Home > स्वदेश विशेष > रानी बनकर आई मणिकर्णिका, महारानी बनकर विदा हुई

रानी बनकर आई मणिकर्णिका, महारानी बनकर विदा हुई

लेखक : अखिलेश श्रीवास्तव

रानी बनकर आई मणिकर्णिका, महारानी बनकर विदा हुई
X

महारानी के बलिदान दिवस पर आलेख : महारानी ने उन्तीस वर्ष के जीवन से ही अमरता प्राप्त कर ली...

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम एक दूसरे के पर्याय जैसे हैं। मनु, मणिकर्णिका , छबीली जैसे कर्ण प्रिय उपनामों से जब यह बालिका बचपन में पुकारी जाती होगी तो क्या किसी ने सोचा होगा कि अपनी प्यारी मनु को इतने संघर्षों वाले जीवन को जीना पड़ेगा ? क्या काशी के अस्सी घाट ने कभी सोचा होगा जिस मणिकर्णिका के मुख से किलकारियां इन घाटों पर गूंज रही है वहीं मुख कभी भीषण युद्ध का उद्घोष करेगा और अंग्रेजों को भयभीत कर देगा। मनु की मां सच में भागीरथ है, जिन्होंने महारानी लक्ष्मी बाई जैसी गंगा को धरा पर उतारा। यह गंगा मणिकर्णिका बन काशी से प्रवाहित हो झांसी और ग्वालियर तक पहुंची और भारतीय स्वतंत्रता और इतिहास का ऐसा सितारा बन गई जो हमेशा भारत के गौरव को प्रकाशित और सुशोभित करता रहेगा।

पेशवा बाजीराव के कारिंदे मोरोपंत जी ने काशी में रहते अपनी प्यारी बेटी मनु को शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दिलाई क्योंकि मनु का तेज इतना था कि घुड़सवारी तलवारबाजी उसके लिए खेल थे। जिस उम्र में बच्चे खिलौनों से खेलते हैं लक्ष्मीबाई तलवार से खेलती थी। हमें भले ही कुछ मालूम ना हो पर विधि को तो सब मालूम है। विधि ने जिसके लिए जो तय किया है उसका उसे सामना करना ही है, बात सिर्फ तैयारी की है, कि कौन कितनी तैयारी से उस विधान का सामना करता है। युद्ध कला में पारंगत हो रही मोरोपंत जी की इस बेटी को विधि के विधान ने 1850 में झांसी की रानी बना दिया। हर्षोल्लास के बीच यह किसको पता था कि मनु रानी लक्ष्मीबाई नहीं महारानी बनने की यात्रा पर चल निकली है। क्या होता है महारानी बनना यह इस बात से समझ सकते हैं कि जब रानी तीन दिन चले कालपी युद्ध के बाद घायल हो गई। पर अंग्रेजों की शरणागति में ना जाकर बाबा गंगादास से बोली कि मेरे मृत शरीर का एक कतरा भी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगना चाहिए।

शहीद चंद्रशेखर आजाद के आजाद रहने वाले संकल्प का यह पुरातन अंक था। शायद आजादी के मतवाले आजाद को रानी झांसी के इसी संकल्प से प्रेरणा मिली हो। जिस आजादी की लौ को रानी ने अट्ठारह सत्तावन में जलाया था , उसी सर्वस्व समर्पण के संकल्प से ही तो 47 की आजादी का सूर्य दैदीप्यमान हुआ। रानी लक्ष्मीबाई के विवाह और झांसी के बारिस के लिए हुए संघर्षों से कोई अनभिज्ञ नहीं है । झांसी के राजा गंगाधर राव से विवाह और उसके बाद पुत्र की प्राप्ति ने राज्य को उत्सवों में डुबो दिया था। हर्षोल्लास का कोई ठिकाना नहीं था। चार माह के पुत्र की मृत्यु ने रानी की वीरता की कितनी परीक्षा ली होगी यह तो भगवान ही जानता होगा। अंग्रेजों ने दत्तक पुत्र के लिए कितनी अड़चने डाली और झांसी राज्य को हड़पने के लिए जो जुल्म हो सकता था वह किया । राजा के स्वर्ग सिधारने के बाद रानी पर वज्रपात हो गया । मात्र छब्बीस वर्ष की उम्र में वैधव्य का दुख झेलना पड़ा। पर रानी ने हार नहीं मानी। वह चाहती तो अंग्रेजों से संधि कर अपना जीवन दूसरे राजाओं की तरह सुखमय कर सकती थी। पर रानी, धर्म की रक्षा के लिए कर्म में प्रवृत्त हो गई। ह्यूरोज जैसे अफ़सरों के सारे प्रयास उस महारानी के अदम्य साहस और वीरता के सामने बौने साबित हुए। रानी ने घुटने नहीं टेके, स्वाभिमान के साथ बलिदान करना पसंद किया।

महारानी की वीरता को वो 15 दिन बखान करते हैं जब झांसी के दक्षिणी मैदान पर अंग्रेजी पलटनो ने अपने तंबू लगा दिए। यह देखकर रानी डरी नहीं । युद्ध के प्रबंध में जुट गई। महारानी को धक्का तब लगा जब मोर्चा बांधने के लिए झांसी के जयचंदों ने अंग्रेजों की मदद की। पर रानी की सेना और उनके साहस ने अंग्रेजों की तोपों का 11 दिन तक सामना किया। युद्ध के चौथे दिन अंग्रेजी तोपों के गोलों ने किले के दक्षिणी बुर्ज को बंद करा दिया पर रानी का हौसला नहीं तोड़ सके । रानी ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया। सातवें दिन अंग्रेजों ने किले के पश्चिमी मोर्चे को तोड़ डाला रानी लक्ष्मीबाई ने अपने कारीगरों की चतुरता से सुबह तक फिर मोर्चाबंदी करली। सुबह वहां से अंग्रेजों की सेना पर ऐसे गोले बरसाए की अंग्रेजी सैनिकों में भगदड़ सी मच गई। झांसी के सामर्थ्य से ज्यादा, महारानी दस दिन तक लड़ती रही परंतु जब ग्यारवें दिन जिस झांसी के लिए यह रानी रंनचंडी बनी थी उस झांसी के मजदूरों ने घास के गट्ठर सर पर रख कर अंग्रेजों के पैसे लेकर किले पर अंग्रेजों को चढ़ा दिया। महारानी तब भी नहीं डरी और अपने पंद्रह सौ सिपाहियों को लेकर फिर अंग्रेजों पर टूट पड़ी। उसके बाद कालपी में तीन दिन तक भीषण युद्ध चला । अदम्य साहस के साथ लड़ती महारानी का घोड़ा सोनरेखा के प्रवाह को पार न कर सका। पीछे से कायर अंग्रेजों ने महारानी के सिर पर तलवार का वार कर दिया, पर रानी मैदान में गिरी नहीं, लड़ती रही। बाबा गंगादास के आश्रम पर भागीरथी की इस बेटी ने 18 जून अट्ठारह सौ अट्ठावन को महाप्रयाण किया। भारतीय इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम के स्वर्ण अक्षरों में महारानी लक्ष्मीबाई का नाम हमेशा एक ऐसे सूर्य की तरह चमकता रहेगा जो भारत के शोर्य की कहानी सदियों तक कहता रहेगा।


Updated : 17 Jun 2021 12:14 PM GMT
Tags:    
author-thhumb

Swadesh News

Swadesh Digital contributor help bring you the latest article around you


Next Story
Top