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हिंदवी स्वराज के लिए बढ़ते कदम

हिंदवी स्वराज के लिए बढ़ते कदम
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जहाँ ये युद्ध हुआ था उस जगह को शिवाजी ने बाजीप्रभु देशपण्डे के सम्मान में 'पावन खिंड अर्थात' पवित्र रास्ता नाम दिया। तभी से इस युद्ध को पावन खिंड युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध से स्पष्ट होता है कि यह युद्ध कोई साधारण युद्ध नहीं था किस प्रकार की परिस्थिति में इस युद्ध को जीतने अपने छत्रपति की रक्षा करने हेतु यह वीर सैनिकों ने लगभग 60 किलोमीटर दौड़ लगाई। दौड़ते युद्ध लड़ा वीरगति को प्राप्त हुये पर विजय प्राप्त की। जिन विषम परिस्थितियों में दौड़ते हुये विजय प्राप्त की वह भी व्यक्तिगत विजय नहीं, इस राष्ट्र को मुगलो द्वारा किये जा रहे अत्याचारों से मुक्ति व हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना करने वाले रक्षक की रक्षा हेतु दौड़े। पर विसंगति देखिए भारत में दौड़ तो होती है पर मैराथन के नाम से जिसका राष्ट्र संस्कृति शौर्य बल, बुद्धिमत्ता से कोई भी लेना-देना नहीं है। आज आवश्यकता है पावन खिंड दौड का आयोजन सम्पूर्ण भारत में हो जिससे इस देश का नागरिक स्वावलंबी राष्ट्र भक्ति से ओतप्रोत बने स्वाभिमान जाग्रत हो।

भारत के बुद्धि कौशल के बारे में आज भी विश्व के अनेक देश चकित है। दुनिया के विभिन्न युद्धों में भारत के असंख्य लोगों के द्वारा जो पराक्रम दिखाया है उससे स्पष्ट होता है कि भारत बुद्धि के साथ-साथ पराक्रम, वीरता, साहस में कभी कम नहीं रहा। हर आक्रमणकारी द्वारा भारत में किये गये आक्रमणों के समय भारत के वीर बहादुरों ने कभी अपनी पीठ नहीं दिखाई। बल्कि भारत के पराक्रम को देखकर दुश्मनों ने दांतों तले अंगुली दबाई है, फिर चाहे सिकन्दर हो जो भारत की सीमा से विश्व विजेता का सपना लिये जिन्दा बाहर नहीं जा सका, शक, कुषाण जैसे आक्रमणकारियों को भारत ने अपनी शक्ति के दम पर आत्मसात कर लिया, मुगलों व अंग्रेजों की नीति ने निश्चित ही भारत की अस्मिता पर नजरें लगायी पर समय-समय पर इनका प्रतिरोध लेने वाले वीर पुत्र अपनी मां की सेवा में समर्पित होकर लगे रहे।

निश्चित है कि विभिन्न परिवर्तनों में इन विभिन्न आक्रमणकारियों के प्रयास सफल हुये जिनमें वर्तमान की पीढ़ी बहुत प्रभावित हुई। गर्व करने वाले विषयों में इन आक्रमणकारियों की नीति कुछ तथाकथित समाज के कुछ लोगों द्वारा सफल कर दी। फिर चाहे, शिक्षा के क्षेत्र से, खेल के क्षेत्र से, बौद्धिक क्षेत्र, रक्षा क्षेत्र अनेकों क्षेत्र में इन लोगों द्वारा किये गये अपने विचार वर्तमान पीढ़ी के कुछ लोगों द्वारा स्वीकार कर लिया गया। जिसके कारण अपने अनेकों महापुरुषों द्वारा दिया गया योगदान को भी भुला दिया गया। ऐसे ही एक महापुरुष की चर्चा करना निश्चित ही उस अवसर पर आवश्यक हो जाता है जबकि उनकी जयंती सम्पूर्ण भारत का समाज मनाने की तैयारी कर रहा है।

हम बात कर रहे हैं छत्रपति शिवाजी महाराज की जिनकी बुद्धि कौशल, वीरता, अदम्य साहस को सम्पूर्ण विश्व जानता व मानता है कि कैसे विपरीत परिस्थिति में भी अपने बुद्धि कौशल व साहस से दुश्मनों को चकमा दे देते थे। अपने जीवन से अनेकों युद्ध किये और उनके सामने दुश्मन भी कोई कम नहीं। मुगल, औरंगजेब, आदिलशाह जैसे आक्रमणकारियों ने क्या कुछ नहीं किया शिवाजी को मारने या पकडऩे के लिये पर हर बार ही यह मुगल आक्रमणकारी को खाली हाथ ही रहना पड़ा। अनेकों प्रयास शिवाजी महाराज द्वारा किये जिनमें से एक विशेष प्रयास की चर्चा नितान्त आवश्यक है कि एक ऐसा युद्ध जो सब कुछ हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना करने वाले यशस्वी संस्थापक छत्रपति शिवाजी की एक ऐसी नीति जिसने इन मुगलों के दांत खट्टे कर दिये इस,का नाम है-


पावन खिंड की विजयी शौर्यगाथा इस विषय पर समाज के उन लोगों को जानने का पूर्ण अधिकार है जिनका इस मातृभूमि के प्रति विश्वास तथा मातृभूमि के लिए समर्पित हुये वीर पुत्रों का योगदान अविस्मरणीय है? जो यह बताता है कि क्या यह शब्द पावन खिंड समाज से प्रचलित होना चाहिए या नहीं जिसको जीतने के लिये मुट्ठी भर सैनिकों ने किस प्रकार हजारों सैनिकों से युद्ध कर अपने चक्रवती को वहां से सुरक्षित निकाला और अपना सर्वास्व बलिदान किया।

बात है 1660 ई के इस युद्ध से 7 माह पूर्व 1659 को हुए महाराष्ट्र के कोरहापुर के युद्ध से जब शिवाजी महाराज ने आदिलशाही सेनाओं को हरा कर उनके कई इलाकों पर अधिकार जमा लिया था, तो इससे बीजापुर का सुल्तान गुस्से में आ गया। उसके बाद आदिलशाह ने अपने क्रूर सेनापति सिद्धी जौहर के नेतृत्व में 10 हजार की विशाल सेना शिवाजी को काबू में करने के लिए भेजी। अफजल खान को शिवाजी ने मारा था, इसलिए फजलखान शिवाजी को अपना कट्टर दुश्मन मानता था।

सिद्धी जौहर शिवाजी को पन्हाला के किले में घेरने में कामयाब हो जाता है। (2 मार्च 1660) सिद्धी जौहर 15 हजार सैनिकों के साथ किले को घेर रखा था, लेकिन किला इतना बड़ा था कि 15 हजार शत्रु सैनिक भी इसे अपने कब्जे में नहीं ले सकते थे। लगभग 4 महीने यानि जुलाई 1660 तक आदिलशाही सेना पन्हाला के किले को घेरे हुए थी, इस समय में शिवाजी ने किले के अंदर से दुश्मन की सेना पर गोले दागने जारी रखे। भारी नुकसान की वजह से आदिलशाही सेना अपने डेरा किले से परे किसी स्थान पर ले जाने की सोचने लगा। बीजपुरी फौज शिवाजी के किले के अन्दर से किये जा रहे हमलों से डर गई थी, इसलिए उन्होंने सोचा कि पन्हाला के किले से पहले पास ही पवनगढ़ किले पर कब्जा किया जाए। पवनगढ़ का किला पन्हाला के किले से सिर्फ 3-4 किलोमीटर दूर था आदिलशाही सेना ने पन्हाला किले के घेरे में अपने सैनिक कम कर दिए। फिर उन्होंने पवनगढ़ के किले के पास एक पहाड़ी पर कब्जा करके पवनगढ़ किले पर गोलाबारी शुरु कर दी।

शिवाजी को पता था कि अगर पवनगढ़ किले दुश्मनों के कब्जे में आ गया तो पन्हालगढ़ के किले को आसानी से कब्जे में लिया जा सकता था। इसलिए शिवाजी 13 जुलाई 1660 की अंधेरी रात को पन्हाला किले से किसी तरह बाहर निकल गए और किले में केवल उतने सैनिक छोड़ गए जो किले पर कब्जा जमाए रख सकें।

शिवाजी की योजना विशालगढ़ जाने की थी और विशालगढ़ जाने का रास्ता पवनगढ़ से होकर जाता था, यहां पर आदिलशाही सेना डेरे लगाए बैठी थी, ताकि पवनगढ़ को कब्जे में लिया जा सके। शिवाजी अपने सैनिकों समेत आदिलशाही डेरे पर टूट पड़े जिन्हें इस हमले की जरा सी भी भनक नहीं थी। इस हमले से पैदा हुई हफड़ा दफड़ी में शिवाजी अपने साथ 700 सैनिकों को लेकर विशालगढ़ की ओर निकल गए जिसका पता दुश्मनों को बाद में लगा। विशालगढ़ वहीं से 50-60 किलोमीटर दूर था।

फजल खान के नेतृत्व में 10 हजारी आदिलशाली फौज शिवाजी का पीछा करने के लिए निकल पड़ी। वो रात पूनम की रात थी, इसलिए चांद की तेज रोशनी में ना शिवाजी को रात के अंधेरे की दिक्कत हुई और ना पीछा कर रही दुश्मन सेना को। जब सूरज चढ़ आया तो शिवाजी को पता चला कि विशालगढ़ सिर्फ 10-15 किलोमीटर दूर रह गया है और वो इस बात से भी अवगत थे कि आदिलशाही सेना उनका पीछा करते हुए पास आ पहुंची है।


शिवाजी के मुकाबले दुश्मन की सेना बहुत ज्यादा बड़ी थी और वो सभी थक चुके थे पथरीले संकरे तंग रास्ते पर रात भर चलते चलते जंगल के रास्ते रात भर बारिश से रास्ते में कीचड़ दलदल से रास्ते बहुत कठिन हो गया था। आगे-आगे शिवाजी की थोड़े से सैनिक, पीछा करती हुई आदिलशाह की विशाल सेना भागते-भागते वीर सैनिकों का रास्ता बारिश ने और तंग कर दिया। शिवाजी के लिए खुशी की बात तो यह थी कि आगे तंग रास्ता था जहां पर छोटी सी सेना बड़ी सेना का मुकाबला कर सकती थी। शिवाजी के एक सरदार बाजी प्रभु देशपांडे उनके विशालगढ़ किले पहुंचने तक उस रास्ते में बीजापुरी सेना को रोकने के लिए अड़ गए। उन्होंने शिवाजी से कहा कि वो किले पर सही सलामत पहुंचने पर 3 गोले दागकर इन्हें संकेत दे दें। उन्होंने कहा कि युद्ध की तैयारी करो बाजी...शायद यह हमारा अंतिम युद्ध है... हमारी सेना उनके मुकाबले बहुत कम है... उनके मुकाबले के हथियार हमारे पास नहीं है, लगता है, हम विशालगढ़ तक नहीं पहुुंच पायेंगे।

शिवाजी महाराज ने बीजापुर से लडऩे आयी विशाल सेना को देखकर कहा ''महाराज आप जाइए जब तक मैं खड़ा हूँ मैं इन्हें यह घाटी को पार नही करने दूंगा। स्वराज को आपकी जरूरत है'' बाजीप्रभु ने शिवाजी महाराज को कहा।

शिवाजी महाराज ने बाजी प्रभु को गले लगाया और कहा कि ''जैसे ही में ऊपर पहुंच कर तोप दाग दूँ तो समझ जाना मैं सुरक्षित ऊपर पहुॅच गया हूँ। तुम तुरंत वापिस आ जाना। ''

तो शुरू हुआ पावन खिंड़ का युद्ध-: शिवाजी महाराज बाजीप्रभु को घोड़-खिंडी (पावनखिंड नाम से पहले का नाम) दर्रे पर छोड़ विशालगढ़ की ओर बढ़ गये। विपक्षी सेना की पहली टुकड़ी दर्रे के निचे आ खड़ी हुई। वही बाजीप्रभु के पास लगभग 300 सैनिक तथा 10 हजार आदिलशाही फौज को रोकने के लिए। आदिल शाही सेना में तीन बार ताबड़तोड़ हमले किये जो मराठो द्वारा बेकार कर दिए गए। लगभग 5 घंटे तक घमासान युद्ध चलता रहा जिसमें हजारों की आदिलशाही फौेज 300 मराठो को बांध नही पाई उधर शिवाजी महाराज कुछ सैनिको के साथ विशालगढ़ की ओर बढ़ रहे और विशालगढ़ के दुर्ग पर तैनात मुगल शत्रु के सैनिकों को मारते काटते हुये विशालगढ़ दुर्ग पर पहुॅचे। इधर बाजीप्रभु व उनके साथ कुछ सैनिक हजारों आदिलशाह के सैनिकों को मारते काटते जा रहे थे बाजीप्रभु दोनों हाथो से तलवार द्वारा शत्रु सेना को ऐसे काटते जा रहे जैसे गाजर-मूली को काटा जा रहा हो। अनगिनत घाव की परवाह किये बिना बस इस इन्तजार में थे कि महाराज विशालगढ़ दुर्ग पहुॅचे और तोप के गोले को दागे। लगातार हो रही मार से सैनिक भी थक चुके थे पर फिर भी शत्रु की सेना को इंच मात्र भी आंगे नहीं बढऩे दिया कुछ समय पश्चात् तोप के गोले की आवाज सुनाई दी और बाजीप्रभु चैन की सांस लेते हुये अनगिनत घाव को सहते हुये जमीन पर लहुलूहान अवस्था में गिर पड़े और कई सैनिकों के साथ बाजीप्रभु शहीद हो गये। बाजीप्रभु कई घावों के कारण जमीन पर पड़े हुये थे और उनके सैनिकों ने अपना काम जारी रखा हुआ था। शिवाजी के सही सलामत पहुॅचने की खबर ने उन्हें अपने अंतिम समय में खुश कर दिया था। वीर बाजीप्रभु शिवाजी के लिए और हिन्दु स्वाराज के लिए वीरगति को प्राप्त हो चुके थे।

जीवित बचे मराठा सैनिक अपने सरदार के पार्थिक शरीर को लेकर किले की ओर निकल पड़े। आदिलशाही सेना ने विशालगढ़ के भयानक किले को घेरा डालने का इरादा छोड़ दिया और वापिस पहागढ़ लौट गये।

जहाँ ये युद्ध हुआ था उस जगह को शिवाजी ने बाजीप्रभु देशपण्डे के सम्मान में 'पावन खिंड अर्थात' पवित्र रास्ता नाम दिया। तभी से इस युद्ध को पावन खिंड युद्ध के नाम से जाना जाता है।

समय लगता है स्वराज्य बनने में। छत्रपति बिना बलिदान के नहीं बनते। कुछ घंटे की लाइनों और निजी नुकसान से हारना नही है। मैदान छोड़ भागना नही है। यह युद्ध वर्तमान तथा भविष्य के लिये एक प्रेरणादायी कारण हो सकता है लेकिन तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा गौरवशाली अतीत को भुला कर अपनी-नई व्यवस्था लागू करने का प्रयास सतत् चल रहा है।

प्रश्न यह है कि क्या इस प्रकार का प्रसंग समाज में नही जाना चाहिए कि आक्रमणकारियों की छल नीति को पराजित करने का साहस जिसने दिखाया, उसे समाज में प्रेरणादायी बना कर उस दिशा में काम हो।

इस युद्ध से स्पष्ट होता है कि यह युद्ध कोई साधारण युद्ध नहीं था किस प्रकार की परिस्थिति में इस युद्ध को जीतने अपने छत्रपति की रक्षा करने हेतु यह वीर सैनिकों ने लगभग 60 किलोमीटर दौड़ लगाई दौड़ते युद्ध लड़ा वीरगति को प्राप्त हुये पर विजय प्राप्त की। विषम परिस्थितियों में दौड़ते हुये विजय प्राप्त की वह भी व्यक्तिगत विजय नहीं, इस राष्ट्र को मुगलो द्वारा किये जा रहे अत्याचारों से मुक्ति व हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना करने वाले रक्षक की रक्षा हेतु दौड़े। पर विसंगति देखिए भारत में दौड़ तो होती है पर मैराथन के नाम से जिसका राष्ट्र संस्कृति शौर्य बल, बुद्धिमत्ता से कोई भी लेना-देना नहीं है। आज आवश्यकता है पावन खिंड दौड का आयोजन सम्पूर्ण भारत में हो जिससे इस देश का नागरिक स्वावलंबी राष्ट्र भक्ति से ओतप्रोत बने स्वाभिमान जाग्रत हो।

-डॉ. दिनेश सिंह कुशवाह माधव महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक एवं क्रीडा भारती के प्रांत मंत्री

Updated : 17 Feb 2019 6:12 PM GMT
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Naveen Savita

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