात्म-आधरित जीवन दृष्टि है उसका विस्मरण होने के कारण या उसे अनदेऽी करने के कारण हमारी वैशिष्टड्ढपूर्ण विविध्ता को भेद के नाते प्रस्तुत कर समाज में नए विभाजन करने के षडड्ढंत्रा, मूलतः मीडिया की पश्चिमी अवधरणा तथा यूरोप के लिबरलिज्म में अटूट विश्वास के कारण चल रहे हैं। आवश्यक नहीं कि ऐसा षडयंत्रा करने वाले सभी पत्राकार-संपादक कांग्रेसी-वामपंथी या जिहादी ही हों। इनमें अध्किांश हमारी शिक्षा व्यवस्था की उपज हैं। उन्होंने जो पढ़ा है उसके आधर पर वे बहुत ईमानदारी तथा विश्वास से मानते हैं कि हमारी विविध्ता मूलतः हमारे समाज के भेद को प्रकट करती है। डाॅमिनंट कल्चर और अपनी पहचान के लिए उठकर ऽड़ी हो रहीं सब-कल्चर की लिबरल थ्योरी में उनका अटूट विश्वास है। यह ध्यान देने की बात है कि मीडिया में सर्वत्रा प्रभावी समाचार की पश्चिमी अवधरणा तथा यूरोप के लिबरलिज्म के असर के बाद भी हमारे देश के मीडिया से हमारी भारतीय जीवनदृष्टि का पूरी तरह लोप नहीं हुआ है। जिन मीडिया संस्थानों को हम साधरणतः भारतीय जीवन दृष्टि या 'हम भाव' के विपरीत कवरेज करते हुए देऽते हैं, वे भी आर पार की स्थिति आने पर इस 'हम भाव' के साथ ऽड़े दिऽते हैं, यह आशादायक चित्रा है। इतने प्राचीन समाज में कालांतर में कुछ दोष निर्मित हुए, इस कारण कुछ समस्याएँ उभरीं। उनके निवारण के हर प्रयत्न अवश्य होने चाहिए, पर यह करते समय समाज गढ़ने के कार्य को हानि ना पहुँचे, इसका ध्यान भी रऽना चाहिए। कुछ ऐतिहासिक गलत नीतियों के कारण सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का निर्माण हुआ। उन्हें दूर कर समरस-समाज-निर्माण के लिए हरसंभव प्रयत्न करने चाहिए। ये करते समय भी इस एकता का सूत्रा शिथिल न हो, दुर्बल न हो इसका भी ध्यान रऽना आवश्यक है। नहीं तो केवल मीडिया की स्वतंत्राता या अभिव्यत्तिफ स्वातंत्रय के नाम पर समाज के इस गठन की अनदेऽी करना या उसकी हानि हो ऐसा प्रयास करना माने फ्व्चमतंजपवद ेनबबमेेनिसए चंजपमदज पे कमंकय् जैसी स्थिति होगी।

'बात ऐसी कर' नामक एक कविता में कहा है- फ्बात ऐसी कर जिसमें कुछ दम हो। जो न सेरों से, न छटाकों से मगर मन से तुले। ऽो न जाये गूंजकर आकाश में मन में घुले।य् आगे कवि कहते हैं- फ्जुल्म के अन्याय के पल में कभी भी चुप न रहना, चुप न सहना। जुल्म का प्रतिरोध् करने के लिए बोलो बराबर। ज्वालामुऽी उद्गार मुऽ ऽोलो सरासर। जोर से बोलो कि जिससे जुल्म का दिल दहल जाए और गापिफल हो जहाँ भी आदमी, संभल जाए।य् और अंत में कवि ने कहा है- फ्बात में अपना वरद "दय अपना अपनी सच्चाई डाल कर देऽो, पराया भी स्वजन हो बात ऐसी कर जिसमें कुछ वजन हो।य् समाचार का चयन, प्रस्तुति और परिणाम का विचार करते समय यह बात हमेशा ध्यान में रऽनी चाहिए। जैसा प्रारंभ में कहा है कि भारतीय चिंतन के अनुसार मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य 'मोक्ष' या 'मुत्तिफ' पाना है। इसीलिए भारतीय परंपरा में संगीत, नृत्य, कला, विद्या, व्यापार, शत्तिफ-उपासना इन सब का उद्देश्य भी मोक्ष प्राप्ति की ओर आगे बढ़ना ही रहा है। इसीलिए इन सभी कार्यों का एक दैवी अध्ष्ठिान रहता आया है और नटराज, सरस्वती, गणेश, लक्ष्मी, हनुमान ऐसे इनके अपने-अपने अध्ष्ठिात्राी देवी-देवता रहे हैं। समर्थ रामदास स्वामी ने कहा है- फ्सामथ्र्य आहे चळवळीचे, जो जे करील तयाचे। परंतु तेथे भगवंताचे, अध्ष्ठिान पाहिजे़य् ¹सामथ्र्य कृतिशीलता का है, जो जो यह करेगा उसका है। परंतु वहाँ भगवान का अध्ष्ठिान आवश्यक है।ह्5 इसलिए इस समाज को अपना मानकर उसे गढ़ते रहने का मेरा भी दायित्व है यह ध्यान में रऽकर, जो गलत है उसकी जानकारी सबको देने का कर्तव्य निभाते हुए भी समाज का भलाई करने में विश्वास बना रहे, उसे गढ़ने वाला ताना-बाना बिगड़े नहीं, उध्ड़ न जाए यह भी ध्यान में रऽना हैअच्छे, उत्साहवधर््क, समाज या राष्ट्र सर्वाेपरि है ऐसी घटनाओं की जानकारी, समाचार भी विपुल मात्रा में सतत देते रहना चाहिए. जो यह समाचार पढ़ेगा उसे सही, तथ्याधरित जानकारी देते हुए भी उसके अंदर के देवत्व को आ"वान करने वाला, जागृत करने वाला, उन्नत करने वाला वह हो इसका ध्यान भी रऽना चाहिए।

समाज में छिपी अमानवीय वृत्ति, दुष्टता को प्रकट होने का साहस न हो, गापिफल समाज सावध् हो और समाज के अंदर सुप्त देवत्व को प्रकट करने की प्रेरणा मिले इन सबका संतुलन रऽने वाला समाचार देने से पत्राकारिता ध्र्म का पालन होगा। अंततोगत्वा समाचार देने वाला और पढ़ने वाले को भी अपना अपनापन का दायरा अध्कि विस्तृत करने में सहायक, मुत्तिफ की दिशा में आगे बढ़ने वाला समाचार हो यह भारतीय दृष्टि है। समाचार को 'संवाद' या संस्कृत में 'वार्ता' कहते हैं। इसीलिए संवाददाता को मराठी में 'वार्ताहर' कहते हैं। तभी हम कह सकते हैं- फ्सा वार्ता या विमुत्तफयेय्6 )ग्वेद;û-ýú-ÿद्ध में कहा है 'विभूतिरस्तु सुनृता।' विभूति का अर्थ है- वैभव, महत्ता, समृ(ि, महिमा, या अभ्युदय। इसलिए यह कह सकते हैं कि समाचार ऐसा हो जो विभूति बढ़ानेवाला हो, भेद बढ़ाने वाला या भेदकारक न हो। ऐसी दृष्टि होनी चाहिए- 'सा वार्ता या विभूतये, कदापि न विभेदाय'। भारतीय स्वतंत्राता संग्राम के दौर के अनेक दिग्गज पत्राकारों-संपादकों ने प्रेस या मीडिया के लिए अलग-अलग ढंग से यही कर्तव्य कहा है। लोकमान्य तिलक और गांध्ी जी से लेकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय तक सभी की यही दृष्टि है। आसेतु हिमाचल पफैला हुआ यह संपूर्ण समाज, मेरा समाज है। मुझे इसे गढ़ना है। भविष्य में आने वाले सभी प्रकार के संकटों का सामना करने का इसका सामथ्र्य इसके एकत्व में, 'हम' भाव में है। हम सभी को, हर समय, हर परिस्थिति में इस 'हम' भाव को बढ़ाते हुए मजबूत करते रहना चाहिए।

संदर्भ

1. प्रिटजाॅफ काप्रा, वेब ऑफ लाइफ,

पृष्ठ 6-7

2. इंद्रम् मित्राम् वरूणम् अग्निमाहुरथो

दिव्यः स सुपर्णाे गरुत्मान।

एकम् सत् विप्रा बहुध वदंत्यग्निम् यम्मा तरिश्वानमाहुः।। )ग्वेद 1ः164ः46।।

3. तुकाराम गाथा, ओवी, 1720

4.https://www.washingtonpost.com/archive/politics/1992/10/06/makerof-gun-t-shirts-has-change-ofheart/5d9cd765-9fb2-4511-89db-45d6ebb9f7f6/

5. रामदास स्वामीः दासबोध्ः 20ः4ः26

6. तत् कर्म यत् न बंधय सा विद्या या

विमुत्तफये। आयासायापरम् कर्म विध्यान्या

शिल्पनैपुणम्।। विष्णुपुराणः 1ः19ः41 ।।


Updated : 5 May 2021 3:52 PM GMT
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