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नई रितु 'सावन' की फिर आयी

-प्रकृति परिवर्तन का उत्सव सावन मास -संस्कृति एवं उत्सवों का सिरमौर सावन मास -नव यौवन की ओर अग्रसर प्रकृति

नई रितु सावन की फिर आयी
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-मधुकर चतुर्वेदी

ग्रीष्म के कठोर मौसम के बाद अंबर में छाए काले कजरारे मेघ सावन के आगमन की सूचना दे चुके हैं। वर्षा की बूंदें प्रकृति में नवजीवन भरने को तैयार हैं। हरीतिमा की फैली चादर और ऊपर से पड़ती फुहार मानव तन-मन को हुलसाते हुए उसमें रस का संचार कर रही हैं। प्रेम अपने पात्र से छलकने लगा है। संवेदनशील मन में नए विचार और शब्द आने लगे हैं। ब्रज में गिरराज की तलहटी में चहुंओर गुंजायमान होते मोरों के मेघ स्वर प्रकृति को नव यौवन प्रदान कर रहा है। सावन आ गया है। एक बार फिर साहित्य सर्जना के अंकुर फूट रहे हैं 'बोले मोई गोवर्धन पर मुरवा। तेसीये श्याम घन मुरली बजाई तेसेही उठे झुकझुरवा। बड़ी बडी बूंदन वर्षन लाग्यो पवन चलत अति झुरवा। 'सूरदास' प्रभू तुम्हारे मिलन कों निश जागत भयो भुरवा'।

आनंद की सृष्टि करतीं सावन की बूंदें

सावन से जुड़ी हमारी परंम्पराओं की जड़ें बहुत गहरी हैं। जितनी भी भारतीय परम्पराएं लोकमानस में प्रचलित हैं, कहीं न कहीं वह हमें प्रकृति की गोद में आलिंगन हेतु बिठातीं हैं। सावन की प्रकृति ब्रहमस्वरुपा, मायामयी और सनातनी हैैं और इस प्रकृति में मनुष्य के आनंद की सृष्टि करतीं हैं सावन की बूंदें।

उत्सव की ओर अग्रसर होता मानव मन

चूंकि भारतीय मानस स्वभावतः प्रकृतिप्रेमी एवं उत्सवप्रिय है। प्रायः रितु परिवर्तन पर प्रकृति का अंचल परिवर्तित होता है। कहीं पर वह सुरम्य होती हैं, तो कहीं पर वह अपने परिवेश को बदलती हैं, तो कही पर वह उत्पत्ति की आभा से दिशा-विदिशाओं के साथ मन्थन करती हुई मनभावन होती जाती हैं। तभी मनुष्य आनन्दित होकर उत्सव की ओर जाता है और इसी उत्सव को हम सावन कहते हैं। सावन प्रकृति का कमल है और मनुष्य उसका मकरंद। इस कारण सावन और उत्सव मनुष्य को प्रकृतिप्रेमी बनाता है।

सावन का मनोवैज्ञानिक आधार

इसका एक मनोवैज्ञानिक आधार भी है। क्योंकि मनुष्य के साथ-साथ सम्पूर्ण प्रकृति रितु परिवर्तन का अनुभव करती है। उसकी दिनचर्या परिवर्तित हो जाती है। आहार, निद्रा के साथ उसके मन पर वातावरण का असर हो जाता है और वह अचानक ही सूरज की गरमी से शीतल बंदूों की ओर निहारने लगता है। यही शीतल बूंदें मानव का सावन बन जाती हैं। पावस के प्रारम्भ में पपीहे की कूहू से मोर चातक, मेढक, कोयल, सांप, बिच्छु, हंस, सारस, पपीहे की कोमल पुकार के साथ मानव मन से निकलते मल्हारों के प्रकारों से प्रकृति सभी ओर से संगीतमयी हो जाती है। जिधर भी देखों धरती वर्षा की बूंद रूपी सप्त स्वरों से गूंज उठती है। वृक्ष वायु से स्वर उत्पन्न करते है और इन सब के संयोग से तैयार हुई मानव मन की रागमाला से उत्पन्न हो जाता है 'सावन का उत्सव'

चातुर्मास्य के साथ पर्वो की श्रंखला

भारतीय प्रकृति की चिंतनधारा सदैव से आध्यात्मवादी रही है। सावन के प्रारम्भ में श्रीविष्णु के शयनोत्सव के रुप में चातुर्मास्य का नियम प्रारम्भ होता है। वर्षा के चार महीनें नक्षत्र दिवस के रुप में मनाए जाते हैं। प्रतिदिन नक्षत्रों का दर्शन कर एक बार भोजन करने का यह व्रत श्रावण से प्रारम्भ हो कर कार्तिक मास तक चलता है। इस चातुर्मास्य का सम्पूर्ण भारत में विशेष महत्व है। इन चार महीनों में कुछ उपयोगी वस्तुओं को त्याग देने का नियम पूरा होता है। पूरे चार मास विष्णुसूक्त के पावन मंन्त्रों द्वारा तिल और चावल की आहुति से यज्ञ का विधान हमें भारत के सभी तीर्थो पर दिखाई देता है, विशेषतः ब्रजमंडल में। सावन मास में जितने भी मंगलवार आते है वह मंगलवार ब्रज में मंगलागौरी के नाम से जाने जाते हैं। आज भी ब्रज में विवाह के बाद पांच साल तक महिलाएं इस व्रत को करती हैं। सूर्य की उर्जा के लिये किया जाने वाला अशून्यशयन व्रत भी सावन में किया जाता है।

ब्रज में झूला झूलते नहीं, झुलाते हैं।

सावन का सम्बंध हरियाली से है और तीन पर्व इसका आभास भी कराते हेैं। पहला हरियाली अमावस, हरियाली तीज और कज्जली तीज। तीनों का ही सम्बन्ध ब्रज में प्रिया और प्रियतम की निकुंज लीलाओं से है। हरियाली तीज का उत्सव भारत ही नही, अपितु विश्व में जहां भी भारतवंशी हैं वहां पर भी मनाया जाता है। इसी दिन से भारत में सभी जगह झूले डलते हैं लेकिन, ब्रज का झूला कुछ अनोखा है यहां झूला 'झूला' नही जाता बल्कि, झुलाया जाता है। रोज ही तरह-तरह के झूले ब्रजराज को अंगीकार कराए जाते हैं और श्यामा-श्याम के बैठने मात्र से ही यह उत्सव झूलनोत्सव बन जाता है। 'वृंन्दावन झूलत गिरवरधारी। सावन मास सरस घन बरसे तेसीये भूमि हरियाली। फूले कुसमु सुभग यमुना तट पवन बहत सुखकारी। बाजत ताल मृदंग बासुरी नाचत देकर तारी।

क्षमा-प्रार्थना का पर्व पवित्रा एकादशी

श्रावण शुक्ल पंचमी को महर्षि कश्यप और उनकी पन्नी कद्रु से उत्पन्न नागपंचमी का व्रत होता है। शास्त्रों में सूर्य के रथ में बारह नाग हैं, जो क्रमशः प्रत्येक मास में उनके रथ के वाहक बनते हैं। एक पर्व और है जो केवल ब्रज में ही मनाया जाता है जिसे 'पवित्रा एकादशी' कहते हैं। मनुष्य द्वारा वर्ष भर जो भी ज्ञात-अज्ञात पाप व गलतियां हुईं हैं, उसकी क्षमा मांगते हुए अपने अवगुणों को अपने से दूर किया जाता है। यह पर्व हमें सावन की मौलिकता से भी परिचित कराता है। क्योंकि प्रकृति अगर हमें नई भूमि, नई हरियाली और नया मेघ दे रही है तो उसका यह अर्थ नहीं कि हम उसका दोहन करें। गलती होने पर उसका आभास और उसकी निवृति हमें सावन से ही मिलती है और रक्षाबन्धन के पर्व के साथ ही प्रकृति सावन से घोर अन्धकारमयी भादों की रात्री में बदल जाती है।

सावन के साहित्य को सिकुड़ने से बचाना होगा

सावन जितना मनभावन है उतना कठोर भी। कभी-कभी यह ग्रीष्म से संधि कर बैठता है। बढ़ते शहरीकरण और भागम-भाग जीवनशैली के कारण सावन के साहित्य और परंपराओं पर बुरा असर पड़ा है। शहर में सावन को महसूस करने की संभावनाएं बहुत क्षीण होती हैं, इसलिए सावन से जुड़ी लोक परंपराए दम तोड़ रही हैं। सावन से जुड़ी परंपराएं व साहित्य कहीं सिकुड़ न जाए, इसके लिए हमें कुछ समय प्रकृति को अवश्य ही देना पड़ेगा। नहीं तो यह सावन कठोर हो जाएगा और अपनी सत्ता सूरज की गर्मी को सौंप देगा, फिर न रहेंगी बारिश की बूंदें, न मल्हार और न ही दिखेंगी प्रकृति की हरितिमा। हमसे बहुत दूर हो जाएंगे मेले, जहां न दिखेंगी ठेले है, जिन पर लगे होंगे खिलौनें।

Updated : 28 July 2018 11:19 PM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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