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भाजपा का ''वार''! ममता ''बदहवास'' व ''बेहाल''!

राजीव खण्डेलवाल

भाजपा का वार! ममता बदहवास व बेहाल!
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वर्तमान राजनैतिक व बिगड़ती कानून व्यवस्था को देखते हुए आज सबसे बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि पश्चिम बंगाल में पिछले 6 महीने से जो कुछ चल रहा है, क्या वह आगामी छह महीने होने वाले आम चुनाव तक ऐसे ही चलता रहेगा? या उसके पूर्व ही ''कानून का राज'' स्थापित करने के लिए और ''संविधान की रक्षा'' करने के लिए तुरंत आवश्यक कदम उठाए जाएंगे? संवैधानिक रूप से एक चुनी हुई सरकार के मुखिया होने के नाते हर स्थिति में कानून व्यवस्था बनाए रखने की पूर्ण जिम्मेदारी ममता बनर्जी की ही है। और इसमें किसी भी कारण से असफल होने पर यह उनकी ''अयोग्यता'' ही कहलाएगी।

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के पश्चिम बंगाल दौरे के दौरान उनके और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के काफिले और उनकी गाडि़यों पर पत्थरबाजी और हमला किया गया। इस गंभीर घटना ने पश्चिम बंगाल में आगामी विधानसभा के होने वाले आम चुनाव की दृष्टि से पहले से ही ''गर्म होती हुई राजनीति'' को और गर्म व ''सुलगा' दिया है। वर्तमान राजनैतिक व बिगड़ती कानून व्यवस्था को देखते हुए आज सबसे बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि पश्चिम बंगाल में पिछले 6 महीने से जो कुछ चल रहा है, क्या वह आगामी छह महीने होने वाले आम चुनाव तक ऐसे ही चलता रहेगा? या उसके पूर्व ही ''कानून का राज'' स्थापित करने के लिए और ''संविधान की रक्षा'' करने के लिए तुरंत आवश्यक कदम उठाए जाएंगे?

जेपी नड्डा की बुलेट प्रूफ गाड़ी पर हमले को लेकर बंगाल की राजनीति इतनी गरम हो गई कि पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ जो कि राज्य के एक संवैधानिक मुखिया है, को एक संवाददाता सम्मेलन लेकर राज्य की कानून व्यवस्था पर सार्वजनिक रूप से चिंता व्यक्त करनी पड़ी। मुख्यमंत्री जो कि संवैधानिक रूप से कानून की स्थिति बनाए रखने के लिए मूल रूप से जिम्मेदार व उत्तरदायी हैं, को बिगड़ती कानून व्यवस्था के लिए मुख्यमंत्री पर आरोप लगाते हुए जिम्मेदार ठहराकर राज्यपाल को यहां तक कहना पड़ गया कि मुख्यमंत्री को ''आग से नहीं खेलना'' चाहिए। जब राज्यपाल स्वयं ही कानून व्यवस्था भंग होने का आरोप मुख्यमंत्री पर लगाएं तब, बदहवास होती स्थिति की भयावहता को समझा जा सकता है। क्योंकि संवैधानिक रूप से राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी चुनी हुई सरकार, उनके मुखिया मुख्यमंत्री और गृहमंत्री की ही होती है। अर्थात जब रक्षक ही भक्षक बन जाए, तब भगवान ही मालिक है। ऐसी स्थिति में ''भगवान'' ने भारतीय संविधान के माध्यम से केंद्रीय गृह मंत्री को यह दायित्व दिया है कि, राज्य सरकार को बिगड़ी कानून व व्यवस्था सुधारने व बनाए रखने के लिए कड़े आवश्यक वास्तविक कदम उठाने के निर्देश अनुच्छेद 365 के अतंर्गत देना चाहिए। ताकि निर्देशों का पालन न होने पर अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्यपाल की रिपोर्ट के बिना भी सीधे राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है।

संवाददाता सम्मेलन लेकर सार्वजनिक रूप से कानून व्यवस्था के संबंध में अपनी चिंता व्यक्त करने, का कार्य सामान्यतया राज्यपाल महोदय का नहीं है। यह शासन स्तर पर राज्य या केन्द्र की सरकार का ही कार्य है। राज्यपाल को राज्य के हितों के संबंध में अपनी समस्त चिंताओं सेे अपनी रिपोर्ट के साथ गृह मंत्रालय को अवगत कराना ही उनका मूल संवैधानिक दायित्व है। क्या राज्यपाल को स्वयं की कार्य क्षमता पर विश्वास नहीं है कि राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में वे कानून व्यवस्था को सुधार सकेंगे? क्योंकि राष्ट्रपति शासन में राज्यपाल ही कार्यपालिका (शासन) का प्रमुख होता है व समस्त अधिकार उनके पास केन्द्रित हो जाते है। अति खराब कानून व व्यवस्था की स्थिति होने के बावजूद राष्ट्रपति शासन की अभी तक सिफारिश न करने (जो वर्तमान उत्पन्न परिस्थिति में एक संवैधानिक अपेक्षा है) का क्या यह भी एक कारण हो सकता है?

वैसे आजकल हर जगह राजनीति हावी है। इसलिए पार्टी लाइन के आधार पर नियुक्त किए गए राज्यपाल भी स्वयं को इस राजनीतिक माहौल से शायद अलग नहीं कर पा रहे हैं। जो उनके द्वारा एक प्रेसवार्ता बुलाने से दर्शित भी होता है। ''संवैधानिक प्रमुख होने के नाते मेरा यह दायित्व'' है कि संविधान का पालन करवाऊं और ममता दीदी को संविधान का पालन करना ही होगा, अन्यथा उनकी भूमिका शुरू हो जायेगी। राज्यपाल का उक्त प्रेसवार्ता में यह कथन राजनीति लिये हुये ज्यादा व कार्यवाई लिये हुये कम है। निश्चित रूप से ममता बनर्जी संविधान का पालन करने के लिए तभी मजबूर हो पाएगी, जब आप उन्हें संविधान का पालन करने के लिए मजबूर करेंगे। अर्थात बिगड़ती कानून व्यवस्था के आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करने के अलावा राज्यपाल के पास अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता है। संवाददाता सम्मेलन में राज्यपाल द्वारा यह आरोप लगाना कि यह हमला तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी का परिणाम है ''अपरिपक्व'' और राज्यपाल के ''अधिकार क्षेत्र के बाहर'' है। राज्य के संवैधानिक मुखिया होने के नाते केंद्र को भेजी जाने वाली वाली रिपोर्ट में इस बात का वे जरूर उल्लेख कर सकते हैं। लेकिन संवाददाता सम्मेलन में सार्वजनिक रूप से नहीं। क्योंकि स्वयं राज्यपाल या राज्य सरकार द्वारा बिना कोई प्राथमिक जांच कराए घटना के 24 घंटे के भीतर ही उक्त प्राथमिक निष्कर्ष पर पहुंच जाना ही अपने आप में ''राजनीति'' करना ही कहलाएगी। जिससे ममता बनर्जी को राज्यपाल पर ''राजनीति'' करने का आरोप ''जड़ने'' का एक मौका मिल गया।

वैसे ममता बनर्जी का जेपी नड्डा की गाड़ी पर हुए हमले के आरोप की 'प्रतिरक्षा' में यह कहना कि यह एक ''नाटक'' है, जिसे भाजपाइयों ने ही स्वयं उक्त हमले का प्लान बनाया, हास्यास्पद, पूरी तरह से हताश, राजनीति से प्रेरित और कहीं न कहीं उनकी बंगाल की राजनीति पर ढ़ीली होती पकड़ को ही दर्शाता है। वास्तव में यदि यही वास्तविकता है तो, ममता बनर्जी को घटना की तुरंत जांच करा कर उक्त आरोप व नाटक के तथ्यों को उजागर कर जनता के बीच लाकर ऐसे नाटक करने वाले नौटकीबाजों (आरोपियों) के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना चाहिए। सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप की मात्र राजनैतिक बयानबाजी करके वे अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती हैं। क्योंकि संवैधानिक रूप से एक चुनी हुई सरकार के मुखिया होने के नाते हर स्थिति में कानून व्यवस्था बनाए रखने की पूर्ण जिम्मेदारी ममता बनर्जी की ही है। और इसमें किसी भी कारण से असफल होने पर यह उनकी ''अयोग्यता'' ही कहलाएगी। इस आधार पर केंद्र शासन के पास राष्ट्रपति शासन लगाने का एक वैधानिक हथियार तैयार होते जा रहा है, जिसका उपयोग करने में केंद्रीय सरकार शायद इस कारण से डर रही है व उसे आंशका है कि, इससे एक सहानुभूति की भावना ममता बनर्जी के पक्ष में हो जाएगी, जिसका आगामी होने वाले विधानसभा के चुनाव में उन्हें फायदा मिलेगा। अर्थात ''राजनीति दोनों तरफ से हो रही है''। शायद इसीलिये केंद्रीय सरकार कड़े कदम उठा रही है, यह दिखाने के लिये तीन आईपीएस अधिकारियों को केंद्र ने वापिस बुला लिया है। अभी-अभी लेख समाप्त करते समय यह बात बताई गई है कि कैलाश विजयवर्गीय पर हुये हमले को देखते हुये उन्हे बुलेट प्रूफ कार मुहैया कराई गई है। हमले का जवाब हमले की धार को कुंद करना है और न कि बढते हुये हमले की आंशका व सुरक्षा को बढाना और मजबूत करना है यह भी प्रश्न उत्पन्न होता है और इसी बात को सिद्ध करता है राज्यपाल और केन्द्रीय सरकार ठोस (कड़ा) और कठोर निर्णय में अक्षम है।

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसी दिन प्रतिदिन एक के बाद एक राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याओं के कारण बद से बदतर होती कानून व्यवस्था की स्थिति में क्या दूसरे राज्य में जहां आगे आम चुनाव न हो, वहां ऐसी समान कानून व व्यवस्था की स्थिति के रहते उस राज्य में कोई सरकार अपने पद पर बनी रह सकती थी? नहीं! उदाहरण स्वरूप कानून अव्यवस्था की स्थिति के चलते ही पूर्व में भी पंजाब में 80 के दशक (1987-92) में, जम्मू-कश्मीर मेें 1990-96 के बीच, उत्तर प्रदेश में 1973 में पुलिस विद्रोह के कारण एवं 1992 में बाबरी विध्वंस के चलते, मणिपूर में 1972 में, आंध्रप्रदेश में 1973 में अलग आंध्र राज्य बनाने के चलते, तमिलनाडु में 1976 में राज्यपालों की सिफारिशों पर कंेद्र शासन ने राष्ट्रपति शासन लगाया है। अटलजी व नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में क्रमशः 6 व 7 बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है।

इसलिए मेरा राज्यपाल और केंद्रीय सरकार को यही कहना है कि बिना किसी ''राजनीति'' के वहां की वास्तविक स्थिति के आधार पर यदि वास्तव में कानून की स्थिति समाज विरोधी व अपराधी प्रवृत्ति के लोग खराब नहीं कर रहे हैं। बल्कि ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता जिन्हें उनके विरोधी गुंडे कहते हैं, के द्वारा खराब की जा रही है। तब निश्चित रूप से राष्ट्रपति शासन ही एकमात्र विकल्प रह जाता है। जो सही कदम होगा अथवा नहीं, इसका निर्णय 6 महीने बाद हो रहे चुनाव में जनता स्वयं दे देगी। तब यह पता लग जाएगा कि वास्तव में कानून व्यवस्था को लेकर ''राजनीति'' कौन कर रहा है?

(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)

Updated : 16 Dec 2020 2:20 PM GMT
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