विश्व कविता दिवस : विभिन्न रसों से सजी ये हैं कुछ खास कविताएं
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वेबडेस्क। कविता वह शब्द है जिसे सुनते मन में स्वरों में पिरोये हुए शब्दों की गूंज अंकित हो जाती है। कविता साहित्य का वह साधन है जो मनुष्य के मन में अंकुरित होने वाले विभिन्न भावों को काव्य रसों के माध्यम से शब्दों में परिलक्षित करती है। वीर रस से सजी कविता जहां मन में वीरता को भर देती है, वही भक्ति रस की कविता भक्ति में लोगो को तल्लीन होने का भाव जाग्रत करती है। हास्य मन को प्रफुल्लित करती है, वही श्रृंगार रस प्रिय मिलन की आस को जगाती है।
आज विश्व काव्य दिवस है,जोकि भारत एवं समूचे विश्व के कवियों और उनकी रचनाओं की सराहना एवं उनके द्वारा काव्य के माध्यम से समाज को दिशा दिखाने एवं मनोरंजन करने के प्रयास को प्रोत्साहन देने का दिन है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन ) की पहल पर प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को विश्व कविता दिवस मनाया जाता है ।
काव्य के विभिन्न रसों से सजी कविताएं-
वीर रस - कवि श्यामनारायण पाण्डेय
राणा प्रताप की तलवार
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट काट,
करता था सफल जवानी को॥
कलकल बहती थी रणगंगा,
अरिदल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी,
चटपट उस पार लगाने को॥
वैरी दल को ललकार गिरी,
वह नागिन सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो बचो,
तलवार गिरी तलवार गिरी॥
पैदल, हयदल, गजदल में,
छप छप करती वह निकल गई।
क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर,
देखो चम-चम वह निकल गई॥
क्षण इधर गई क्षण उधर गई,
क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई।
था प्रलय चमकती जिधर गई,
क्षण शोर हो गया किधर गई॥
लहराती थी सिर काट काट,
बलखाती थी भू पाट पाट।
बिखराती अवयव बाट बाट,
तनती थी लोहू चाट चाट॥
क्षण भीषण हलचल मचा मचा,
राणा कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह,
रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी॥
हास्य रस-
कवि - अशोक चक्रधर
कविता -टिकट तो लेजा
बस में थी भीड़
और धक्के ही धक्के,
यात्री थे अनुभवी,
और पक्के।
पर अपने बौड़म जी तो
अंग्रेज़ी में
सफ़र कर रहे थे,
धक्कों में विचर रहे थे ।
भीड़ कभी आगे ठेले,
कभी पीछे धकेले ।
इस रेलमपेल
और ठेलमठेल में,
आगे आ गए
धकापेल में ।
और जैसे ही स्टाप पर
उतरने लगे
कण्डक्टर बोला-
ओ मेरे सगे !
टिकिट तो ले जा !
बौड़म जी बोले-
चाट मत भेजा !
मैं बिना टिकिट के
भला हूं,
सारे रास्ते तो
पैदल ही चला हूं ।
रस - श्रृंगार
कवि- मुकेश तिवारी
कुछ देर ठहरती संग मेरे, श्रृंगार तेरा मैं कर देता।
आलिंगन में लेकर तुझको यौवन तेरा मैं गढ़ देता।।
कुछ देर ठहरती संग मेरे...
वह प्रेम प्रियतमा जैसा था, वह रूप रुक्मिणी जैसा था।
वह चंद्ररात की बेला थी, वह दृश्य स्वपन के जैसा था।।
कुछ देर ठहरती संग मेरे...
मोह भरा था उस मंथन में, अश्रु कहां से आए थे?
मेरी चाहत के दर्पण में कुछ पुष्प तभी मुरझाए थे।
तू कह देती मैं सुन लेता, तू कह देती मैं बुन लेता।
उस विरह की प्रेम कहानी को, तेरे होंठों से चुन लेता।।
खामोशी थी तेरी बातों में, मैं बिन बोले ही पढ़ लेता।
आलिंगन में लेकर तुझको यौवन तेरा मैं गढ़ देता।।
कुछ देर ठहरती संग मेरे...
मैं हूँ अब भी उस शेष प्रेम संग, मेरे टूटे हुए ह्रदय संग।
अपनी प्रेम कहानी के उलझे और झूठे किस्सों संग।।
कुछ देर ठहरती संग मेरे...
रस- विरह
कवि- - राकेश कुमार सिंह "सागर"
नीर बहा कर अँखियों से सब कुछ उसने कह डाला
अवशेष बचा था जो मन में चेहरे से मैंने पढ़ डाला।।
श्रृंगार रसों की कविता में मर्म विरह का घोल दिया
जो राज छुपाये थे उर में बातों बातों मे बोल दिया।।
विरह प्रेम की विधा कठिन है समझाने का प्रयास किया
मिलने की आकांक्षा ने ही हर प्रेमी को निराश किया।।
मरु की तपती भूमि में, होती है जल की आस नहीं
पतझड़ में सृजन नहीं होता सागर से बुझती प्यास नहीं।।
पुष्पित वृक्ष तभी होते जब रवि की गर्मी पाते हैं
प्रेमी भी पूर्ण तभी होते जब विरह में जल जाते हैं।।
ये प्रेम, विरह की अग्नि में जलकर कुन्दन हो जाता है।
इस अग्नि से जो तपकर निकले वो प्रेमी कहलाता है।।
रस - देश भक्ति
कवि- माखन लाल चतुर्वेदी
चाह नहीं, मैं सुरबाला के
गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊं,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊं,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूं भाग्य पर इठलाऊं,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक
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