संगीत वह साधना है जो जीवन को स्वर देती है - पं. राजा काले

संगीत वह साधना है जो जीवन को स्वर देती है - पं. राजा काले
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वर्ष 2024 के राष्ट्रीय तानसेन सम्मान से विभूषित पं. राजा काले से विशेष बातचीत

चंद्रवेश पांडे

भोपाल। पंडित राजाराम उपाख्य राजा काले हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के ऐसे अनूठे गायक हैं जिनकी गायकी में ग्वालियर, आगरा और जयपुर घरानों की परंपरा का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है। वे गायक तो हैं ही एक कुशल संगीतज्ञ और शोधकर्ता भी हैं। मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग ने पंडित राजा काले को वर्ष 2024 के तानसेन सम्मान से विभूषित किया है। सम्मान से अभिभूत पंडित राजा काले ने कहा कि यह सम्मान मेरे लिए खुशी और सौभाग्य की बात है। तानसेन बहुत बड़ी हस्ती थे। उनके नाम का प्रतिष्ठापूर्ण सम्मान मिलना ईश्वर की कृपा ही कहा जाएगा। सच कहूं तो मेरी हैसियत कुछ भी नहीं, यहां सब गुरुजनों का प्रताप है, जिनकी छत्रछाया में मैं थोड़ा बहुत सीख और कर पाया हूँ। मैं इसके लिए मध्यप्रदेश शासन और संस्कृति विभाग का हृदय से आभारी हूँ। पंडित राजा काले के सांगीतिक अवदान का फलक विस्तृत है। उन्होंने स्वदेश से बातचीत में अपनी संगीत यात्रा, गुरु शिष्य परंपरा, अपने अनुभवों के बारे में विस्तार से बात की। प्रस्तुत है इस बातचीत के खास अंश -

प्रश्न : पंडितजी, आपको तानसेन सम्मान मिलने की हार्दिक शुभकामनाएं। संगीत का आपके जीवन में क्या महत्व है, आपके संगीत-सफर की शुरुआत कैसे हुई?

उत्तर : संगीत मेरे लिए घर की हवा जैसा था। वास्तव में संगीत ऐसी साधना है जो जीवन को स्वर देती है। संगीत से जुड़ा व्यक्ति कभी भी अशालीन नहीं हो सकता जहां तक मेरे सांगीतिक सफर की बात है तो ये घर से ही शुरू हुआ। मेरे पिता, प्रभाकरराव काले, स्वयं संगीतज्ञ थे, और उन्हीं से मैंने प्रारंभिक दीक्षा ली। बाद में पंडित उत्तमराव अग्निहोत्री से औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। संगीत की गहराई में उतरने की वास्तविक प्रेरणा मुझे पंडित जितेंद्र अभिषेकी जी से मिली। उनके सान्निध्य में मैंने न केवल गायकी सीखी, बल्कि यह भी सीखा कि संगीत साधना का अर्थ आत्मानुशासन और सृजनशीलता है।

प्रश्न: आपके संगीत में ग्वालियर घराने की झलक तो स्पष्ट है, परंतु आपकी गायकी कई घरानों के तत्वों का संगम है। इसके पीछे क्या विचार रहा?

उत्तर: संगीत की परंपरा सीमाओं में नहीं बंधी होती। मैंने अपने गुरुजनों पं. जितेंद्र अभिषेकी, पं. सी.पी. रेले, और पं. बालासाहेब पूछवाले- से सीखा कि हर घराने का सार 'स्वर-सत्य' की खोज में है। मैंने पं. एस.एन. रातंजनकर 'सुजान ', पं. रामाश्रय झा 'रामरंग ', और पं. सी.आर. व्यास जैसे महान कलाकारों का अध्ययन किया है। मेरी कोशिश हमेशा रही है कि उनकी मौलिकता के प्रति निष्ठा रखते हुए अपनी कल्पना से उसे नया आयाम दूं।

प्रश्न : आप कई दफा ग्वालियर गए हैं, ग्वालियर घराने की तालीम भी आपने ली है, एक घराने के तौर पर ग्वालियर को कैसे देखते हैं?

उत्तर : ग्वालियर तो वास्तव में खयाल गायन की गंगोत्री है। यहां एक से बढ़कर एक गुणी कलाकार हुए हैं, चाहे वे पंडित कृष्णराव शंकर पंडित जी हों या बाला साहब पूछवाले। इन सबका संगीत जगत में बड़ा योगदान है। यहां के श्रोता भी गुणी है। वे अच्छा गाने पर शाबासी देते हैं और खराब गाने पर टोकते भी हैं। मैं सौभाग्यशाली हूं कि मुझे ग्वालियर में हर बार असीमित प्यार मिला है।

प्रश्न : आपने खयाल में बंदिशों का महत्व पर शोध किया है। इस विषय को चुनने के पीछे क्या कारण रहा ?

उत्तर: खयाल की आत्मा उसकी बंदिश में बसती है। बंदिश ही वह आधार है, जिस पर राग का संपूर्ण स्वरूप खड़ा होता है। मैंने देखा कि आजकल बंदिश पर ध्यान कम दिया जाता है। इसलिए मैंने बंदिश की कलात्मक प्रस्तुति पर काम किया- यह समझने के लिए कि कैसे शब्द, लय और भाव मिलकर एक राग को जीवंत करते हैं। इस शोध को करते हुए मेरी गायकी और भी गहराई में उतरी है। पुराने लोगों ने जो बंदिशें तैयार की हैं वे अद्भुत हैं।

प्रश्न : आपको भारत सरकार की संस्कृति विभाग से 'वरिष्ठ फेलोशिप' प्राप्त हुई है। इसके बारे में कुछ बताएं?

उत्तर : यह मेरे लिए सम्मान की बात थी। इस फेलोशिप के अंतर्गत मैं महान गायकों- पं. भीमसेन जोशी, पं. कुमार गंधर्व, पं. जितेंद्र अभिषेकी और पं. जसराज की गायकी का तुलनात्मक अध्ययन किया है। उद्देश्य यह है कि आने वाली पीढ़ियां समझ सकें कि इन कलाकारों ने एक ही परंपरा में रहते हुए कितनी भिन्न दृष्टियां प्रस्तुत कीं।

प्रश्न : आपकी गायकी की एक विशेषता यह मानी जाती है कि आप शास्त्रीय और अर्ध-शास्त्रीय दोनों में समान रूप से निपुण हैं। आप इसे कैसे संतुलित करते हैं?

उत्तर : मेरे लिए संगीत एक ही प्रवाह है। चाहे खयाल हो, ठुमरी, टप्पा, नाट्यगीत या भजन, हर रूप अपने भाव का विस्तार है। मेरी कोशिश रहती है कि तकनीकी शुद्धता और भावात्मक गहराई, दोनों में संतुलन बना रहे। यही शास्त्रीयता का सौंदर्य है।

प्रश्न: आपने कई प्रतिष्ठित समारोहों में प्रदर्शन किया है- जैसे तानसेन समारोह और सवाई गंधर्व महोत्सव। क्या कोई ऐसा क्षण है जो आपके लिए अविस्मरणीय हो?

उत्तर : हर मंच एक नया अनुभव होता है, पर तानसेन समारोह ग्वालियर में गाना मेरे लिए अत्यंत भावनात्मक क्षण था। वही भूमि, जहां संगीत सम्राट तानसेन ने साधना की, वहां राग प्रस्तुत करना- वह अनुभूति शब्दों से परे है। अब जब सम्मान मिल रहा है तो मैं और भी उत्साहित हूं।


प्रश्न: आज के युवा कलाकारों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

उत्तर : आज के कलाकारों में अपार प्रतिभा है, परंतु धैर्य और अध्ययन की गहराई बनाए रखना आवश्यक है। तकनीकी साधन मदद करते हैं, परंतु अंतत: साधना आत्मा से होती है। अपने गुरुजनों और परंपरा का सम्मान करें, वही आपको अपनी अलग पहचान देगा। संगीत केवल सुनने की चीज नहीं, जीने की प्रक्रिया है। यदि हम स्वर में ईमानदारी रखें, तो वह ईश्वर से संवाद बन जाता है। यही मैं अपने हर राग में महसूस करने की कोशिश करता हूं। 'संगीत वह साधना है जो जीवन को स्वर देती है।

प्रश्न : आपने कई विद्वान गुरुओं से संगीत की शिक्षा ली है , लेकिन आपको सर्वाधिक किसने प्रभावित किया ?

उत्तर : मैंने अपने पिता प्रभाकरराव काले से प्रारंभिक दीक्षा ली। बाद में पंडित उत्तमराव अग्निहोत्री से औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया, लेकिन सबसे ज्यादा पंडित जितेंद्र अभिषेकी जी के व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वाकई गुरुजनों का मेरे जीवन पर कोई असर नहीं रहा। गुरुवर्य पं. जितेंद्र अभिषेकी मेरे लिए केवल गुरु नहीं, बल्कि माता पिता, सखा और अंतरंग मार्गदर्शक रहे। उनकी रचनाएं, सौंदर्यदृष्टि-युक्त संगीत और शाश्वत परंपरा का आदर-यही मेरी साधना का मूल है। वे दीखते नहीं, लेकिन हर राग, हर तानपूरा उनकी उपस्थिति का अनुभव कराता है। 1968 के लोनावला गुरुकुल में उनका अनुशासन, विचार और भाव-समृद्ध गायकी आज भी मेरी दिशा हैं। 'स्वराभिषेक गुरुकुल' के माध्यम से उनके चिरंतन संगीत को आगे पहुंचना ही मेरे जीवन का व्रत है। उनके आशीर्वाद से यही साधना ईश्वर तक पहुंचे-यही प्रार्थना है।

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