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प्रकृति की गुनगुनाहट बसंतोत्सव

प्रकृति की गुनगुनाहट बसंतोत्सव
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नवल बसंत नवल वृंदावन, नवल ही फूले फूल

राग छेड़ो आज मन का

स्वर जगाओ यामिनी।

कह रहीं आकुल हवाएं

गुनगुनाने का समय है।।

प्रकृति ने भारत भूमि को मानव के सम्पूर्ण अपेक्षित उपकरणों से परिप्लावित कर रखा है। इसी शस्य श्यामला वसुन्धरा पर मानव साधनरत होकर अपने परम पुरुषार्थ की प्राप्ति करता है। मानव को मधुरत्व प्रदान करने का एक मात्र श्रेय प्रकृति को ही है। अत: मानव जीवन और प्रकृति का पारस्परिक सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ है। प्रकृति में बसन्त को मानव जीवन से पृथक रखकर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि बसंत में आनन्द की अनन्तता की पुष्टि भगवती शारदा के जन्म से की गई है। इसलिए बसंत के प्रकृति पर्व का प्रारम्भ भी भगवती शारदा स्वयं करती हैं।

श्री दुर्गासप्तशती के अनुसार सृष्टि में तीन महाशक्ति हैं। ये क्रमश: महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती के नाम से धरा में विख्यात हैं। भगवती सरस्वती बुद्धि, ज्ञान और संगीत की अधिष्ठात्री देवी हैं। वह ज्ञान मार्ग को प्रकाशित कर वाक् सिद्वि प्रदान करने वाली प्रकृतिप्रिया हैं। भगवती सरस्वती विशुद्ध ज्ञानमय, आनंन्दमय हैं और उनका स्वरुप दिव्य और अपरिमेय है एवं वह स्वर के रुप में सदा स्तुत होती रही हैं। ब्रहम्वैवर्तपुराण में उन्हें स्वर देवी कहा गया है-वागधिष्ठातृ देवी सा कवीनामिष्टदेवता।

भगवती सरस्वती सत्वगुण से सम्पन्न हैं। इन्हे वाग्देवी, वागेश्वरी, वाग्वादिनी, वाक्धीश्वरी, वाणी, गी:, गिरा, भाषा, शारदा, वाचा, हंसवाहिनी, सोमलता, प्रकृतिनायिका आदि प्रचलित नामों से जानते हैं। भगवती सरस्वती का महत्व व प्रभाव अतुलनीय है। ऋग्वेद में सरस्वती को वाग्देवी के साथ ही प्रकृति की रक्षिता कहा गया है। वे लोकहित के लिये संघर्ष करने वाली तथा सृष्टि निर्माण में सहायता करती हैं और वह प्रकृति की निर्मात्री हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण ऋतु बसंत का कामोद भरा आगमन है जो इस काव्य में निहित है 'सुक पिक चातक हंस मोर मृग, मधुकर मधुर करत रार, आयो बसंत कंत भज भामिति, लायो रतिपति पंचसर लार'।

सरस्वती ज्ञान की देवी हैं चाहे वह गद्य हो या पद्य, लेख हो स्वर हो या संगीत हो। बसंत का भारत के उत्सवों में अपना अलग ही महत्व है। कहीं पर यह धार्मिक है तो कहीं पर यह प्राकृतिक है। इसका एक प्रबल कारण यह है कि इस दिन भारत में ऋतु परिवर्तन होता है। प्रकृति शीतलता से उष्णता की ओर बढ़ती प्रतीत होने लगती है। मकरन्द का आस्वादन करने भ्रमर गान करने लगते हैं। खेतों में सर्वत्र पीली सरसों बसन्ती परिधान में प्रकृति का श्रंगार करती है।

सरस्वती को विद्या की देवी ऐसे ही नहीं कहा जाता। सरस्वती विद्यार्थी की जीवन भर रक्षा करती है। विद्याध्यन में आने वाली बाधाओं, समस्याओं से मुक्ति दिलाती है। हरपल विद्या के मार्ग में पग—पग साथ रह कर उसी प्रकार सहायक होती है। जिस प्रकार एक छोटा शिशु जब अपने नन्हे पैरों पर पहली बार बोझ देकर चलना सीखता है। तब मां उसे एक सहायक स्वरुप में हर कदम पर उसके साथ होती हैं। जब तक वह पूर्णत: चलने मे सक्षम नहीं हो जाता है। इसलिये सरस्वती को विद्यादायनी कहा जाता है। वह विद्या के प्रति संघर्षरत् पात्र को सदैव अपने सुरक्षा चक्रों में रखती है। जब ब्रहम ने अनंत सृष्टि की रचना की, तो उसने शक्ति को अपने पांच भागों मे विभक्त कर दिया। ये शक्ति राधा, सावित्री, दुर्गा और सरस्वती के रुप में ईश्वर के अंगो से उत्पन्न हुयी। श्रीमद्भागवत के अनुसार सरस्वती की सृष्टि श्रीकृृष्ण के कण्ठ से हुयी है। इसलिए ये सरस्वती बसंत नायिका है, बासन्ति वसुधा की कनकबेल हैं। वर्णपरिज्ञान के द्वारा वाक् प्रदान करने वाली और प्रकृति पर कलात्मक रंग की प्रकाश छाया की एक मात्र मूल स्रोत्र हैं। गीतं वाद्यं तथा नृत्य की परिधि में पूरी बसंत ऋतु प्रकृति का आलिंगन करती रहती है और मानव भी उसकी नूतनता में मोहक वातावरण में रस का पान करने को विवश हो जाता है।

बसंत पंचमी के उत्सव को ब्रज वृंन्दावन में बड़ा पुण्यदायक माना जाता है। बसंत आते ही ब्रजवासी गाने लगते हैं और राग सब बने बराती दूल्हा राग बसंत। मदन महोत्सव आज सखी री विदा भयो हेमन्त। यह यहां का सबसे बड़ा उत्सव है। क्योंकि ब्रज में सरस्वती पूजन के साथ ही चालीस दिन की रंग भरी होली प्रारम्भ हो जाती है। सम्पूर्ण ब्रज मण्डल के बादल में बसंत की सुगंधी राग रंग के साथ छाने लगती है। सभी ब्रजवासी पीले वस्त्रों को धारण कर मस्तक पर चंन्दन और गुलाल लगाकर कानों में बसन्ती पुष्प लगा बसन्त का स्वागत करते हैं। घर मन्दिरों में पीले पुष्पों की बंदनवार और फुलवारियों से सजावट होती है।

भारत में बसंत एक ऋतु न होकर जीवन के उत्सव का नायक है। चूंकि मनुष्य आनंन्द की चाह में सर्वत्र विचरण करता रहता है। इसी आनन्द की चाह ने उसको क्षणिक आत्मीयता की तरफ प्रेरित किया है। इसका एक कारण यह है कि बसंत प्रकृति का प्रभात काल है। इसमें प्रकृति अपनी बसंत सेनाओं के साथ श्रंगार को चली जाती है जैसे ऋतु बसंत चली अपनी उमंग सौ, पिय ढूढऩ निकसी घर सौ।

बसंत में प्रकृति नृत्य की मुद्रा में दिखायी देती है। वृक्ष अपने सभी पत्तों को गिराकर नये पत्तों की प्राप्ति में आतुर होते हैं। नदियों को प्रवाह मंद शीत का अनुभव कराता है और सर्वत्र बाग, बगीचों वन उपवनों घाट घाटियों में मोर, चातक, कोकिला के साथ अन्य पक्षी सहचरी बन गगन मंडप में कोलाहल करते विचरण करते नजर आते हंै। भ्रमर कमल को खोजने चल पड़ता है और कमल भी बसंत में उसे अपनी कर्णिका में स्थान देता है। बसंत संस्कृति के साथ ध्वनि, धर्म, स्मृति, सुरुचि, मधुर काव्य, नाटक और ललित कलाओं के विशेष निरुपण से संचित है। उसमें संगीत और चित्रकलाएं समाहित है। ब्रज में नागर नागरी की मंजू कुंज लीलाओं के आस्वादन में बसंत को प्रमुखता दी जाती है। क्योंकि बसंत का काव्य के साथ कलात्मक तथा शास्त्रीय गठबंन्धन ब्रज के सांस्कृतिक उत्कर्ष को प्रदर्शित करता रहा है। बसन्त के रुप की वर्णन शैली में अनेक कलापूर्ण योजनाएं दृष्टिगोचर होती है जैसे कि कुंज कुंज क्रीडा करैं, राजत रुप नरेस। रसिक, रसीलौ, रसभरौ, राजत श्री मधुरेस।।

मधुर भाव ही बसंत का मुख्य भाव है। गुन ग्राम, रुपसरोवर, सदा एकरस, प्रणय की पुनीत अरस परस क्रीड़ाएं बसंत को सहज समाज की परिसीमा तक पहुॅचाता है। अगर विषय वस्तु की दृष्टि से ब्रज बसंत को देखा जाये तो छह ऋतुओं में भी बसंत उत्साह सुख में दृष्टिगोचर होता है विशेषत: निकुंज लीला के प्रत्येक रुप में बसन्त अमृत की बूंद है।

प्राकृतिक संसाधनों के विदोहन, मरुभूमि के विस्तार, वनों के विनाश तथा मरती नदियों की जलधाराओं इत्यादि अनेक कारणों के फलस्वरुप बसंत का नवयौवन अवांछनीय लगने लगा है। बसंत के प्राकृतिक स्वरुप को असंतुलित करने के लिये हम ही उत्तरदायी है हमें अगर बसंत हर साल मनाना है या कहो बुलाना है तो शस्यश्यामल वसुन्धरा को हरा भरा रख उसके प्राकृतिक मधुरत्व को बनाये रखना होगा तभी बसंत का साक्षात् अनुभव होगा।

मधुकर चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार

Updated : 10 Feb 2019 2:33 PM GMT
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Naveen Savita

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