Home > स्वदेश विशेष > चौमुखी मोर्चे पर पंजाब की राजनीति

चौमुखी मोर्चे पर पंजाब की राजनीति

उमेश चतुर्वेदी

चौमुखी मोर्चे पर पंजाब की राजनीति
X

वैसे तो पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, लेकिन सबसे ज्यादा निगाहें उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावों पर लगी हुई हैं। उसमें भी दुनिया की निगाहें सबसे ज्यादा सीमावर्ती राज्य पंजाब के चुनावों पर लगी हुई हैं। समूचा पंजाब तकरीबन पाकिस्तानी सीमा से सटा हुआ है, फिर अनिवासी पंजाबी लोग कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन समेत दुनिया के तमाम देशों में ना सिर्फ फैले हुए हैं, इन देशों से पंजाब की माटी और खेत-खलिहान का रिश्ता लगातार जुड़ा हुआ है, इसलिए इन चुनावों पर वैश्विक निगाहों का होना स्वाभाविक भी है। इनमें भारत की एकता और अखंडता की समर्थक ताकतें भी हैं तो दूसरी तरफ भारत की अंदरूनी शांति और सुरक्षा को तार-तार करने, भारत को तोड़ने की फिराक में लगी ताकतें भी हैं।

पिछले चुनाव के दौरान कांग्रेस और तब की सत्ताधारी शिरोमणि अकाली दल के साथ ही आम आदमी पार्टी के बीच मुकाबला हुआ था। जिसमें शिरोमणि अकाली दल को मुंह को खानी पड़ी थी। पंजाब की राजनीति में पंथक की ओर से लगातार दखल रखने वाली पार्टी शिरोमणि अकाली दल – बादल की स्थिति दूसरे स्थान तक की भी हैसियत नहीं रही। पंजाब के लोगों की नजरों में वह इतना गिरी कि उसे तीसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा, जबकि दूसरे स्थान पर वह पार्टी पहुंच गई, जो इस सीमावर्ती राज्य की राजनीति के लिए बिल्कुल नई थी। आम आदमी पार्टी तो एक दौर तक सत्ता का दावेदार तक लग रही थी। यह भी ध्यान रखने की बात है कि तब शिरोमणि अकाली दल-बादल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा थी। भारतीय जनता पार्टी उसकी सहयोगी थी। लेकिन नवंबर 2020 में तेज हुए तीन कृषि कानूनों के विरोध की राजनीति की आंच में दोनों पार्टियों के रिश्ते जल चुके हैं।

गुरू पूर्णिमा के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने और पंजाब की पिछली कांग्रेसी जीत के नायक रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह के कांग्रेस से अलग होने के बाद राज्य की चुनावी राजनीति इस बार बिल्कुल बदल गई है। मोदी लहर के बावजूद 2017 में पंजाब में कांग्रेस को जो जीत मिली थी, उसका श्रेय सोनिया गांधी या राहुल गांधी को नहीं मिला। माना गया कि यह जीत कैप्टन अमरिंदर सिंह की थी। वही अमरिंदर आंतरिक कलह के बाद कांग्रेस से अलग हो चुके हैं। आंतरिक कलह की वजह बने भारतीय जनता पार्टी के बड़बोले नेता रहे नवजोत सिंह सिद्धू के कांग्रेस में शामिल होने के बाद। अमृतसर से भारतीय जनता पार्टी के सांसद रहे नवजोत सिंह सिद्धूकी आक्रामक राजनीति एक दौर में अकाली दल बादल को नापसंद रही। माना जाता है कि भारतीय जनता पार्टी ने अकाली दल के ही दबाव में 2014 में अमृतसर से उनका टिकट काटकर अरूण जेटली को मैदान में उतारा था। यह बात और है कि अरूण जेटली को कैप्टन अमरिंदर सिंह ने हरा दिया। यह समय का फेर और राजनीतिक समीकरणों का खेल ही कहा जाएगा कि अरूण को हराने वाले अमरिंदर अब अपनी नई पार्टी के साथ भाजपा के संग हैं। जबकि नवजोत सिंह सिद्धू उनकी जगह पंजाब की कांग्रेस के अगुआ हैं।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग होने के बाद शिरोमणि अकाली दल ने बहुजन समाज पार्टी के साथ समझौता किया है। बहुजन समुदाय की राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी के लिए पंजाब का सामुदायिक समीकरण बेहद फिट बैठता है। फिर बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांसीराम भी पंजाब के ही थे। लेकिन पार्टी कभी भी यहां अपनी पैठ नहीं बना पाई। जबकि पंजाब की तकरीबन 32 फीसद आबादी दलित है। दलित ज्यादातर कांग्रेस के ही साथ रहे। शायद यही वजह रही कि अंदरूनी कलह से जूझ रही कांग्रेस ने जब कैप्टन अमरिंदर को हटाने का फैसला किया तो उनकी जगह दलित समुदाय से आने वाले चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री की कमान सौंप दी। चन्नी दावा भी कर रहे हैं कि उनकी अगुआई में पंजाब में कांग्रेस इतिहास रचने जा रही है। लेकिन ऐसा नहीं लग रहा है।

शिरोमणि अकाली दल बादल पर सबसे बड़ा आरोप यह रहा है कि उसकी सरकार ने पंजाब में बढ़ती नशाखोरी और ड्रग्स की तस्करी पर लगाम नहीं लगा पाई। शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल के साले और पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर के भाई विक्रम सिंह मजीठिया पर भ्रष्टाचार और नशाखोरी को प्रकारांतर से बढ़ावा देने का आरोप भी लगा था। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान एक सभा में खुद अकाली दल के तत्कालीन प्रमुख प्रकाश सिंह बादल ने मजीठिया को खरी-खोटी सुनाई थी। इन आरोपों से अकाली दल अभी तक उबर नहीं पाया है। हालांकि पंथक दल के नाते उसकी जो पंजाब में पैठ है, उसके साथ बहुजन समाज पार्टी के आधार वोट बैंक के सहारे वह भी मैदान में ताल ठोक रहा है। हालांकि बसपा की स्थिति ऐसी रही है कि वह अतीत में कभी भी तीन प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल नहीं कर पाई है। उसके चुनावी अभियान को देखकर भी नहीं लग रहा कि इस बार भी वह कोई पराक्रम दिखा पाएगी। इसलिए अकाली दल बादल की चुनावी संभावनाएं कुछ खास नजर नहीं आ रहीं।

इसकी वजह यह है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह का अपना निजी कद भी बहुत बड़ा है। उनके साथ कांग्रेस की राजनीति के कई बड़े चेहरे हैं। फिर पंजाब की शहरी आबादी पारंपरिक रूप से भारतीय जनता पार्टी का समर्थक रही है। पंजाब में करीब तीस फीसद हिंदू आबादी है। वैसे तो हिंदू और सिख का बंटवारा भी पिछले कुछ दशकों का है। अन्यथा सिख कौम भी बृहत्तर हिंदू समुदाय का ही हिस्सा है। लेकिन जनवरी महीने के पहले हफ्ते में फिरोजपुर में जिस तरह प्रधानमंत्री की सभा नहीं होने दी गई और उनके काफिले को पर्याप्त सुरक्षा नहीं मिली, उन्हें एक फ्लाईओवर पर घेर लिया गया, इसकी तीखी प्रतिक्रिया पंजाब के हिंदू समुदाय में हुई है। अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन के साथ शिरोमणि अकाली दल सुखदेव सिंह भी है। इस गठबंधन को उम्मीद है कि पंजाब की हिंदू आबादी, कैप्टन अमरिंदर का अपना समर्थक आधार मिलकर ऐसा वोटबैंक जरूर बना लेगा, जो मुकाबले में रहेगा। वैसे पंजाब के संजीदा लोगों के एक बड़े हिस्से को भी प्रधानमंत्री के साथ हुई पंजाब सरकार की बदसलूकी पसंद नहीं आई है। अमरिंदर-भाजपा मोर्चे को इस वर्ग से भी उम्मीदें बनी हुई हैं। अगर यह गुस्सा वोटिंग के दिन तक कायम रहेगा तो यह मोर्चा भी पंजाब में भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन भी अपनी मौजूदगी दिखा सकता है।

पंजाब के राजनीतिक समीकरण को तहस नहस करने में कृषि कानूनों के विरोध में संघर्षरत रहे किसानों के संगठन संयुक्त किसान मोर्चा ने बड़ी भूमिका निभाई है। बलवीर सिंह राजेवाल के नेतृत्व में यह संगठन भी विधानसभा चुनाव में उतर गया है। माना जाता है कि राज्य की 117 विधानसभा सीटों में से 77 पर किसानों का सीधा असर है। हालांकि टिकटों के बंटवारे को लेकर इस मोर्चे में भी दरार पड़ गई है। साझा पंजाब मोर्चा के बैनर तले किसान संगठनों का बागी गुट भी चुनावी मैदान में उतर गया है।

पिछले विधान सभा चुनाव में दूसरे स्थान पर रही आम आदमी पार्टी के पंजाब प्रभारी राघव चड्ढा तो अभी से ही अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हो गए हैं। हालांकि टिकटों के बंटवारे को लेकर आम आदमी पार्टी में भी काफी खींचतान रही है। जालंधर में तो आक्रामक कार्यकर्ताओं से बचकर खुद राघव चड्ढा को ही भागना पड़ा। फिर कथित तौर पर टेलीफोनिक सर्वेक्षण के बाद पार्टी ने राज्य से अपने इकलौते सांसद और पूर्व हास्य कलाकार भगवंत मान को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया है। भगवंत मान भले ही सांसद हैं, लेकिन उनकी निजी जिंदगी और कार्यकलापों पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। एक दौर में उन पर शराबखोरी के आरोप लगे। लोकसभा की पूर्व स्पीकर सुमित्रा महाजन से तो सांसदों ने उन्हें नशा पुनर्वास केंद्र में भेजने की मांग तक की थी। मान की यह छवि आम आदमी पार्टी पर भारी पड़ती नजर आ रही है। पार्टी के कार्यकर्ताओं को चुनावी अभियान के दौरान इसे लेकर सफाई देनी पड़ रही है। पंजाब में प्रचार की कमान संभाल रहे एक नेता ने अनाम रहने की शर्त पर बताया है कि मान को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने के बाद आम आदमी पार्टी के सामने मुश्किलें बढ़ी हैं। हालांकि पार्टी को उम्मीद है कि वह इससे पार पा लेगी।

इस तरह देखें तो पंजाब में चौमुखी मोर्चे खुल गए हैं। एक मोर्चा कांग्रेस का है तो दूसरा भाजपा-अमरिंदर गठबंधन का तो तीसरा आम आदमी पार्टी का तो चौथा किसानों का। वैसे कांग्रेस में भी सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। नवजोत सिंह सिद्धू तो अमृतसर की सभा में खुलकर राहुल गांधी से पूछ बैठे कि कौन मुख्यमंत्री बनेगा। कांग्रेस में सिद्धू के बड़बोलेपन और आक्रामक राजनीति से कांग्रेस के अंदर मुख्यमंत्री चन्नी समेत कई नेता असहज महसूस कर रहे हैं। सिद्धू के चलते कुछ विधायकों के टिकट भी काटे गए हैं। साफ है कि पंजाब की चुनावी तसवीर साफ नहीं है। इसलिए कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता है कि पंजाब में त्रिशंकु विधानसभा की संभावनाएं बनती जा रही हैं।

राज्य में बेरोजगारी, किसानों की समस्याएं, ड्र्ग्स और गुरू ग्रंथ साहिब से बेअदबी की घटनाएं सबसे बड़ा मुद्दा हैं। अंदरूनी स्तर पर यहां सक्रिय धर्मांतरण समर्थक गिरोह भी अपने ढंग से चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश में लगे हैं। यहां के दलितों में ईसाई मिशनरियों की बढ़ती पैठ और उनके जरिए पंजाब के सूबाई क्षेत्रों की जनसांख्यिकी बदलने की कोशिश भी यहां का चुनावी मुद्दा है। इसलिए राष्ट्रवादी ताकतें जहां चाहती हैं कि पंजाब की जनता उसे ऐसे हाथों में सौंपे, जिन्हें राष्ट्र से प्यार है तो विखंडनवादी ताकतें चाहती हैं कि वितंडावादी ताकतों को सत्ता की ताकत मिले। अब पंजाब की जनता पर है कि वह किसे चाबी सौंपती है। वैसे खालिस्तान समर्थक खूनी आतंकवाद की पंजाब को याद होगी, पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की खूनी करामात याद होगी तो पंजाब के लोग ऐसे कदम उठाने से बचेंगे, जो उसे शांति और समृद्धि की राह से अलग ले जाएं।

Updated : 1 Feb 2022 3:00 PM GMT
Tags:    
author-thhumb

Swadesh News

Swadesh Digital contributor help bring you the latest article around you


Next Story
Top