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कहीं विलुप्त न हो जाए टेसू-झैंझी विवाह की लोक परंपरा

कहीं विलुप्त न हो जाए टेसू-झैंझी विवाह की लोक परंपरा
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भिण्ड/अनिल शर्माखेल-खेल में कलात्मक गतिविधियों द्वारा बच्चों को कैसे संस्कारित करना है, यह भारतीय लोक समुदाय अच्छी तरह समझता था। शायद इसलिए ही ऐसे अवसर जुटाए जाते थे, जिन पर बालक-बालिकाएं अपनी सृजनात्मक प्रवृत्तियों को तुष्ट भी कर सकें और उन्हें अपनी परंपराओं का भान भी हो सके। ऐसा ही एक बाल खेल उत्सव टेसू-झैंझी का विवाह है। जो प्राय: सारे उत्तर भारत में खेला और मनाया जाता है। यद्यपि अब यह बालक-बालिकाओं का संयुक्त मनोरंजक खेल उत्सव विलुप्ति की ओर है। उसकी वजह विदेशी संस्कृति की ओर भाग रहे लोग भारतीय लोक कलाओं को रूढि़वादिता व अशिक्षा से जोड़कर कंप्यूटर खेलों की ओर आकर्षित हैं। आज के बच्चे कीमती बीडियो गेम, कंप्यूटर, मोबाइल में ज्यादा व्यस्त दिखाई देते हैं। उन्हें नहीं पता कि टेसू-झैंझी के विवाह की क्या परंपरा है।

क्वार माह का प्रतिपक्ष यद्यपि सभी शुभ कार्यों के लिए पूरे भारत वर्ष में अनुपयुक्त माना गया है। लेकिन लोक कला, परंपराओं की दृष्टि से ये दिन अत्यंत महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इन्ही दिनों में सदियों पुरानी टेसू-झैंझी खेलने की परंपरा को नन्हे-नन्हे हाथों से निभाया जाता है। जिसकी शुरूआत पितृपक्ष के पहले दिन से करती हैं। क्वारी लड़कियों द्वारा गांव, नगरों के माहल्लों की, घरों की दीवारें बीतकायों का रूप लेती हैं। वास्तव में यह बाल लोकोत्सव बाल शुलभ रचनात्मक प्रवृत्तियों का पारंपरिक मूर्तरूप है। जिसमें छोटी-छोटी बालिकाएं मंगल गीत गाती हुईं प्रत्येक संध्या को गोबर, रंगबिरंगे फूल और चमकदार पन्नी के टुकड़ों से दीवार पर गोल थप्पी विभिन्न रूपाकार में रचती हैं और सुबह उन्हें मिटाकर पुन: शाम को नए कल्पनात्मक चित्र में बनाती हैं। रूपगत स्थानीय विशेषताओं के साथ तरैया बनाने की यह परंपरा सारे उत्तर भारत में प्रचलित है। यह शायद दक्षिण भारत के रंगोली की परंपरा का विकल्प मानी जा सकती है।

नौ दिन खेलती हैं नोरता

पंद्रह दिन की तरैयां लगाने व विसर्जन के बाद बालिकाएं नौ दिन तक जिस स्थान पर पूर्व में गोबर की तरैयां लगाई जाती थीं, उसी स्थान पर सुअटा की प्रतिमा बनाकर प्रत्येक शाम को मंगल गायन करती हैं। अब तक इस उत्सव में केवल बालिकाओं की भूमिका अहम रूप से रही, महा नवमी के दिन से इस भारतीय संस्कृति के खेल भरे उत्सव में बालकों की प्रविष्टि होती है, वे तीन पैरों वाला एक टेसू बनाते हैं, जिसके भी कोड़ी की आंखें लगाई जाती हैं, वहीं दूसरे कन्या पक्ष एक मटकी जिसमें चारों तरफ छिद्र रहते हैं, जिसको झैंझी नाम दिया जाता है। उसके अन्दर दीपक रखकर बालिकाएं समूह बनाकर घर-घर टेसू की नजर से बचाकर जाती हैं और चन्दा स्वरूप में अनाज मांगती हैं। इस तरह पूरे छह दिन तक बालक व बालिकाओं का अलग-अलग समूह मनोरंजक गीतों को गाकर घर से चंदा एकत्रित करते हैं। मेरा टेसू यहीं अड़ा, खाने को मांगे दहीबड़ा, दहीबड़े में पन्नी धर दो एक अठन्नी, टेसू अगर करें, टेसू मगर करें, टेसू ले के ही टरें इत्यादि गीत गाते हुए लड़कों की टोलियां गली मोहल्लों में हाथ में टेसू लेकर घूमती हैं। शरद पूर्णिमा पर विवाह उत्सव की पूरी तैयारी की जाती है, खूब पकवान बनते हैं, आतिशबाजी भी चलाई जाती है। टेसू व झैंझी का विवाह संपन्न कराने की बाकायदा प्रक्रिया शुरू होती है। लेकिन विवाह संपन्न होने से पहले ही टेसू की मुंडी व नोत्ता का सिर काट लिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि टेसू और नौरता के चेहरे पर जो कोडिय़ां लगती हैं वे काफी भाग्यशाली होती हैं। इनके साथ होने से काफी काम सिद्ध हो जाते हैं। इस तरह यह उत्सव पूरे माह लोगों के लिए आनंददायी रहता है। लेकिन यह उत्सव अब शायद उतनी धूमधाम से नहीं मनाया जाता। कहीं ऐसा न हो कि हिन्दू संस्कृति का यह उत्सव आगे चलकर विलुप्त की स्थिति में पहुंच जाए।

वैसे तो हिन्दू सनातन धर्म में कई उत्सव हैं, जिसमें होली, श्रावण, दीपावली तीन बड़े त्योहार हैं, जिनको हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, दीपावली से पहले बच्चों के लिए मनोरंजक उत्सव क्वार माह में मनाया जाता था। लेकिन अब लोग अपने-अपने घरों में फटाके फोड़ कर उत्सव मनाते हैं या फिर आज के बच्चे कंप्यूटर खेलों में व्यस्त दिखाई देते हैं। जाहिर है कहीं न कहीं उत्सवों में सद्भाव की कमी आई है, लोग एकसाथ त्योहार में खुशी मनाने से डरने लगे हैं।

Updated : 25 Oct 2018 1:55 PM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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