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लाल बहादुर शास्त्री ने नहीं किया कभी स्वाभिमान से समझौता

योगेश कुमार गोयल

लाल बहादुर शास्त्री ने नहीं किया कभी स्वाभिमान से समझौता
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शास्त्री जी की जयंती (02 अक्टूबर) पर विशेष

2 अक्तूबर 1904 को उत्तर प्रदेश में मुगलसराय में जन्मे भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री बचपन से ही इतने मेधावी थे कि हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज में पढ़ाई के दौरान प्रायः देरी से पहुंचने के बावजूद सजा के तौर पर कक्षा के बाहर खड़े रहकर ही पूरे नोट्स बना लिया करते थे। दरअसल वे घर से प्रतिदिन अपने सिर पर बस्ता रखकर कई किलोमीटर लंबी गंगा नदी को पार करके स्कूल जाया करते थे। वे गांधी जी के विचारों और जीवनशैली से बहुत प्रभावित थे। महात्मा गांधी ने एकबार भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय राजाओं की कड़े शब्दों में निंदा की थी। शास्त्री जी उससे इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने मात्र 11 वर्ष की आयु में ही देश के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने की ठान ली। जब वे सोलह वर्ष के थे, उसी दौरान गांधी जी ने देशवासियों से असहयोग आन्दोलन में शामिल होने का आह्वान किया था। शास्त्री जी ने उनके इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का ही निर्णय किया। परिजन पढ़ाई-लिखाई छोड़ने के उनके निर्णय के सख्त खिलाफ थे लेकिन शास्त्री जी ने किसी की एक न सुनी और असहयोग आन्दोलन के जरिये देश के स्वतंत्रता संग्राम का अटूट हिस्सा बन गए। स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के बाद उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया और वर्ष 1921 से लेकर 1946 के बीच अलग-अलग समय में नौ वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में बंदी भी रहे।

कांग्रेस सरकार के गठन के बाद शास्त्री जी ने देश के शासन में रचनात्मक भूमिका निभाई। रेल मंत्री, परिवहन एवं संचार मंत्री, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री, गृहमंत्री तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू की बीमारी के दौरान वे बगैर विभाग के मंत्री भी रहे। अपने मंत्रालयों के कामकाज के दौरान भी कांग्रेस पार्टी से संबंधित मामलों को देखते रहे। 1964 में जब वे देश के प्रधानमंत्री बने, तब भारत बहुत सारी खाद्य वस्तुओं का आयात किया करता था और अनाज के लिए एक योजना के तहत उत्तरी अमेरिका पर ही निर्भर था। 1965 में पाकिस्तान से जंग के दौरान देश में भयंकर सूखा पड़ा। अमेरिका द्वारा उस समय अपने एक कानून के तहत भारत में गेहूं भेजने के लिए कई अघोषित शर्तें लगाई जा रही थी, जिन्हें मानने से शास्त्री जी ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि हम भूखे रह लेंगे लेकिन अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं करेंगे। उसके बाद उन्होंने आकाशवाणी के जरिये जनता से कम से कम हफ्ते में एकबार खाना न पकाने और उपवास रखने की अपील की। उनकी अपील का देश के लोगों पर जादुई असर हुआ।

उन्हीं दिनों को याद करते हुए लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री कहते हैं कि एक दिन पिताजी ने घर के सभी सदस्यों को रात के खाने के समय बुलाकर कहा कि कल से एक हफ्ते तक शाम को चूल्हा नहीं जलेगा। बच्चों को दूध और फल मिलेगा और बड़े उपवास रखेंगे। एक हफ्ते बाद उन्होंने हम सबको फिर बुलाया और कहा कि मैं सिर्फ देखना चाहता था कि यदि मेरा परिवार एक हफ्ते तक एक वक्त का खाना छोड़ सकता है तो मेरा बड़ा परिवार अर्थात् देश भी हफ्ते में कम से कम एकदिन भूखा रह ही सकता है। दरअसल, उनकी सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि जो कार्य वे दूसरों को करने के लिए कहते थे, उससे कई गुना ज्यादा की अपेक्षा स्वयं से और अपने परिवार से किया करते थे। उनका मानना था कि अगर भूखा रहना है तो परिवार देश से पहले आता है। वे ऐसे इंसान थे, जो खुद कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी देखने में खुश और संतुष्ट होते थे।

शास्त्री जी का कहना था कि हमारी ताकत और मजबूती के लिए सबसे जरूरी है लोगों में एकता स्थापित करना। वे प्रायः कहा करते थे कि देश की तरक्की के लिए हमें आपस में लड़ने के बजाय गरीबी, बीमारी और अज्ञानता से लड़ना होगा। पाकिस्तान के साथ 1965 की जंग खत्म करने के लिए वे ताशकंद समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए ताशकंद गए थे। उस समय वे पूर्ण रूप से स्वस्थ थे लेकिन उसके ठीक एकदिन बाद 11 जनवरी 1966 की रात को एकाएक खबर आई कि उनकी हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई है। हालांकि उनकी संदेहास्पद मृत्यु को लेकर आजतक रहस्य बरकरार है।

शास्त्री जी को लेकर बहुत से ऐसे किस्से प्रचलित हैं, जो उनकी सादगी, ईमानदारी, देशभक्ति, नेकनीयती और स्वाभिमान को प्रदर्शित करते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 1940 के दशक में लाला लाजपत राय की संस्था 'सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी' द्वारा गरीब पृष्ठभूमि वाले स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों को जीवन-यापन हेतु आर्थिक मदद दी जाती थी। उसी समय की बात है, जब शास्त्री जी जेल में थे। उन्होंने जेल से ही अपनी पत्नी ललिता जी को पत्र लिखकर पूछा कि उन्हें संस्था से पैसे समय पर मिल रहे हैं या नहीं और क्या इतनी राशि परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है? पत्नी ने उत्तर लिखा कि उन्हें प्रतिमाह पचास रुपये मिलते हैं, जिसमें से करीब चालीस रुपये ही खर्च हो पाते हैं, शेष राशि वह बचा लेती हैं। पत्नी का यह जवाब मिलने के बाद शास्त्री जी ने संस्था को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने धन्यवाद देते हुए कहा कि अगली बार से उनके परिवार को केवल चालीस रुपये ही भेजे जाएं और बचे हुए दस रुपये से किसी और जरूरतमंद की मदद कर दी जाए।

1964 में जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें सरकारी आवास के साथ इंपाला शेवरले कार भी मिली थी लेकिन उसका उपयोग वे बहुत ही कम किया करते थे। वह गाड़ी किसी राजकीय अतिथि के आने पर ही निकाली जाती थी। एकबार की बात है, जब शास्त्री जी के बेटे सुनील शास्त्री किसी निजी कार्य के लिए यही सरकारी कार उनसे बगैर पूछे निकालकर ले गए और अपना काम पूरा करने के पश्चात् कार चुपचाप लाकर खड़ी कर दी। जब शास्त्री जी को इस बात का पता चली तो उन्होंने ड्राइवर को बुलाकर पूछा कि गाड़ी कितने किलोमीटर चलाई गई? ड्राइवर ने बताया, चौदह किलोमीटर! उसके बाद शास्त्री जी ने उसे निर्देश दिया कि रिकॉर्ड में लिख दो, 'चौदह किलोमीटर प्राइवेट यूज'। वे इतने से ही शांत नहीं हुए, उन्होंने पत्नी ललिता जी को बुलाया और निर्देश दिया कि निजी कार्य के लिए गाड़ी का इस्तेमाल करने के लिए उनके निजी सचिव से कहकर वह सात पैसे प्रति किलोमीटर की दर से सरकारी कोष में पैसे जमा करवा दें।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैंं।)


Updated : 2 Oct 2020 2:08 PM GMT
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